बगीचा ३२५० वेध वगिया पधरी तन जोतिया बरत महताब । देखते गोरी फ मैदानों में जलाशयों के पास पाई जाती है। यह जमीन के मुह रंगवा उदल बलविखा के हथवा गुलाब ।-बिरहा साथ इस तरह चिमट जाती है कि सहज में दिखाई नहीं (शब्द०)। देती। यह झुडो में रहती है। इसे संस्कृत में भरद्वाज कहते बगीचा-संज्ञा पु० [फा० वाग्चह, ] [ स्त्री० पल्पा० बगीची ] हैं । इसे कही कही उसरबगेरी भी कहा जाता है। बाटिका । उपवन । छोटा बाग। उ०-(क) लेके सब बगैचा - -सशा पु० [हिं०] दे॰ बगीचा' । सचित रतन मंथन को भय मानि । मनों बगीचा बीच गृह वगैर-प्रव्य० [अ० बगर ] विना । सिवा । बस्यो छोरनिधि पानि ।-गुमान (शब्द०) (ख) शिरोमणि बगौधा-शा पु० [ देश०] [स्त्री० बगौधी ] वगेरी नाम की बागन, बगीचन बनन बीच हुते रखवारे तहाँ पंछी की न चिड़िया। गति है ।-हनुमान (शब्द॰) । बग्ग'-सज्ञा पु० [सं० वक, प्रा० घग ] दे० 'क' । ७०-भेष बगोछा+-सज्ञा पु० [हिं० बगीचा ] दे० 'बगीचा' । उ० दरियाव में हंस भी होते हैं, भेष दरियाव में बग्ग होई ।- वलसो रस वस जाय बगीछा राधाजनक तणा ब्रजराज ।- कबीर. रे०, पृ.६। बांकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १२२ । घग्गर-सज्ञा स्त्री० [सं० बल्गा, प्रा० बग्ग ] वाग। लगाम । बगुचा -सज्ञा पु० [ फा० बुगचा, हिं• बकुचा ] दे० 'बकुचा' । उ०-गहि बग्ग हथ्य फेरत तुरंत, नट नत्य निपुन धावत उ०-कोडी लभे देनचा बगुचा घाऊ घप्य । -संतवानी०, कुरंग । पृ० रा०, ११७२३ । भा०१, पृ० १५४ । बग्ग-संज्ञा पु० [फा. याग ] बगीचा । बाग। उ०-वग्ग मग्ग बगुर-सज्ञा पु० [ स० वग्गुरा, प्रा० वग्गुरा] जाल । फंदा । गोपिक गमन । -पृ० रा०, २१३५४ । उ०-बगुर घेरि बिप्पंन अप्प मूलन में मडिप ।-पृ० ०, बग्गड़ा-वि० [प्रा०, गुज• वगढ़ ] शरारती । चिलविला । बंगड़ । ६१६७॥ बिगड़ा हुपा । वदमाश । उ०—ऐसे बग्गड का क्या ठिकाना । बगुरदा–संज्ञा पुं० [स० वल्गुल या वागुरा ] एक शस्य । उ०- जो प्रादमी स्त्री का न हुआ, वह दूसरे को क्या होगा। गुरदा, बगुरदा, छुगे, जमघर, दम तमंचे कटि कसे । -मान०, भा०५, पृ०६३ | -पद्माकर ग्रं॰, पृ० १६ । बग्गना-क्रि० प० [स० /व, प्रा. घग्ग] शब्द करना । बगुला-पुझा पुं० [हिं०] दे० 'बगला'। बजना । उ०-वग्गि आनंद निसान । -पृ० रा०, ७१८१। यौ०-बगुलाभगत = बगला भगत । वचक भगत । बगूरा-सज्ञा पुं० [सं० वायु+हिं० गडूरा ] दे० 'बगूला' । उ०- बग्गाना-क्रि० स० [सं० वल्गन, प्रा० वग्गण] वा वा करना । रंभाना । चिल्ला उठना । उ०-बाठ छता के छेरि गाय अगर के धूप धूम उठत जहाई तहाँ उठत बगूरे अब पति ही व्यानी बग्गानिय ।-पू० रा०, १३।२८ । अमाप हैं। -भूषण य०, पृ० ५४ । बग्गी-संज्ञा सी० [प्रं. बोगी ] चार पहिए की पाटनदार गाड़ी बगूला-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० घाउ + गोला] वह वायु जो गरमी के दिनों मे कभी कभी एक ही स्थान पर भवर सी घूमती हुई जिसे एक वा दो घोड़े खीचते हैं । दिखाई देती है पौर जिससे गर्द का एक खभा सा बन जाता पग्गु -सशा क्षी० [हिं०] वल्गा । लगाम । है । बवंडर । वातचक्र। बग्गुरल-संज्ञा पु० [सं० वागुरा, प्रा० वग्गुर, वग्गुरा] जाल । विशेप-यह वायुस्तंभ आगे को बढता जाता है। इसका व्यास फंदा। उ०-वग्गुर अगिनत परत कितिक फदन पग और ऊंचाई कभी कम और कभी अधिक होती है। इसे विद्घत ।-पृ० रा०, ६।१०४ । गवार लोग 'भवानी का रथ' कहते हैं । कभी कभी बड़े व्यास बग्घी-संञ्चा खी० [हिं०] दे० 'बग्गी'। वाले बगूले में पड़कर बड़े बड़े पेड़ और मकान तक उखड़कर बघंबर-मना पुं० [स० व्यताम्बर ] १. बाघ की खाल जिसपर साबू उड़ जाते हैं । यह बगूला जब समुद्र या नदियों में होता है लोग बैठकर ध्यान लगाते हैं। उ.-(क) बरुनी वधंबर तब उसे 'सूडो' कहते हैं। इससे पानी नल की भांति कपर में गूदरी पलक दोऊ कोए राते वसन भगोहैं भेष रखियाँ ।- खिंच जाता है। देव (शब्द०)। (ख) सार की सारी सो भारी लगै परिबे बगेड़ी -सज्ञा स्त्री॰ [हिं० ] एक चिड़िया। दे० 'बगेरी' । उ० कह सीस बघबर पैथा। हांसी सो दासी सिखाइ लई हैं वेई घरी परेबा पाडुक होरी । केहा कदरौ अउर' वगेरी। जो वेई रसखानि कन्हैया ।-रसखान (गन्द०)। २. बाघ की जायसी (शब्द०)। खाल की तरह बना हुमा कबल । बगेदना-क्रि० स० [अनु० देश० ] धक्का देकर दूर करना । बघंमरि-पंज्ञा पु० [सं० च्याब्राम्बर ] दे० 'बघंबर' । उ०—कहिं भगा देना। खाकिया खाक बघमरि है कहि पाँव उलटि के रोवता है।- बगेरी-मज्ञा स्त्री॰ [देश॰] सारे भारत में पाई जानेवाली खाकी रंग संत० दरिया, पृ०६६ । की एक छोटी चिड़िया । बगौधा । बघेरी । भव्ही । बघ पु-पज्ञा पुं॰ [हिं॰] बाघ का समास में प्रयुक्त रूप । जैसे, विशेष—यह डीलहौल में गौरैया के समान होती है पौर बघनखा । -
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१११
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