पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४९५

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प्रसग ५२०४ प्रसज्यप्रतिषेध प्रसग-सहा पुं० [सं० प्रसङ्ग] १ मेल । संवध । लगाव | सगति । प्रसगासन-श पुं० [सं० प्रसमासन ] फामदकीय नीति के अनुसार २ बातो का परस्पर सवंध। विषय का लगाव । अर्थ की किसी दूसरे पर चढ़ाई करने के गुप्त उद्देश्य से प्राप्त शत्रु संगति । जैसे,—शब्दार्थ पूरा न जानकर भी वे प्रसग से के साथ सधि करके गुपचाप बैठना । अर्थ लगा लेते हैं। ३ व्याप्तिइप सबंध । ४ स्त्री पुरुष- प्रसंगी-वि० [सं० प्रसझिन ] १ प्रसगयुक्त । २ अनुरक्त । ३ सायोग । जैसे, स्त्रीप्रसग । प्राकस्मिक (को०)। ४ गौण । प्रमुम्य (को०)। ६. सहवास क्रि० प्र०—करना ।—होना । करनेवाला (को०)। ५. अनुरक्ति । लगन । ६ बात । वार्ता । विषय । उ०-(फ) प्रसघ'-वि० [सं० प्रसह ] श्रेणीबद्ध । पवष सरिस प्रिय मोहिं न सोक। यह प्रसग जानइ फोउ प्रसंघ - ०१ भारी भीट । बहुत चसा समूह [फो०] । कोक ।-तुलसी (शब्द०) । (ख) जस मानस जेहि विधि भयउ प्रसंजन-पा पुं० [सं० प्रसजन ] १. युक्त सरना । लगाना । जग प्रचार जेहि हेतु । अब सोइ कहीं प्रसग सव सुमिरि उमा मिलाना । २ फाम में लाना । उपयोग में लाना (फो०] । वृषकेतु ।—तुलसी (शब्द)। ७. उपयुक्त सयोग। अवसर । मौका । उ०-तव तें सुषि फछु नाही पाई। विनु प्रसंग तह प्रसघ-सबा पुं० [म० प्र+ सन्धि ] पारीर के सपिस्थल । गयो न जाई । —सूर (शब्द०)८ हेतु । कारण । उ० शरीर के अवयवों का जोट । उ०- जुगल सु दर चमर करिहहिं विप्र होम मख सेवा । तेहि प्रसग सहजहि वस देवा। करि है पोभा रचिर प्रमध है।-रा०६०, पृ० ३६८ । -तुलसी (शब्द०)। ६ विषयानुक्रम । प्रस्ताव । प्रकरण । १० प्रसधान-एशा ० [सं० प्रसन्धान ] सपि । योग । विस्तार । फैलाव। उ०—कर सर धनु, कटि रुचिर निषग। प्रसन-वि० [सं० प्रसन्न ] २० 'प्रसन्न'। उ०-एमेहु सफल अपराध प्रिया प्रीति प्रेरित वन वीथिन विचरत क्पट कनफमृग सग। अव होइ प्रसन वर देह । -मानस ११०१ । भुज विशाल, कमनीय कघ उर श्रमसीकर सोहै सांवरे प्रग। मनु मुकुतामणि मरकत गिरि पर लसत ललित रवि किरन प्रसस-सका सी० [स० प्रशसा ] ६० 'प्रचसा' । उ०-अरु जदु प्रसग।-तुलसी (शब्द०)। ११ अनुचित वध (को०)। धर्मसील फो वस । सो पुनि तुम परि भले प्रसस ।-नंद० १२ साराश (को०) । १३ प्राप्ति । उपलब्धि (मो.) । प्र०, पृ०२१८॥ प्रसगयान-सझा पुं० [सं० प्रसझयान ] कामदकीय नीति के अनुसार प्रसंसक-वि० [सं० प्रगसक ] प्रशंसा करनेवाला । स्तुति करने किसी स्थान पर चढ़ाई करने की वात प्रसिद्ध कर किसी वाला । उ०-वस प्रससक विरिद सुनावहि (-मानस, दूसरे स्थान पर चढाई कर देना । ११३१६ । प्रसगप्राप्त-वि० [सं० प्रसड ग+प्राप्त ] वह जिसकी चर्चा आ गई प्रससना-कि० स० [म० प्रशसन ] प्रशसा करना । बटाई हो। वह जिसका जिक्र हो रहा हो। प्रासगिक । २०- करना । ३० 'प्रशसना' । उ०-यह विधि उमहिं प्रससि पुनि प्रसंगप्राप्त साधारण सभी वस्तुमो का वर्णन कवि का बोले कृपानिधान । -मानस, १२१२० । कर्तव्य है।-रस०, पृ० १०३ । प्रससा-मज्ञा पुं० [सं० प्रशसा ] ३० 'प्रशसा' । उ०-दुस सुख प्रसगविध्वस-संज्ञा पुं० [सं० प्रसङ्गविश्वस ] मानमोचन के छह सरिस प्रससा गारी।-मानस, २११३०॥ उपायो में से एक । झूठा भय दिखाकर मानिनी फे चित्त में प्रस+-सज्ञा पुं० [सं० स्पर्श, हि० परस ] दे॰ 'सशं' । उ०- भ्रम उपजाकर उसका मान छुटाना । प्रसगविभ्रश । बूच बिहाणे गणे, सोच घणे गढ़ कोट । उरे समदा देस प्रसंगविभ्रश--सशा पुं० [ स० प्रसङ्गविभ्र श ] मानमोचन के छह प्रस, जथा गिरदा प्रोट ।-रा०६०, पृ० १५६ । उपायो में मतिम । प्रसागविध्वस । प्रसऊ-वि० [सं०] १ सपिलष्ट । लगा हुमा। २ जो बराबर प्रसगसम-सक्षा पुं० [सं० प्रसङ्गसम ] न्याय में जाति के अंतर्गत एक प्रकार का प्रतिपेध जो प्रतिवादी को मोर से होता है। इसमें लगा रहे । न घोटनेवाला । सदा फा। ३ सबद्ध । मासक्त । प्रतिवादी कहता है कि साधन का भी साधन कहो और इस ४ प्रस्तावित । ५ स्थापी । नित्य (को०) । ६ प्राप्त । मिला प्रकार वादी को उलझन मे सालना चाहता है। वादी हुधा (को०)। ७ खुला हुआ। व्यक्त । स्फुटित (को०)।८ दे० 'प्रयुक्त' (को०)। प्रतिज्ञा-शब्द अनित्य है। प्रसक्ति-सश सी० [सं०] १. प्रसग । सपकं । २ अनुमिति । हेतु-क्योकि वह उत्पन्न होता है। ३ भापत्ति । ४ व्याप्ति । ५ प्राप्ति । उपलब्धि (को०) ६. उदाहरण-जैसे घट । मध्यवसाय । प्रयत्न । चेष्टा (को०) । इसपर प्रतिवादी कहता है कि यदि घट के उदाहरण से प्रसज्य-वि० [सं०] १ जो सबद्ध किया जाय । २ सभव । शन्द भनित्य ठहराते हो तो यह भी सावित करो कि घट मुमकिन । ३ जिसे प्रयोग में लाया जाय । जो प्रयुक्त किया अनित्य है। फिर जव वादी घट की अनित्यता का हेतु देता जाय [को॰] । है तब प्रतिवादी कहता है कि उस हेतु का भी हेतु दो। इस प्रसज्यप्रतिपेष-सधा पुं० [सं०] एक प्रकार का निपेष जिसमें प्रकार का प्रतिपेष 'प्रसगसम' कहलाता है। विधि की अप्रधानता मौर निषेध की प्रधानता होती है। पैसे, ने कहा-