पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/११९

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घंटा । भूखा सोवै वॅटना जैसे, तागा बटना । रस्सी वटना। उ०-तेकर बट के भांज बटलोई-संज्ञा सी० [हिं० वटला ] दाल, चावल प्रादि पकाने का भांज के बरत रसरा।-पलटू० बानी, पृ० ६२ । २. चौड़े मुह का गोल वरतन । देग । देगची । पतीली । उमेठना । ऐंठना। उ०-सुन देख हई विभोर मैं, वटती घटवा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० वटुवा ] दे० 'बटुवा' । उ०-झोली थी परिधान छोर मैं ।-साकेत, पृ० ३५७ । पत्र विभूति न बटवा, अनहद वेन वजावै । मागि न खाइ न सयोकि०-देना।-ढालना।—लेना । घर अंगना फिरि आवै ।-कबीर ग्रं., बटना-संज्ञा पुं० रस्सी बटने का अौजार । पृ० १५८ । बटना-क्रिया अ० [हिं० बट्टा (= पीसने का पत्थर)] १. सिल पर बटवाना-क्रि० स० [हिं० वाँट ] दे० 'बटवाना' रखकर पीसा जाना । पिसना । उ०-हिकमत जो जानो चहौ बटवायक-शा पु० [हिं० बाट + पायक] रास्ते मे पहरा देनेवाला। सीखौ याके पास । बट कुटै न तनै तक केसर रंग सुवास ।- चौकीदार । (पुराना)। रसनिधि (शब्द०)। २. बहक जाना । बंट जाना । ३. खत्म बटवार'- ज्ञा पुं० [हिं० बाट+मं० पाल, या हिं० वार, वाला ] होना । चुक जाना । खलास होना। १. राह बाट की चौकसी रखनेवाला कर्मचारी। पहरेदार । संयो क्रि०-जाना। २. रास्ते का कर उगाहनेवाला । वटना --संज्ञा पु० [स० उद्वर्तन, प्रा० उच्वटन ] उबटन । सरसो, बटवार-संज्ञा पुं० [हिं० बटपार ] बटपार । वटमार । उ०- चिरोजी प्रादि का का लेप जो शरीर की मैल छुड़ाने के इश्क प्रेम पथ बड़ कठिनाई । ठग बटवार लगै बहु भाई । लिये मला जाता है। -संत० दरिया, पृ० ३३ । बटपराg+-सज्ञा पुं॰ [ हिं• ] दे० 'बटपार' । उ०-(क) चित बटा-संज्ञा पुं॰ [सं० वटक ] [बी० प्रल्पा० बटिया ] १. गोल । वित वचन न हरत हठि लालन हग बरजोर । सावधान के वतु'लाकार वस्तु । २. गेंद । कंदुक । उ०-(क) झटकि बटपरा वे जागत के चौर । - बिहारी (शब्द०)। ख) चढ़ति उतरति अटा नेकु न थाकति देह । भई रहति नट नेह नगर मैं कह तुही कौन बसे सुख चैन । मनधन लुटत को वटा अटकी नागरि नेह । -विहारी (शब्द॰) । (ख) सहज मैं लाल वटपरा नैन ।-स० सप्तक, पृ० १६१ । लै चौगान बटा कर प्रागे प्रमुपाए जव वाहर ।-सूर (शब्द०)। ३. ढोंका। रोड़ा। डेला । उ-ते बटपार बटपार-संज्ञा पुं० [हिं० घाट+पड़ना ] [ स्त्री० बट पारिन] राह, वटा करयो बाट को बाट में प्यारे की बाट बिलोको।-देव बाट में डाका डालनेवाला । डाकू। लुटेरा। उ०-छबि मुकता लूटन बगे प्राय जरा बटपार । बैठि बिसूरै सहर के (शब्द०)। ४. बटाक । बटोही। पथिक । राही । उ०- वासी कर कटतार ।-रसनिधि (शब्द०)। ले नग मोर समुद मा बटा। गाढ़ पर तो ले परगटा।- जायसी (शब्द०)। वटपारा-संज्ञा पुं० [हिं० बाट+पड़ना] दे० 'वटपार' । उ०-(क) में एक प्रमित बटपारा । कोउ सुनै न मोर पुकारा।-तुलसी बटा-वि० [हिं० बँटना ] विभक्त । वटा हुप्रा । ग्रंशद्योतक (शब्द॰) । (ख) विच विच नदी खोह और नारा। ठावहिं बटा-संज्ञा पुं० विभाग सूचित करनेवाला शब्द । ठांवें बैठ बटपारा।-जायसी (शब्द०)। शब्द और चिह्नविशेष । (विशेषतः गणित में प्रयुक्त) । जैसे, चार वटे पांच ६ का अर्थ है किसी वस्तु के पांच वरावर बटपारो'-सज्ञा स्त्री॰ [ हिं० बटपार ] बटपार का काम । डकैती । भाग मे बौटने पर चार भाग या प्रश। उ०-पूरा कब ठगी । लूट । है जब लगा बटा । रुपया न रहा तो आने क्या ? -पारा. बटपारी २-सञ्ज्ञा पु० [हिं० ] दे० 'बटपार' । घना, पृ०३०॥ बटम-संज्ञा पु० [ देश० ] पत्थर गढ़नेवाले का एक प्रौजार जिससे बटाई -सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० बटना] १. बटने या ऐंठन डालने का कोना साधते हैं । कोनिया । काम । बटने की मजदूरी। बटमार-सज्ञा पुं० [हिं० बाट+मारना ] मार्ग में मारकर छीन वटाई २–संञ्चा झी० [हिं० बाटना ] दूसरे को खेत देने का एक लेनेवाला । ठग । डाकू । लुटेरा । प्रकार जिसमें मालिक को उपज का कुछ मंश मिलता है। बटमारी-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० बटमार+ई (प्रत्य०)] दे० 'बटपारी'। दे० 'बंटाई। उ०-सारे खेत वटाई पर लगे हुए थे। उ०-एकहि नगर वसु माधव हे जनु कर बटमारी । -रति०, पृ० ३१ । -विद्यापति, पृ० २६२ । बटाऊ' - सञ्चा पु० [हिं० घाट (= रास्ता)+श्राऊ (प्रत्य॰)] बाठ घटला-संज्ञा पुं॰ [ सं० वर्तुल, प्रा० व ल ] चावल, दाल आदि चलनेवाला। बटोही । पथिक । मुसाफिर । राही। 30- पकाने का चौड़े मुह का गोल बरतन । बड़ी बटलोई । देग । (क) राजिवलोचन राम चले तजि दाप को राज बटाल की देगचा। उ०-तविया कलसा कूडि सतहरा बटली बटला । नाई।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) वोर बठाक पंथी हो तुम दुकरा और परात डिवा पीतर के धकला।-सूदन कौन देस तें पाए | यह पाती हमरी ले दीजं जहाँ सांवरे (शब्द०)। छाए।-सूर (शब्द०)। बटनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बटला] बटलोई। मुहा०-घटाज होना=राही होना । चलता होना । चल देना।