पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१४२

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बनवनी १५८१ बनाना विशेप-इस प्रांत में जौनपुर, आजमगढ़, बनारस पोर अवध वनहटो-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की छोटी नाव जो डांड़ से का पश्चिमी भाग संमिलित था। कुछ लोग इसका विस्तार खेई जाती है। वैसवाड़े से विजयपुर तक और गोरखपुर से भोजपुर तक भी बनहरदी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० वनहरिद्रा ] दारु हल्दी । दारु हरिद्रा। मानते हैं। इस प्रात के बारह राजानो अर्थात् (१) विजयपुर बनांतर-सज्ञा पु० [सं० वनान्तर ] दूसरा वन । दूसरा भाग । के गहरवार, (२) बछगोती के खानजादे, (३) बैसवाड़े के उ.-बिहरत प्रति आसक्त जु भए । गोधन निकसि वनांतर बिसेन, (४) गोरखपुर के श्रीनेत, (५) हरदी के हैहयवशी । गए ।-नंद० ग्र०, पृ० २८७ । (६) डुमरांव के उजनी, (७) त्योरी भगवानपुर के राजकुमार, बना-संज्ञा पु० [हिं० बनना ] [ स्त्री० बनी] बर। दूल्हा । (८) घंगोरी के चदेल, () सरुवर के फलहस, (१०) नगर के गौतम, (११) कुड़वार के हिंदू बछगोती पोर (१२) उ०-बानी सी बानी सुनी, वानी बारह देह । बनी बनी सी पै वनी, नजर बना की नेह । -ब्रज० प्र०, पृ० ५६ । मझौली के बिसेन ने मिलकर एक संघ बनाया था और निश्चय किया था कि हमलोग सदा परस्पर सहायता करते बनार-संज्ञा पुं० [ ? ] एक छंद का नाम जिसमें १०, ८ और १४ रहेगे। ये लोग 'बारहो बनवध' कहलाते थे। के विश्राम से ३२ मात्राएँ होती है। इसका दूसरा पोर प्रसिद्ध नाम 'दडकला' है। बनवना-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'बनाना'। उ०-बनवत पहिनत पहिनावत अतिसय प्रसन्न मन ।-प्रेमघन०, भा० वनाइ-क्रि० वि० [हिं० बनाकर (= अच्छी तरह)] १. विल्कुल । निपट । अत्यंत । नितांत । उ०—(क) देखि घोर तप शक १, पृ०४२.1 उर कंपित भयो बनाइ । मनमथ सकल समाज जुत प्रादर बनवर-संज्ञा पु० [हिं० ] दे० 'बिनौला'। कीन्ह बुलाइ।—(शब्द०)। (ख) हरि तासो कियो युद्ध बनवसन-संज्ञा पुं० [सं० धन + वसन ] वृक्षों की छाल का बनाई । सब सुर मन मे गए डराई ।—सूर (शब्द०)। २. बना हुघा कपड़ा। भली भांति । अच्छी तरह । उ०-सुर गुरु महिसुर संत की बनवा'-संज्ञा पुं० [सं० वन (=जल)+हिं० वा (प्रत्य॰)] पनडुब्बी सेवा कर इ बनाइ ।-(शब्द०)। नामक जलपक्षी। बनाउ-सज्ञा पु० [हिं० ] दे० 'बनाव' । उ०—(क) सात दिवस वनवार-संज्ञा पुं० [सं० वन (= जंगल)] एक प्रकार का बछनाग । भए साजत सकल बनाउ । -तुलसी ग्रं०, पृ० २० । (ख) मो बनवाना-क्रि० स० [हिं० पनाना का प्रे० रूप ] दूसरे को बनाने मन सुरु तो उड़ि गयो, अब क्यो हूँ न पत्याय । बसि मोहन बनमाल में रहो बनाउ बनाय |-मति० ग्र०, पृ० ३५४ । में प्रवृत्त करना । बनाने का काम दूसरे से कराना । उ०- कोळ रसोई बनवत अरु फोऊ बनवावत ।-प्रेमघन०, बनाउरिg+-शा स्त्री॰ [ सं० वाणावलि ] दे० 'वाणावली' । पृ० २७॥ बनागि-संज्ञा स्त्री॰ [सं० वनाग्नि, प्रा० वणागिदे० 'बनाग्नि' । बनवारी-संज्ञा पुं० [सं० बनमाली ] श्रीकृष्ण का एक नाम । बनाग्नि-संज्ञा स्त्री० [सं० वनाग्नि ] दावानल । दवारि । वनवासी संज्ञा पु० [सं० वनवासिन् ] वन का निवासी । जगल में बनात-अज्ञा स्त्री० [हिं० बाना ] एक प्रकार का बढ़िया ऊनी रहनेवाला। कपड़ा जो कई रंगो का होता है। उ०-लाल बनात का कनटोप दिए ... उन्ही के पीछे खड़ा था।-श्यामा०, बनवैया-संज्ञा पुं० [हिं० यनाना+वैया ( प्रत्य॰)] बनानेवाला । पृ० १४५। पति, बनसपती-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति ] दे० 'वनस्पति' । बनाती-वि० [हिं० बनात + ई (प्रत्य॰)] १. वनात संबधी । उ०-करहिं वनसपति हिए हुलासू ।-जायसी ग्रं०, पृ० १५५ । २. वनात का बना हुआ । बनसार-संज्ञा पुं० [सं० वन ( =जल)+सार? ] जहाज पर बनान-संज्ञा पुं० [हिं० बनाना] दे० 'बनाव' । उ०-बहु बनान चढ़ने मोर उतरने का स्थान । बगसार । (लश.) वै नाहर गढ़े । —जायसी न० (गुप्त ), पृ० १४७ । बनसी-संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'वशी' । बनाना-क्रि० स० [हिं० घनना का सक० रूप] रूप या अस्तित्व बनसी-संज्ञा स्त्री० [सं० वढिश] मछली फंसाने की कॅटिया । देना । सृष्टि करना । प्रस्तुत करना । रचना । तैयार करना । दे० 'बंसी'। उ०-इक धीवर बुद्धि उपाई। धनसी का साज जैसे,—(क) यह सारी सृष्टि ईश्वर की बनाई हुई है । (ख) बनाई।-सुदर० प्र०, भा० १, पृ० १२६ । अभी हाल में कुछ नए कानून बनाए गए हैं। (ग) वे वनस्थली-संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्थली ] जंगल का कोई भाग । पाककल एक महाकाव्य बना रहे हैं । (घ) इस सड़क पर एक वनखंड । अस्पताल बन रहा है। बनस्पति-संज्ञा स्त्री० [सं० वनस्पति ] दे० 'वनस्पति' । संयो॰ क्रि०-डालना ।—देना ।-लेना । यौ०-बनाना बिगाड़ना । वनस्पति विद्या-संज्ञा स्त्री॰ [सं० वनस्पति विद्या] दे० 'वनस्पति पशास्त्र। मुहा.-बनाकर = खूब अच्छी तरह । भली भांति । पूर्ण रूप से ।