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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/८६

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यत्तिप २७१५ पत्थर पत्तिप-सञ्ज्ञा पु० [ म०] पत्तिपाल । पचिपाल-सञ्ज्ञा पु० [सं०] पाँच या छह सिपाहियो के ऊपर का अफसर । विशेष-प्राचीन काल मे सिपाहियो का पहरा बदलना इसी का काम होता था। पत्तिय-सज्ञा स्त्री॰ [ म० पत्री ] चिट्ठी। पत्रिका । उ-पत्तिय नहिं लिखि अल्ह कह, कह्यि जुवानिय सक्त। म्हाँ पर सैन सु डारिया रीस नयन करि रक्त ।-५० रासो, पृ० १३६ । पत्तिव्यूह-सञ्ज्ञा पु० [ स०] वह व्यूह जिसमे आगे कवचधारी सैनिक और पीछे धनुर्धर हो । (कौटि०)। पत्ती --सञ्ज्ञा पुं॰ [ म० पतिन् ] १ पैदल चलनेवाला व्यक्ति । पैदल यात्री । २ पदाति सैनिक । पैदल सिपाही । प्यादा [को०] । पत्ती-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० पा+ ई ( प्रत्य० ) अल्पार्थक ] १. छोटा पत्ता । २ भाग । हिस्सा । साझे का प्रश । जैसे,—इस दुकान मे मेरी भी एक पत्ती है। यौ०-पत्तीदार = साझीदार । हिस्सेदार। ३ फूल की पंखड़ी। दल । ४ भांग। ५ पत्ती के आकार को लकडी, धातु आदि का कटा हुआ कोई टुकडा जो प्राय किसी स्थान मे जडने, लगाने या लटकाने आदि के काम में आता है। पट्टी। ६ दाढी वनाने के काम में प्रयुक्त होने- वाला लोहे का छोटा धारदार पत्तर जिसे अंग्रेजी में ब्लेड कहते हैं । तरल पदार्थ भूगर्भ स्थित चट्टानो से टकराकर अथवा अन्य कारणो से भी अपनी गरमी खो देता और पत्थर के रूप में ठोस हो जाता है। जलज पत्थर जल के प्रवाह से बनते हैं। मार्ग मे पडनेवाले पत्थर आदि पदार्थों को चूर्ण करके जल- धारा कीचड के रूप में उन्हे अपने प्रवाह के साथ बहा ले जाती है। जिस कीचड के उपादान मे कडे परमाणु अधिक होते हैं वह जमने पर पत्थर का रूप धारण करता है । जलज पत्थरो की बनावट प्राय तह पर तह होती है पर आग्नेय पत्थरो की ऐसी नहीं होती। उपादान के भेद से भी पत्थरो के कई भेद होते हैं, जैसे आग्नेय में सगखरा, शालिग्रामी या सगमूसा आदि और जलज में बलुआ, दुधिया, स्लेट का पत्थर, सगमरमर, स्फटिक आदि । आग्नेय और जलज के अतिरिक्त अस्थिज पत्थर भी होता है। घोघे आदि सामुद्रिक जीवो की अस्थियाँ विश्लिष्ट होने के पश्चात् दबाव के कारण पुन घनीभूत होकर ऐसे पत्थर की रचना करती हैं। खडिया मिट्टी इसी प्रकार का पत्थर है। जिस प्रकार साधारण कीचड कठिन होकर पत्थर के रूप मे परि- वर्तित हो जाता है उसी प्रकार साधारण पत्थर भी दबाव की अधिकता और आसपास की वस्तुप्रो तथा जलवायु के विशेष प्रभाव के कारण रासायनिक अवस्थातर प्राप्तकर स्फटिक अथवा पारदर्शी पत्थर या मणि का रूप धारण करता है। पत्थर मानव जाति के लिये अत्यत उपयोगी पदार्थ है। आज जो काम विविध धातुपो से लिए जाते हैं प्रादिम अवस्था मे वे सभी केवल पत्थर से लिए जाते थे । जबतक मनुष्यो ने धातुओ की प्राप्ति का उपाय और उनका उपयोग नहीं जाना था तबतक उनके हथियार, औजार, वरतन भांडे सब पत्थर के ही होते थे। आजकल पत्थर का सबसे अधिक उपयोग मकान बनाने के काम में किया जाता है । इससे वरतन, मूर्तियाँ, टेबुल, कुर्सी आदि भी बनती हैं। संगमरमर प्रादि मुलायम और चमकीले पत्थरो से अनेक प्रकार की सजावट की वस्तुएँ और प्राभूषण आदि भी बनाए जाते हैं। भारत- वासी बहुत प्राचीन काल से ही पत्थर पर अनेक प्रकार की कारीगरी करना सीख गए थे। बढ़िया मूर्तियाँ, बारीक जालियां, अनेक प्रकार के फूल पत्ते आदि बनाने मे वे अत्यत कुशल थे। वौद्धो के समय मे मूर्तितक्षण और मुगलो के समय मे जाली, वेलबूटे आदि बनाने की कलाएँ विशेष उन्नत थीं। यद्यपि मुगल काल के वाद से भारत के इस शिल्प का वरावर ह्रास हो रहा है, फिर भी अभी जयपुर मे संगमरमर के बरतन और आगरे मे अलंकार आदि वडे साफ और सु दर बनाए जाते हैं। भारत के पहाडो मे सब प्रकार के पत्थर मिलते हैं। विध्य पर्वत इमारती पत्थरो के लिये और अरावली पर्वत संगमरमर के लिये प्रसिद्ध है । विशेप द० 'सगमरमर'। बोलचाल में पत्थर शब्द का प्रयोग अत्यत कडी अथवा भारी, गतिशून्य अथवा अनुभूतिशून्य वस्तु, दयाकरणाहीन, अत्यंत पत्ती-सज्ञा पुं० [?] राजपूतो की एक जाति । उ०—पती प्रौ पंचनान वघेले । अगरवार चौहान चंदेले । —जायसी (शब्द०)। पत्तीदार-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पत्ती+फा० दार ( = रखनेवाला)] जिसका किसी व्यवसाय में किसी के साथ साझा हो। साझी- दार । हिस्सेदार। पत्तर-सहा पुं० [स०] १ शाति नामक शाक। शालिंच नामक शाक २ जलपीपल। ३ पाकड का वृक्ष । ५ पतग की लकडी। ६ लाल चदन (को०)। पत्थ-सशा पु० [ स० पथ्य, प्रा. पत्थ ] दे० 'पथ्य'। पत्थ-सज्ञा पुं० [ स० पार्थ ] पृथा के पुत्र अर्जुन । उ०-हैमत हीत अग्गली पीथौ पत्थ प्रमाण-रा० रू०, पृ० २७७ । पत्थर-सञ्ज्ञा पुं० [ स० प्रस्तर, प्रा. पत्थर ] [ वि० पथरीला, क्रि० पथराना ] १ पृथ्वी के कडे स्तर का पिंड या खड । भूद्रव्य का कडा पिंड या खड। विशेष-भूगर्भ शास्त्र के अनुसार पृथ्वी की बनावट मे अनेक स्तर या तहें हैं। इनमें से अधिक कडी कलेवरवाली तहो का नाम पत्थर है। पत्थरो के मुख्य दो भेद हैं-आग्नेय और जलज । श्राग्नेय पत्थरो की उत्पत्ति, भूगर्भस्थ ताप के उद्भेद से होती है । पृथ्वी के गर्भ से जो तरल पदार्थ अत्यत उत्तप्त अवस्था मे इस उभेद द्वारा ऊपर प्राता है वह कालातर मे सरदी से जमकर चट्टानो का रूप धारण करता है। इस रीति पर पत्थर बनने की क्रिया भूगर्भ के भीतर होती है। उपयुक्त