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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१४९

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कल कोकिल- बयनी ३२८ धयालिसा बयनी-वि० [हिं० बयन ] बोलनेवाली। जो बोलती हो । बयान-संज्ञा पुं॰ [फा० ] १. बखान । वर्णन । जिक्र । चर्चा । २. जैसे, फोकिलवयनी। उ०-करहि गान हाल । विवरण । वृत्तांत । ३. वक्तव्य । बयनी।-मानस, १।२८६ । क्रि० प्र०-करना ।—होना । —देना। घयपारी-सज्ञा पु० [ सं० व्यापार ] दे० ' 'व्यापार' । उ०-जातो. बयाना'-संशा पु० [अ० वै+ फा० पाना (प्रत्य०) ] वह धन जो कोई चीज खरीदने के समय अथवा किसी प्रकार का ठेका बहु बयपार पारख हथ्यार, मार जानो गिरि दीनद्याल ठोटें सब पाठ कों।-दीन० प्र०, पृ० ३५७ । श्रादि देने के समय उसकी बातचीत पक्की करने के लिये बेचने वाले अथवा ठे। लेनेवाले को दिया जाय। किसी काम घयर-सञ्ज्ञा पुं० [सं० वैर, प्रा० वइर, वयर ] दे० 'वैर' । उ०-दक्ष के लिये दिए जानेवाले पुरस्कार का कुछ प्रश जो बातचीत सकल निज सुता बुलाई। हमरे बयर तुम्ही बिसराई।- पक्की करने के लिये दिया जाय । पेशगी । अगाऊ । मानस, ११६२ । विशेष-बयाना देने के उपरात देने और लेनेवाले दोनो के लिये वयल-ज्ञा पुं० [हिं०] सूर्य । यह आवश्यक हो जाता है कि वे उम निश्चय की पावदी करें बयस'- ज्ञा स्त्री० [सं० वयस् ] दे० 'वय' । जिसके शिये वधाना दिया जाता है । वयाने की रकम पीछे से बयस-सज्ञा पुं॰ [स० वायन ] दे॰ 'बायन', 'बैना' । दाम या पुरस्कार देते समय काट ली जाती है। बयसर - संशा लो. [ देश० ] कमखाब बुननेवालों की वह लकड़ी जो बयाना-क्रि० प्र० [सं० वचन, प्रा. वयन ] सोने की अवस्था में उनके करघे में गुल्ले के ऊपर नीचे लगती है । बड़बड़ाना । बना। बयसवालाg+-वि० [ स० वयस् + हिं० वाला ] [स्त्री० वि० बयावान-सज्ञा पु० [फा० बियावान ] १. जंगल । उजाड़ । उ०- वयसवाली ] युवक । जवान । कोई सीस्तान और बलूचिस्तान के बयावानो को।-किन्नर०, वयससिरोमनि -संशा पु० [ सं० वयस +शिरोमणि ] युवावस्था। पृ० १०॥ जवानी । यौवन । उ०-बय किसोर सरियार मनोहर बयस बयार, बयारि@ि-सशा सी० [सं० वायु ] हवा । पवन । उ०- सिरोमनि होने |-तुलसी (शब्द०)। (क) देखि तरु सब प्रति डराने है बड़े बिस्तार । गिरे कसे वयसा-सज्ञा स्त्री॰ [ स० वयस्या ] सखी। वयस्या .।-अनेकार्थ०, बड़ो पचरज नेकु नही वयार-सूर (शब्द॰) । (ख) तिनुका पृ०६३ बयारिफ बस, ज्यों भाव त्यों उड़ाइ लै जाइ मापने रस । बयसु-संज्ञा पुं० [ सं० वैश्य ] वाणिज्य कर्म करनेवाला। वैश्य । -स्वा० हरिदास (गन्द०)। उ०-सोपिय बयसु कृपन धनवानू ।-मानस, २२१७२ । मुहा-बयार करना = ऊपर पंखा हिलाना जिससे हवा लगे। बयाँगा-संज्ञा पुं० [ देश० ] झूला । उ०-भोजन करत कनक की थारी। द्रुपदसुता तह करति वयारी।-(शब्द०)। वयाँवार–क्रि वि० [अ० ययान ] सिलसिलेवार । उ०-सुनो अब वयारा-संज्ञा पुं० [हिं० बयार ] १. हवा का झोंका । २. तूफान । नए तौर की और बात । वयाँवार कहता हूँ खूबी के साथ -दक्खिनी०, पृ० ३००। बयारी'-सा जी० [ देशी विधालिउ ] दे० 'वियारी', 'व्यालू' । बयारी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'यार' । उ०-पावत देखहिं बया-संज्ञा पुं० [सं० बयन (= वुनना)] गौरेया के प्राकार और · विषय बयारी।—मानस, ७।११८ । पीले रंग का प्रसिद्ध पक्षी। विशेष-इसका माथा बहुत चमकदार पीला होता है । यह पाला बयाला-सज्ञा पु० [स० बाह्य + हिं० श्राला ] १. दीवार मे का वह जाता है और सिखाने से, संकेत करने पर, हलकी चीजें छेद जिससे झांककर बाहर की वस्तु देखी जा सके । २. ताख । जैसे, कौड़ी, पत्ती आदि, किसी स्थान से ले पाता है । यह आला। ३. पटाव के नोचे को खाली जगह । ४. किलों या गढ़ों में वह स्थान नहीं तोपें लगी रहती हैं। ५. कोट अपना घोसला सूखे तृणो से बहुत ही कारीगरी के साथ की दीवार में वह छोटा छेद या अवकाश जिसमें से तोप का पोर इस प्रकार बुनकर बनाता है कि उसके तृण बुने हुए गोला पार करके जाता है। उ०-तिमि घरनाल घोर कर- मालूम होते हैं। नाले सुतरनाल जंजाले । गुर गुराव रहेकले भले तह लागे बया-सज्ञा पुं० [अ० पयाह (= बेचनेवाला) वह जो अनाज तौलने विपुल बयाले ।-रघुराज (शब्द०)। का काम करता है। अनाज तौलनेवाला। तौलया। उ०- (क) प्रेमनगर मैं हग बया नोखे प्रगटे प्राई। दो मन को कर बयालिस-संज्ञा पुं० [सं० द्विचत्वारिंशत्, प्रा० विचात्तालीसा, एक मन भाव दियो, ठहराइ।-सप्तक, पृ० १६६ (ख) एक, बायालीसा, वियालस ] १. चालीस और दो की संख्या । इस एक वया, दलाल भी सौ सौ, दो दो सौ इसमें फूक तापते संख्या का सूचक घंक जो इस प्रकार लिखा जाता है-४२ । थे।-प्रेमधन०, भा०२, पृ० ३३० । बयालिस-वि० जो गिनती में चालीस से दो अधिक हो । वयाई -प्रज्ञा स्त्री० [हिं० बया +पाई (प्रत्य॰)] पन्न आदि बयालिसा.-वि० [हिं० बयालिस+वा (प्रत्य॰) ] जो क्रम में तौलने की मजदूरी। तौलाई । बयालिस के स्थान पर हो । इकतालिसवें के बाद का।