पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/५१८

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प्रातःकर्म ३२२७ प्रातिकूल्य 2 प्रावकर्म-सज्ञा पुं० [सं०] वह कर्म जो प्रातःकाल किया जाता हो । प्रातनाथल-सला पु० [स० प्रात + नाथ] सूयं । उ०—स र छिप्यो सवेरे किए जानेवाले कृत्य । जैसे, शौच, स्नान, सध्यो पश्चिम प्रकाश्यो शशि प्राची दिशि, चक्रवाक विछुरे चकोर पासन पादि। सुख पायो है । म दिनी फूली कुद मूदे भौंर बांधे बीच, प्रातःकाल-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] १ रात के प्रत में सूर्योदय के पूर्व का प्रातनाथ वूडो मानों कालकूट स्नायो है। आधी राति बीती काल । यह तीन मुहुर्त का माना गया है । सब सोए जि य जान मान, राक्षसी प्रभजनी प्रभाव सो जनायो है। बीजुरी सी फुरी भांत बुरी हाथ छुरी लोह विशेष-जिस समय सूर्य उदय होने को होता है, उससे डेढ़ दो चुरी ढीठ जुरी देखि अनद लजायो है। हनुमान (शब्द॰) । घटा पहले पूर्व दिशा में कुछ प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है पौर उधर के नक्षत्रो का रग फीका पड़ना प्रारंभ होता है । प्रातमाघg--सम्रा पु० [ स० प्रात: + माघ ] माघ मास का प्रभात । तभी से इस काल का प्रारभ माना जाता है। उ०-बिहसित्त नगर नन प्रसघ साघ । सिर द्रवत उदक विष प्रातमाघ ।-पृ० रा०,११५०१ । २ सवेरे का समय । सूर्योदय के कुछ देर बाद तक का समय । प्रातःकार्य-सज्ञा पुं॰ [ स० प्रात कार्य ] वह काम जिसे प्रात काल प्रातर-प्रव्य० [सं०] प्रभात । सबेरे । करने का विधान है । प्रात कृत्य । जैसे, शौच, स्नान, प्रातर-सहा पु० पुष्याणं पौर प्रभा के पुत्र, एक देवता का नाम । संध्योपासन आदि। प्रातर-सक्षा पु० [सं० ] एक नाग का नाम । प्रात कालिक-वि० [म.] प्रात काल सवधी । प्रात काल का [को०] । प्रातरनुवाक-सझा पुं॰ [स०] ऋग्वेद के प्रतर्गत वह अनुवाक जो प्रातःकालीन-वि० [सं०] प्रात.काल संवधी। प्रात काल का । प्रात सवन नामक कर्म में पढ़ा जाता है। प्रातःकृत्य-सशा पु० [स०] दे० 'प्रात कार्य। प्रातरभिवादन-सशा पु० [ स०] प्रात काल का प्रणाम। वह अभिवादन जो प्रात:काल सोकर उठने के समय किया जाय । प्रात संध्या-सज्ञा स्त्री॰ [स०१ वह संध्या जो प्रात काल मे की जाय । २ राथि का प्रतिम और दिन का प्रारंभिक दस । प्रातरशन-सहा पु० [ स० ] दे० 'प्रातराश' [को०] । प्रातरह-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] दोपहर के पहले का समय । पूर्वाह्न। प्रातःसवन-सशा पुं० [सं०] तीन प्रधान सवनो या सोमयागो में से पहला सवन । प्रातराश-सहा 'पु० [सं०] प्रात का हलका भोजन । जलपान । कलेवा। उ०-खाने के कमरे में जा आलो की प्रतीक्षा प्रातःस्नान-सज्ञा पुं० [स] वह स्नान जो प्रात काल में किया जाय । किए बिना प्रातराश करना प्रारंभ कर दिया।-शानदान, सबेरे का स्नान । पृ० १७३ । प्रातःस्नायी-वि० [सं० प्रातःस्नायिन् ] जो प्रात:काल स्नान करता हो । सवेरे नहानेवाला। प्रातराहुति-सज्ञा स्त्री॰ [सं० ] वह पाहुति जो प्रात फाल दी जाय । अग्निहोत्र का द्वितीयाश । प्रातःस्मरण-सझा [सं०] प्रात काल के समय ईश्वर, देवतादि के नामों का स्मरण या जप प्रादि करने की क्रिया या भाव। सबेरे के प्रातर्दन-सज्ञा पु० [ स० ] प्रतर्दन के गोत्र में उत्पन्न पुरुष । प्रतर्दन का अपत्य । समय ईश्वर का भजन करना । प्रात स्मरणीय-वि० [स०] जो प्रात काल स्मरण करने के योग्य हो । प्रातर्भोक्ता-सचा पुं० [सं० प्रातभॊक्त ] कौमा। प्रातश्चंद्रद्युति-वि० [स० प्रातश्चन्द्रद्युति ] निष्प्रभ । मलिन । निस्तेज [को०)। प्रात'-अव्य० [सं० प्रात ] सवेरे । सडके । प्रभात के समय । उ०- (क) एक देखि घट छाँह भलि, डासि मृदुल तृण पात । कहहिं प्रातस्तन, प्रातस्त्व-वि० [ स० ]. [ वि० स्त्री० प्रातस्तमी ] प्रातः गॅवाइय छिनकु श्रम, गवनब अवहिं कि प्रात | तुलसी काल से संबधित । प्रात काल का (को॰) । (शब्द०) । (ख) वनमाली दिसि मैन के ग्वाली चाली बात । प्रातत्रिवर्गा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] गगा। प्राली जमुना जाउंगी काली पूजन प्रात ।-शृ० स० (शब्द०)। प्रातस्सवन-सञ्ज्ञा पुं॰ [ म० ] दे० 'प्रात सवन' [को०] । प्रात:-सज्ञा पुं० सवेरा । प्रात काल । सूर्योदय के पूर्व का काल । प्राति-सज्ञा स्त्री० [स०] १ अंगूठे भौर तर्जनी के बीच का स्थान ।, २०-(क) प्रात भए मब भूप, वनि बनि मंडप में गए। पितृ तीर्थ । २ भरना । पूति (को०)। जहाँ रूप अनुरूप, ठौर ठौर सब शोभिज । केशव (शब्द०)। प्राप्तिकंठिक-वि० [ स० प्रतिकरिठक ] गला पकडनेवाला । (ख) सौस भए जाय शयन ठौरहि तह सोवति । करत दुख प्रातिका-सचा सी० [सं०] जवा या जपा का पेठ । की हानि प्रात लौं रोवति रोवति ।-श्रीधर (शब्द०)। प्रातिकामी-सज्ञा पु० [सं० प्रातिकामिन् ] १ सेवक नौकर । प्रातकृत-सज्ञा पुं० [स० प्रात कृत्य] दे० 'प्रात कार्य'। उ०-प्रात २ दुर्योधन के एक दूत का नाम । प्रातकृत करि रघुराई। तीरथ राजु दीख प्रभु जाई । प्रातिकूलिक-वि० [स०] [वि॰ स्त्री० प्रातिकूलिकी ] [ सञ्ज्ञा प्राति. मानस, २।१०५। कूलिकता] विरुद्ध । विपरीत (को०] । प्रातक्रियाg-रज्ञा स्त्री [सं० प्रात क्रिया] दे० 'प्रातकर्म' । उ०-प्रात- क्रिया करि तात पहि पाए चारिह भाइ।-मानस, २।३५८। प्रातिकूल्य-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] प्रतिकूल होने का भाव [को०] । श्रेष्ठ । पूज्य । .