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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/५४

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पछोरना २७६३ पट २ झटकारना। उ०—हाथ पछोडि गुरू विन ओह रोता । पजोड़ा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पाजी+श्रोढ़ा (प्रत्य॰)] पाजी । दुष्ट । -प्रारण, पृ ०४७। पजौडापन-सचा पु० [हि० पजोड़ा + पन (प्रत्य०) ] पाजीपन । सयो क्रि०-डालना ।—देना । कमीनापन । उ०-जी हाँ खुदावद, क्या मानी, जो मुहा०-फटकना पछोडना = उलट पलटकर परीक्षा करना । बात है वही पजोडेपन की।-सैर कु०, पृ० २३ । खूब देखना भालना । उ०—सूर जहां लौं श्यामगात हैं देखे पज्ज-सज्ञा पुं० [सं० पय, या पज्ज ] शूद्र । फटकि पछोरी ।—सूर (शब्द॰) । पज्जर-सञ्ज्ञा पु० [ स० पञ्जर ] दे॰ 'पांजर'। छोरना -क्रि० स० [हिं०] दे० 'पछोडना' । उ०--कहो कौन पै कदै वनूका भुम की रास पछोरे । —सूर (शब्द०)। पज्झटिका-मज्ञा पुं० [० पद्धटिका ] एक छद जिसके प्रत्येक चरण पछौरा-सञ्ज्ञा पु० [हिं० ] दे० 'पिछोरा' । में १६ मात्राएँ इस नियम से होती हैं कि ८वी और छठी मात्रा पर एक एक गुरु होता है। इसमें जगण का निषेध है। पछछ -सज्ञा पुं॰ [ हिं० ] दे० 'पीछे'। उ०-सरकि सेन सवक घरकि, पछ्छ जगल भए ठड्डे । -पृ० रा०, २४॥१९८ । पमरी-सञ्ज्ञा पुं० [म० प्रसर ( = फैलाव या वेग )] प्रसार । पछिछला@-वि० [हिं० ] दे० 'पछिला' । उ०—पछि छलो फैलाव । उ०—दहम एक चश्मा है लब खुश्क तर, गिर्द वलन सुरतान दिषि, सिंघ लोक अविलर कपो। -पृ० उसके पानी की भीगी पझर ।-दक्खिनी०, पृ० ३०२ । रा०, २४।२०५। पटंतर-वि० [हिं० पटतरना ] उपमा । समानता। बरावरी । पछथावरी-सञ्ज्ञा सी० [ देश०] एक प्रकार का सिखरन या शरबत । सादृश्य । उ०-रामनाम कै पटतरे देवै को कुछ नाहिं । क्या उ.- भूतल के सब भूपन को मद भोजन तो बहु भांति ले गुरु संतोषिए हौंस रही मन माहिं । —कबीर ग्र०, पृ० १ । कियोई। मोद सो तारकनद की मेद पछयावरि पान सिरायो हियोई। - केशव (शब्द०)। पटंबर-सञ्ज्ञा पु० [स० पट्ट ( = पाट) + अम्बर] रेशमी कपडा । कोषेय । उ०-जहँ देखौ जह पाट पटवर, प्रोढन अबर पजमुर्दगी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा० पज़मुर्दगी] उदासीनता । खिन्नता [को०] । चीर ।-घरम०, पृ०२७ । पजमुर्दा-वि० [फा० पजमुर्दा] शिथिल । उदास । मुरझाया हुआ। उ०-कहाँ हथेली पर सिर रक्खे हक पर लडनेवाले योद्धा । पटभर-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पटतर ] साटण्य । समानता । तुलना । कहाँ हथेली से सिर ढापे पजमुर्दा माटी के पोधा । -बगाल, उ०-सो विरला ससार पटभर उनका ऐसा । मिसरी पृ०५४। जैहैर समान जैहैर है मिसरी जैसा ।--पोद्दार अभि० ग्र०, पजरा-सज्ञा पुं० [ स० प्रक्षरण ] १ चूने या टपकने की क्रिया । पृ० ४३०। २ करना। पट'–सना पुं० [स०] १. वस्त्र । कपडा । २. पर्दा । चिक । कोई पजरन-क्रि० अ० [सं० प्रज्वलन] जलना। दहकना । सुलगना। प्राड करनेवाली वस्तु। उ०—(क) पजरि पजरि तनु अधिक दहत है सुनत तिहारे क्रि० प्र०-उठाना ।-खोलना ।--हटाना। वैन । —सूर (शब्द०)। (ख) याके उर औरे कछू लगी विरह की लाय । पजरे नीर गुलाब के पिय की बात सिराय । ३ लकही धातु प्रादि का वह चिकना चिपटा टुकडा या पट्टी -विहारी (शब्द०)। जिसपर कोई चित्र या लेख खुदा हुआ हो । जैसे, ताम्रपट । पजहर-सशा पुं० [फा०] एक प्रकार का पत्थर जो पीलापन या ४. कागज का वह टुकडा जिसपर चित्र खीचा या उतारा हरापन लिए सफेद होता है और जिसपर नक्काशी जाय । चित्रपट । उ०-लौटी ग्राम वधू पनघट से, लगा होती है। चितेरा अपने पट से ।-आराधना, पृ० ३७ । ५. वह चित्र पजामा-सञ्ज्ञा पु० [हिं०] दे० 'पायजामा'। जो जगन्नाथ, बदरिकाश्रम आदि मदिरो से दर्शनप्राप्त यात्रियो को मिलता है। ६ छप्पर । छान । ७. सरकडे आदि पजारना-क्रि० स० [हिं० पजरना] जलाना। प्रज्वलित करना । का बना हुआ वह छप्पर जो नाव या बहली के ऊपर डाल दहकाना । सुलगाना। दिया जाता है। ' चिरौंजी का पेड। पियार । ६. पजावना-क्रि० स० [हिं० पजारना ] हटाना । उजाड़ना । उ०- कपास । १० गधतृण । शरवान । ११. रेशम । पट्ट । (क) गौ अजमेर मियाँ तज गुम्मर । अायो दुरंग पजावे ऊपर । -रा० रू०, पृ० ३२३ । (ख) जोधाणे उत्तर दिस यौ०-परबसतर = पट्टवस्त्र । पट्टाशुक । रेशमी वस्त्र । उ०-- जेती । अहनिस राम पजावै एती ।-रा० रू०, पृ० २१६ । नहाते त्रिकाल रोज पडित अचारी बडे, सदा पटवस्तर सूत पजावा-सञ्ज्ञा पुं० [फा० पजावा ] अावा । ईंट पकाने का भट्ठा। मग ना लगाई है।-पलटू०, भा॰ २, पृ० १०६ । पजूसण-सञ्ज्ञा पुं॰ [ देश० ] जैन मत का एक व्रत । पट'---भषा पु० [ स० पह] १. साधारण दरवाजो के किवाड । पजोखा-सा पु० [?] किसी के मरने पर उसके सबधियो से शोक क्रि० प्र०--उघढना ।-खुलना ।- खोलना । —देना ।-बंद प्रकाश । मातमपुरसी। करना ।—भिदाना ।—भेड़ना ।