बकरा ३३४० बकवाद विशेष-इस पशु के सींग तिकोने, गठीले और ऐंठनदार तथा और हृष्टपुष्ट होते हैं। उनका मांस भी अधिक अच्छा पीठ फी ओर झुके हुए होते हैं, पूछ छोटी होती है, शरीर होता है। से एक प्रकार की गध पाती है और बुर फटे होते हैं । यह बकरम-संशा पुं० [अ० बकरम] प्रक प्रकार का कड़ा किया हुप्रा जुगाली करके खाता है। कुछ बकरों की ठोडी के नीचे लबी वस्म जो आस्तीन, कालर आदि में कड़ाई के लिये लगाया दाढी भी होती है और कुछ जातियों के बकरे विना सीग के जाता है। भी होते हैं। कुछ बकरों के गले मे नीचे या दोनों भोर स्तन बकरवाना-क्रि० स० [हिं० बकरना का प्रेरणार्थक ] किसी से को भाति चार चार अंगुल लंबी और पतली थैली होती है अपराध क्वुलवाना । वकराना। जिसे गलस्तन या गलथन कहते हैं । बकरों की अनेक जातियाँ बकराना-क्रि० सं० [हिं० वकरना ] दोष या करतूत कहलाना । होती हैं । कोई छोटी, कोई बडी, कोई जंगली, कोई पालतू, कबूल करना। किसी के बाल छोटे और किसी के लंबे और बडे होते हैं । पार्य जाति को बकरों का ज्ञान बहुत प्राचीन काल से है। बकरिपु-सज्ञा पुं॰ [सं० वरिपु ] भीमसेन का एक नाम । वेदों में 'अज' शब्द गो के साथ ही साथ कई जगह पाया है। बकरीद-संज्ञा स्त्री० [अ० धकर + ईद ] मुसलमानों का एक बकरे की चर्बी से देवताप्रो को पाहुति देने का विधान अनेक त्यौहार। स्यलो में है। वैदिक काल से लेकर स्मृति काल तक और चकल-संज्ञा पु० [सं० वल्कल] दे० 'वकला' । उ०-बकल वसन, फल प्रायः अाज तक अनेक स्थानों में, भारतवर्ष में, यह प्रथा थी असन करि, करिही बन बिस्राम । -व० ग्र०, पृ० ११८ । कि जब किसी के यहां कोई प्रतिष्ठित अतिथि आता था तो चकलस-सज्ञा पु० [अ० चकल्स ] एक प्रकार की चौकोर या उसके सत्कार के लिये गृहपति बड़े बकरे को मारकर उसके लबोतरी विलायती कुसी या चौकोर छल्ला जो किसी मांस से अतिथि का प्रातिथ्य सत्कार करता था। बकरे बंधन के दो छोरों को मिलाए रखने या कसने के काम मे के मास, दूध और यहाँ तक कि बकरे के सग रहने पाता है। बकसुप्रा। को भी वैद्यक में यक्ष्मा रोग का नाशक माना है । बकरी का विशेष-यह लोहे, पीतल या जर्मन सिल्वर प्रादि का बनता है दूध मीठा और सुपाच्य तथा लाभदायक होता है पर उसमे और विलायती बिस्तरवंद या वेस्टकोट प्रादि के पिछले भाग से एक प्रकार की गंध पाती है जिससे लोग उसके पीने में अथवा पतलून को गेलिस आदि में लगाया जाता है । कहीं हिचकते हैं । वेदों में 'प्राज्य' शब्द घी के लिये प्राता है जिससे कही, जैसे जूतों पर, इसे केवल शोभा के लिये भी लगाते हैं । जान पड़ता है, आर्यों ने पहले पहले बकरी के दूध से ही बकना-पुं० [ स० वल्कल ] १. पेड़ की छाल । २. फल के ऊपर घी निकालना प्रारंभ किया था। यद्यपि सब जाति की का छिलका । उ०—निगम कल्पतरु को सुफल, वीज न बकला बकरियां दुधार नहीं होती, फिर भी कितनी ऐसी जातियाँ जाहि । कहन लगे रस रंगमगे, सुदर श्री सुक ताहि ।- भी हैं जो एक सेर से पांच सेर तक दूध देती हैं । बकरियों के नंद० प्र०, पृ० २२० । प्रयन मे दो थन होते हैं और वे छह महीने में एक से चार तक बच्चे जनती हैं। बच्चों के मुंह में पहले चोभर को वकलो'-संशा स्नी किो०] एक वृक्ष जो लंबा और देखने में बहुत छोड़कर नीचे के दांत नहीं होते पर छठे महीने दांत निकल सुंदर होता है । गुलरा । घबरा खरधवा । पाते हैं। ये दांत प्रतिवर्ष दो दो करके टूट जाते हैं। उनके विशेष-इसकी छाल सफेद और चिकनी होती है । इसकी स्थान पर नए दांत जमते जाते हैं और पांचवे वर्ष सब दांत लकड़ी चमकीली और प्रत्यत दृढ होती है । यह वृक्ष बीजो से बराबर हो जाते हैं। यही अवस्था बकरे की मध्य प्रायु की उगता है तथा इसके पेड़ मध्य भारत और हिमालय पर तीन है । बकरो की प्रायु प्रायः १३ वर्ष की होती है, पर कभी हजार फुट की ऊँचाई तक होते हैं। इसकी लकड़ी से कभी वे इससे अधिक भी जीते हैं। इनफे खुर छोटे और कड़े पारायशी और खेती के सामान बनाए जाते हैं तथा इसके होते हैं और बीहड़ स्थानो मे, जहाँ दूसरे पशु प्रादि नहीं जा लट्ठ रेल की सड़क पर पटरी के नोचे विछाए जाते हैं । सकते, बकरा अपना पैर जमाता हुआ मजे में चला जाता है । इसका कोयला भी अच्छा होता है और पत्ते चमड़ा सिझाने हिमालय में तिब्बती बकरियों पर ही लोग माल लादकर सुख के काम आते हैं । इस पेड़ से एक प्रकार का गोद निकलता से तिब्बत से भारत की तराई में लाते और यहां से तिब्वत है जो कपड़े छापने के काम मे प्राता है। इसे पावा, घव, ले जाते हैं । अगूरा, कश्मीरी आदि जाति की बकरियों के प्रादि भी कहते हैं। बाल लबे, अत्यंत कोमल और बहुमूल्य होते हैं और उनसे २. फल आदि का पतला छिलका । पश्मीने, शाल, दुशाले प्रादि बनाए जाते हैं। बकरा बहुत बकलो-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] अधौरी नाम का वृक्ष जिसकी लकड़ी गरीव पशु होता है और कड़वे, मीठे, कटीले सब प्रकार से हल और नावें बनती हैं। वि० दे० 'अधौरी'। के पेड़ो की पत्तियाँ खाता है । यह भेड़ की भांति बकवती-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० बकवती ] एक नदी का प्राचीन नाम । डरपोक और निर्बुद्धि नहीं होता बल्कि साहसी और बकवाद-संज्ञा स्त्री० [हिं० बक+वाद ] व्यर्थ की बात । बकवक । चालाक होता है। वधिया करने पर बकरे वहुत बढ़ते सारहीन वार्ता । उ०-(क) खलक मिला खाली रहा बहुत
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१०१
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