पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बैंगनी ३३४६ धगियां विशेप-इस पद्धति में पहले मुगदर को ऊपर उठाते हैं, फिर बगसना-त्रि० स० [हिं०] दे० 'वरूशना' । ७०- उसे कधे पर इस प्रकार रखते हैं कि हाथ मुठिया को पकड़े वगसि वितुड दिए सुडन के झुंड रिपु मुंडन की मालिका नीचे को सोधा होता है और मुगदर का दूसरा सिरा कधे दई ज्यों त्रिपुरारी को।-पद्माकर (जन्द०)। (ख) बिल. पर होता है। फिर एक हाथ को ऊपर ले जाकर मुगदर हान कन्ह चहपान को बगसि भट्ट सिर ना चढि।-पृ० को पीछे सरकाते जाते हैं यहाँ तक कि वह पीठ पर लटक रा०,६१३१६०१ । जाता है । इसी बीच में दूसरे हाथ के मुगदर को उसी प्रकार बगसोस-संशा सी० [फा० घखशीश, हि० घकसीस ] दे० ले जाते हैं जिस प्रकार पहले हाथ के मुगदर को पीठ पर 'बकसीस'। उ०-सिंगारि पील नरिंद, वगसीस कोन सु झुलाया था और तब फिर पहले हाथ का मुगदर, हाथ नीचे चंद।-५० रासो, पृ० ५७ । ले जाकर, कंधे पर इस प्रकार लाते हैं कि उसका दूसरा बगा+-सज्ञा पु० [हिं० बागा ] जामा । बाना । उ०-नद सिरा फिर कधे पर आ जाता है। इसी प्रकार बरावर करते उदो सुनि प्रायो हो वृषभानु को जगा । नाखै फूल्यो प्रोगनाई रहते हैं। सूर बखसीस पाई माथे को चढ़ाइ लीनो लाल वो बगा। ३. वह थैली जिसमें दर्जी सुई, तागा रखते हैं और जिसको वे सूर (शब्द०)। चलते समय कधे पर लटका लेते हैं । तिलादानी । घगा--सज्ञा पु० [ स० बक ] बगला । उ०-शूरा थोरा ही भला, विशेष-यह चौवोर कपड़े की होती है जिसके तीन सत का रोपै पगा। धना मिला केहि काम का, सावन का पाट दोहर दोहरकर सी दिए जाते हैं पोर चौथे में सा बगा |--कबीर (शब्द०)। एक डोरी लगा दी जाती है जिसे थैली पर लपेटकर बांधते बगाना-क्रि० स० [हिं० बगना का प्रे० रूप] १. टहलाना । हैं । यह थैली चौकोर होती है और इसके दो पोर एक फीता सैर कराना । घुमाना। फिराना । उ०-लघु लघु कंचन वा डोरी के दोनो सिरे टाके रहते हैं जिसे बगल में लटकाते के हय हाथी स्यदन सुभग वनाई। तिन मेंह धाय चढ़ाय समय जनेऊ की तरह गले में पहन लेते हैं । कुमारन लावहिं अजिर बगाई।-रघुराज (शब्द॰) । २. ४. वह सेंध जो किवाड़ की वगल में सिटकिनी की सीध में चोर फैनाना । बिखेरना । छिनरा देना । उ-(क) टूटि तार इसलिये खोदते हैं कि उसमे से हाथ डालकर सिटकिनी, अगार बगावै । काममून जनु मोहि छरावै ।-नद० प्र०, खसकाकर किवाड़ खोल लें। पृ० १३४ । (ख) चोरि चोरि दघि माखन खाइ। जो हम क्रि० प्र०-काटना ।-मारना देहि तो देइ बगाइ।-नद० म०, पृ० २४६ । ५. वह लकड़ी जिसमें हुक्केवाले गड़गड़े को अटकाकर उनमें बगाना-क्रि० प्र० भागना। जल्दी जल्दी जाना। उ.- छेद करते हैं । ६. मंगे, कुरते पादि में कपड़े का वह टुकड़ा बार बार बैल को निपट ऊंचो नाद सुनि, हूँकरत बाघ जो आस्तीन के साथ कंधे के नीचे लगाया जाता है । बगल । बिरुझानों रस रेला में । 'भूधर' भनत ताकी वास पाय सोर करि कुत्ता कोतवाल को बगानो बगमेला मे-भूधर घगलो-सज्ञा स्त्री० [हिं० बगला ] स्त्री बक । बगला नामक (शब्द०)। पक्षी की मादा। बगार-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] वह स्थान जहाँ गाएं बांधी जाती हैं । बगलोटॉग-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० बगली + टाँग ] कुश्ती का एक पेच जिसमें प्रतिपक्षी के सामने आते ही उसे अपनी वगल में बगारना-क्रि० स० [सं० विकिरण, हिं० घगरना ] फैलाना । लाकर और उसकी टांग पर अपना पैर मारकर उसे गिरा छिटकाना । पसारना । विखेरना । उ०—(क) चौक मे चौकी जराय जरी तेहि 4 खरी वार बगारत सौधे ।- बगलोबाँह-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० बगली+बाँह ] एक • पद्माकर (शब्द०) । (ख) गौने की चुनरी वैसिय है, दुलही कसरत जिसमें दो प्रादमी बराबर बराबर खड़े होकर अपनी पवही से ढिठाई बगारी।-मति ० प्र०, पृ० २६६ । वाह से दूसरे की बांह पर धक्का देते हैं। यगारो-संज्ञा पुं० [हिं० बगरना ] फैलाव । विस्तार । प्रचार । बगलोलँगोट-सज्ञा पुं० [हिं० बगली + लँगोट ] कुश्ती का एक प्रसार । उ०-बाल विहाल परी कब की दबकी यह प्रीति फी रीति निहारो। त्यो पद्माकर है न तुम्हे सुषि कोनो जो वगलेदी-संज्ञा स्त्री० [हिं० घगली ] ताल की चिड़िया । उ० वैरी बसंत बगारो।-पमाकर (जन्द०)। वोलहिं सोन ढेक बगलेदी। रही प्रवोल मीन जलभेदी। बगावत-संज्ञा स्त्री० [प्र. बगावत ] १. वागी होने का भाव । जायसी प्र०, पृ०१३॥ बलवा । विद्रोह । २. राजद्रोह । वगलौहाँ-वि० [हिं० बगल+ौहाँ ] [ सी० बगलौहीं ] बगल बगियाg-मज्ञा स्त्री० [फा० घाग + हिं० इया (प्रत्य॰)] की ओर झुका हुप्रा। तिरछा। उ०—सकुचीली क्वारिन वागीचा। उपवन | छोटा बाग । १०-(क) वन घन की पुरुषन पै बगलाही । पाह भरी देर लौं चार चितवन फूलहि टेसुवा बगियन वेलि । चले विदेस पियरवा फगुवा तिरछीही। -श्रीधर पाठक (पन्द०)। सेलि ।-रहीम (शब्द०)। (ख) हंसी खुसी गोइया मोरी घाटी। देते हैं। प्रकार की पेच ।