पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बचर बधनहाँ ३३५२ यौ०-बघछाल, बघाला = व्याघ्रचर्म । बाघ की खाल । उ० बघूला-संज्ञा पुं० [हिं० ] 'बगूला'। उ०-जित जित फिरे कर उदपान कांप बघछाला ।-जायसी ग० (गुप्त), पृ. भटकतो यों ही जैसे बायु बघूल्यों रे ।-सुंदर ग्रं॰, भा० २, २०५ । बधनखना = बाघ के नख का पाभूषण । उ०—कंठ पृ०६३०॥ कठुला सोहै प्रो बघनखना।- नंद० प्र०, पृ० ३४०। बघूली-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] बघनखा । उ०-जटित बघूली छतियन बघनखा = दे० 'बघनहीं'। बधनहा = ध्याघ्रनख का प्राभूषण । • लसै ।। चंद कननि कई हैं सै |-नंद० ग्रं०, २४५ । उ०-एक बघन हा इसके गले मे पड़ा रहे तो अच्छा है।- बघेर. बघेरा--शा पु० [हिं० बाध+एर ( प्रत्य०) ] लकड़बग्घा । भारतेंदु म, भा० ३, पृ० ५७२ । बघेल-संज्ञा पुं० [ ? ] राजपूतों की एक शाखा का नाम । बघनहाँ-संज्ञा पु० [हिं० याघ+ नहँ ( = नाखून) [ स्त्री० अल्पा० बघनहीं ] १. एक प्रकार का हथियार जिसमें दाघ के नह बघेलखंड-संज्ञा पुं० [हिं० बघेल (जाति) + खंड ] मध्य भारत में एक प्रदेश जिस में किसी समय बघेल राजपूतों का राज्य के समान चिपटे टेढ़े कोटे निकले रहते हैं। यह उँगलियों में था। अंग्रेजी शासन में यह प्रदेश मध्य भारत की एजेंसी के पहना जाता है और इससे हाथापाई होने पर शत्रु को नोच अंतर्गत रहा। अब इसका नाम मध्य प्रदेश है और इसमें लेते हैं । शेरपंजा । २. एक आभूषण जिसमें वाघ के नाखून चांदी या सोने में मढ़े होते हैं। यह गले मे तागे में गूंथकर रीवा, नागोर, मैहर इत्यादि राज्य अतर्भूत हैं । पहना जाता है। उ०-कंठुला कंठ वधनहीं नीके। नयन बघेलखडी-सक्षा सी० [बघेलखड + ई. (प्रत्य॰)] १. बघेलखंड से सरोज प्रयन सरसी के ।—तुलसी (शब्द०)। संबंधित व्यक्ति या वस्तु । २. बघेलखड की भाषा । बघनहियाँ -[हिं० वाघ +ना इया (प्रत्य॰)] बघनहाँ बघेली-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० घाघ+ एली (प्रत्य॰)] बरतन खरादने- पाभूषण । ड०-बड़े बड़े मोतिन की माला बड़े बड़े नैन वालों का वह खूटा जिसका ऊपरी सिग प्रागे की पोर कुछ नान्ही नान्ही भृकुटी कुटिल बघनहियाँ ।-केशव (शब्द॰) । बढ़ा होता है । इस सिरे को धाई या नाक कहते हैं और इसी पर रखकर बरतन खरादा या कुना जाता है। बघना-संज्ञा पु० [हिं० घघनहाँ ] बघनहीं प्राभूषण । उ०- सीप जमाल श्याम उर सोहै विच वघना छवि पावै री। मानो बघेरा-संज्ञा पुं॰ [ हि० ] दे० 'वगेरी'। द्विज राशि नखत सहित है उपमा कहत न आवै री।-सूर बध्ध-संज्ञा पुं० [सं० च्याघ्र प्रा० वध्ध ] बाघ । व्याघ्र । उ०- (शब्द०)। तहाँ सिंह बघ्घानहू ने ग्रसे हैं । -पद्माकर ग्रं०, पृ० १० । संघरूरा-संज्ञा पुं० [हिं० वायु + गैंडूरा ] बगूला। चक्रवात । बच-सञ्ज्ञा पुं० [सं० वचस् ] वचन । वाक्य । बात । उ०—(क) बवंडर । उ०-चित्र फी सी पुत्रिका की रूरे बघरूरे माह जौं मोरे मन बच अरु काया। प्रीति राम पदकमल पांबर छोड़ाय लई कामिनी की काम की।-केशव अमाया । - तुलसी (शब्द०)। (ख) जइनों समीर सीतल (शब्द०)। बहु सजनी मन बच उड़ल सरीर ।-विद्यापति, पृ० ५०८ । वघार-संञ्चा पुं० [अनु० हिं० बघारना] १. वह मसाला जो बघारते (ग) नैनन ही विहंसि बिसि कोलों बोलिही जू बच हूँ तो समय घी में डाला जाय । तड़का । छौंक । बोलिए बिहँसि मुख बाल सों।-केशव (शब्द०)। क्रि० प्र०-देना। यौ.-पचपाल म = वचन पालना। कही बात पर पढ़ रहना । २. बघारने की महक । उ०-द्विज सनमान दान वचपालन दृढ़ व्रत को हठि नाहिं क्रि० प्र०-थाना । -उठना । टरै ।-भारतेंदु ग्र०, भाग २, पृ० ४६५ । घघारना-क्रि० स० [स० अवधारण (= वधारण) या हि० अनु०] बच-मंशा स्त्री॰ [ सं० वचा ] एक प्रकार का पौधा जो प्रोषषि १. क्लछी या चम्मच में घी को प्राग पर तपाकर और उसमें के काम मे पाता है। हीग, जीरा आदि सुगंधित मसाले छोड़कर उसे दाल प्रादि की पर्या०- उग्रगधा। पड्ग्रंथा। गोलोमी। घटलोई मे मुह ढांककर छोडना जिसमें वह दाल आदि भी मगल्या । जटिला । तीक्ष्णा । लोमशा । भद्रा । कांगा। सुगंधित हो जाय | छोकना । दागना । तड़का देना । २. अपनी विशेष - यह पौधा काशमीर से प्रासाम तक तथा मनीपुर और योग्यता से अधिक, विना मोके या अावश्यकता से अधिक वर्मा मे दो हजार से छह हजार फुट तक ऊंचे पहाड़ों पर चर्चा करना । जैसे, वेदांत बघारना । अंग्रेजी बघारना । पानी के किनारे होता है। इसकी पत्ती सोसन की पत्ती के मुहा०-शेखी बघारना= बहुत बढ़ बढ़कर बातें करना। शेखी आकार की पर उससे कुछ बड़ी होती है। इसके फूल नरगिस हांकना। के फून की तरह पीले होते हैं। पत्तियों की नाल लंबी होती है। पत्तियों से एक प्रकार का तेल निकाला जाता है जो पघुरा, बघूरा-संज्ञा पुं० [हिं० वायु + गैंडूरा] बगूला । बवंडर। उ०-(क) बघुरे को पात ज्यों जमीन प्रासमान को।- खुला रहने से उड़ जाता है। इसकी जल लाली लिए सफेद प्रज• पृ० १३४ (ख) वायु बघूरा पुनि ध्वजा यथा चक्र रंग की होती है जिसमें अनेक गाँठे होती हैं । पत्तियां खाने में को फेर ।-सुदर , भा० २. पृ० ७२८ । (ग) मेरो मन कड़वी, चपरी और गरम होती हैं और उनमे से तेज गंध अवे भठ्ठ पात हू वघरे को ! धनानंद, पृ० ६२ । निकलती है। झुक में इसे वमनकारक, दीपन, मल सौर शतपर्विका । -