पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१५२

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घरखास्तगी ३३६१ परजोर । बरखास्तगी-संशा स्त्री॰ [फा० वरखास्तगी] १. नौकरी या सेवा इसके दर्शन तथा स्पर्श ग्रादि से बहुत पुण्य होना पौर दुःख से अलगाव । सेवानिवृत्ति । मौकूफी [को०] । तथा आपत्तियों प्रादि का दूर होना माना जाता है पौर बरखिलाफ-क्रि० वि० [फा० बरखिलाफ ] प्रतिकूल । उलटा। इसलिये इस वृक्ष का लगाना भी बड़े पुण्य का काम माना विरुद्ध। जाता है । वैद्यक के अनुसार यह फषाय, मधुर, शीवल, गुरु, प्राहक और कफ, पित्त, व्रण, दाह, तृष्णा, मेह तथा योनि- वरखुरदार'-संज्ञा पुं० [फा० वरखरदार] पुत्र । बेटा। संतान । दोष-नाशक माना गया है । वरखुरदार-वि० फलयुक्त । फूलता फलता । भाग्यवान् [को०] । पर्या० न्यग्रोध । बहुपात । वृक्षनाथ । यमप्रिय । रक्तफल । वरगंधा-ज्ञा पुं० [सं० वर+गन्ध ] सुगंधित मसाला । भूगो। फर्मज । ध्रुव । क्षीरी । वैश्रवणावास । भांढरी । चरग-संज्ञा पुं० [फा० बगं] पत्ता। पत्र । जैसे, बरग वनफप्ता । जटाल । अवरोही । विटपी । स्कदरुह । महाच्छाय । भृगी। बरग गावजुवाँ । यतावास । यक्षतर । नील । बहुपाद । वनस्पति । वरग-सज्ञा पुं० [सं० वर्ग ] दे० 'वर्ग' । बरगश्ता-वि० [फा० बरगश्तह.] प्रतिकूल । उलटा । फिरा हुमा। वरगद-संशा पु० [सं० वट, हिं० बड़ ] वड़ का पेड़। पीपल, गूलर विपरीत । उ०—ऐ रसा जैसा है बरगश्ता जमाना हमसे । धादि की जाति का एक प्रसिद्ध बड़ा वृक्ष जो प्रायः सारे ऐसा घरगश्ता किसी का व मुकद्दर होगा।-भारतेंदु ग्रं०, भारत में बहुत अधिकता से पाया जाता है। भा०२, पृ० ८५७ । विशेप-अनेक स्थानों पर यह प्रापसे माप उपता है। पर बरगेल-संशा पु० [ देश० ] एक प्रकार का यदा (पक्षी) जिसके इसकी छाया बहुत घनी और ठंढी होती है, इसलिये कहीं पंजे कुछ छोटे होते हैं घोर जो पाता जाता है। कहीं लोग छाया आदि के लिये इसे लगाते भी हैं। यह बहुत बरचर-संज्ञा पुं॰ [देश॰] हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का दिनों तक रहता, बहुत जल्दी बढ़ता मोर कभी कभी प्रस्सी देवदार वृक्ष जिसकी लकड़ी भूरे रंग की होती है। घेसी । या सौ फुट की ऊंचाई तक जा पहुंचता है। इसमें एक पर्यापी । लेख। विशेषता यह होती है कि इसकी शाखामों में से बस निकलती है जिसे वरोह कहते हैं और जो नीचे की मोर पाकर जमीन बरचस-संशा पुं० [सं० वर्षस्क ] विष्ठा । मल । (रि०) । मे मिल जाती है और तप एक नए वृक्ष तने फारूप वरच्छा-संवा पु० [सं० वर+ ईक्षा (= ईक्षण) ] विवाह की बात धारण कर लेती है। इस प्रकार एक ही घरगद की डालों में पक्की होने पर वर के पिता के हाथ में जनेऊ, द्रव्य मोर फल से चारों ओर पचासों जटाएँ नीचे माकर जड़ पौर तने रखने की रीति । इसे लोग घरछेकाई भी कहते हैं। का फाम देने लगती हैं जिससे वृक्ष का विस्तार बहुत वरछा-संज्ञा पुं॰ [सं० प्रश्चन (= काटनेवाला) ? ] [ स्त्री० बरछी ] शीघ्रता से होने लगता है। यही कारण है कि बरगद के भाला नामक हथियार जिसे फेंककर अथवा भोंककर किसी बड़े वृक्ष के नीचे सैकड़ों हज़ारों पादमी तक बैठ सकते हैं। इसके पत्रों और डालियों प्रादि में से एक प्रकार का दूध विशेष-इसमें प्रायः एक बालिप्त लंवा लोहे का फल होता है निकलता है जिससे घटिया रबर बन सकता है। यह दूध और यह एक बड़ी लाठी के सिरे पर जड़ा होता है । यह प्रायः फोड़े फुसियों पर, उनमें मुह करने के लिये, और गठिया सिपाहियो और शिकारियो के काम का होता है। आदि के दर्द में भी लगाया जाता है। इसकी छाल का काढ़ा वहुमूत्र होने में लाभदायक माना जाता है। इसके पये, जो वरचैत–संज्ञा पुं० [हिं० बरछा + ऐत (प्रत्य॰)] बरछा चलानेवाला। वहे और चौड़े होते हैं, प्रायः दोने बनाने और सौदा रखकर भालावर । उ०-सहस दोइ बरछैन जे न कबहूँ मुख देने के काम आते हैं। कहीं कहीं, विशेषतः मकाल के समय मोरत ।-सुजान०, पृ० २६ । मे, गरीब लोग उन्हें खाते भी हैं। इसमें छोटे छोटे फल वरजनहार-वि० [हिं० घरजना+हार (प्रत्य॰) ] रोकनेवाला । लगते वो गरमी के शुरू में पफते है पोर गरीबों के खाने पर निवारक । २०-बहह करहू होय सोई कोन वरपनहार । काम पाते हैं । यो तो इसकी लकड़ी फुसफुसी पोर कमजोर जग००, भा०२, पृ० १०३। होती है और उसका विशेष उपयोग नही होता, पर पानी के भीतर वह खूब ठहरती है। इसलिये कुएं की जमव' वरजनाल-क्रि० प्र० [सं० वर्जन ] मना करना। रोकना। निवारण करना । निषेध करना। मादि बनाने के काम पाती है । साधारणतः इसके संदूक मोर स० पर्जन] १. मनाही। २. रुकावट । चौखटे बनते हैं। पर यदि यह होशियारी से काटी जाय पोर वरजनि-सजा रखी० [. ३. रोक। सुखाई जाय तो और सामान भी बन सकते हैं। डालियों में से निकलनेवाली मोटी जटाएं बहंगी के डंडे, गाड़ियों के जुए वरजवान-वि० [फा० वरजवान ] जो जवानी याद हो । मुखान । और खेमो के चोव बनाने के काम आती हैं। इस पेड़ पर कई तरह के लाख के कीड़े भी पल सकते हैं। हिंदू लोग वरजोर'- वि० [हिं० बल, वर + फ़ा० जोर ] १. प्रवल । बलवान् । बरगद को बहुत ही पवित्र पौर स्वयं रुद्रस्वरूप मानते हैं । जवरदस्त । उ० ते रनरोर कपीस किसोर वंदे बरजोर परे मारते हैं। कंठस्प।