पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१५३

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बरजोर ३३६२ वरताव भाड़ा। फग थाए । —तुलसी (शब्द॰) । २. अत्याचार पथवा अनुचित गिलास, हंडा, परात, घड़ा, हांड़ी, मटका प्रादि । भाड़। बलप्रयोग करनेवाला। वरजोर-क्रि० वि० १. जबरदस्ती । बलपूर्वक । उ०-भूषन वरतन-संज्ञा पु० [ सं० वर्तन ] वरतना या व्यवहृत करने का भनत जौ लौं भेजो उत और तिन, वेही काज वरजोर क्टक भाव । बरताव । व्यवहार । कटायो है । -भूषण ०, पृ० ७२ । वरवना'-क्रि० प्र० [स० वर्तन ] किसी के साथ किसी प्रकार बरजोरन-संज्ञा पु० [सं० वर (= पति) + हिं० जोरन (= का व्यवहार करना । बरताव करना । जैसे,—जो हमारे साथ मिलान) ] १. विवाह के समय पर और वधू के पल्लों में बरतेगा, उसके साथ हम भी बरतेंगे । गांठ बांधा जाना । गठबंधन । २. विवाह (डि०) । बरतनारे-क्रि० स० काम में लाना । व्यवहार में लाना। इस्तेमाल वरजोरी-संत्रा स्त्री० [हिं० बरजोर-ई (प्रत्य॰) । जवरदस्ती। करना । जैसे,—यह कटोरा हम बरसों से वरत रहे हैं, पर बलप्रयोग । प्रबलता। अभी तक ज्यों का त्यों बना है। वरजोरी–क्रि० वि० जबरदस्ती से । बलपूर्वक । बरतना-संज्ञा स्त्री॰ [ सं० वर्तनी ] एक प्रकार की कलम । वरट-पंज्ञा पु० [ स० ] एक प्रकार का अन्न [को॰] । बरतनी। उ०--राजपूताना में अब भी लकड़ी की गोल तीखे बरडा-पंज्ञा पुं० [सं० वरट ] भिड़ । बरै। उ०—बरड छता के मुह की कलम को जिससे बच्चे पट्टे पर सुरखी बिछाकर छरि, गाय व्यानी बग्गानिय ।-पृ० रा०, १३।२८ । अक्षर बनाना सीखते हैं थरथा या बरतना कहते हैं । -भा० वरड़ाना-क्रि० स० [ अनुध्व० ] दे० 'बर्राना' या 'बड़बड़ाना' । प्रा० लि०, पृ० ६ । उ०—(क) सुपने हू बरडाइ के जिह मुख निफसै राम - परतनी-संशा स्त्री॰ [सं० वर्तनी ] १. लकड़ी आदि की बनी एक कबीर प्र०, पृ० २६१ । (ख) सब जग सोता सुध नहिं पावै । प्रकार की कलम जिससे विद्यार्थी लोग मिट्टी या गुलाल बोले सो सोता बरड़ावै ।-दरिया० बानी, पृ० २४ । प्रादि बिछाकर उसपर अक्षर लिखते हैं। अथवा तांत्रिक लोग यंत्र आदि भरते हैं । २. लेखनप्रणाली । लिखने का ढंग । वरण-संज्ञा पुं० [सं० वर्ण ] दे० 'वणं'। प्रक्षर । उ०-राम बरण जग रूप मेसह वरण सिरताज ।-रघु० ६०, पृ०२। बरतर-वि० [फा० तुल० सं० बर+तर (प्रत्य॰)] श्रेष्ठतर । अधिक वरणना-क्रि० स० [सं० वर्णन ] दे० 'वरनना। उ०-भजर मच्छा उ०-याने बुजुर्ग हैं वह वरतर ।-दक्खिनी०, अमर अज अंगी और अनंगी सब वरणि सुनावै ऐसे कौने पृ० ३०३। गुण पाए हैं। -केशव (शब्द॰) । बरतराई -संज्ञा स्त्री॰ [फा० घरतर ] वह कर जो जमींदार की बरतंत-संज्ञा पुं० [सं० वृत्तान्त ] दे० 'वृत्तात' । उ०—तव पोर से बाजार में बैठनेवाले बनियों और दुकानदारों प्रादि फहिय जामिनि कंत। यह लिखिय तिय बरतंत।-५० से लिया जाता है । बैठकी । झरी । रासो, पृ० १२। बरतरफ-व० [ फा० तर+श्र तरफ़ ] १. किनारे । भलग । एक बरत'-सज्ञा पु० [सं० व्रत ] ऐसा उपवास जिसके करने से पुण्य ओर । २. किसी कार्य, पंद, नौकरी प्रादि से अलग । छुड़ाया हो । परमार्थसाधन के लिये किया हुपा उपवास । विशेष- हुप्रा । मौकूफ । बरखास्त । दे० 'व्रत' । उ०-जप तप संध्या वरत सरि तजै खजाना फ्रि० प्र०—करना ।—होना । कोष । कह रघुनाथ ऐसे नृपं रती न लागै दोष ।-रघुनाथ बरताना'-क्रि० सं० [ स० वर्तन या वितरण ] सबको थोड़ा थोड़ा दास (शब्द०)। देना । वितरण करना । बांटना । यौ०-तीरथ घरत = उ०-नारद कहि संवाद अपारा। तीरथ संयोकि०-डालना-देना । वरत महा मत सारा ।-सबलसिंह (शब्द॰) । बरताना-क्रि० स० [सं० वर्तन ] वरताव करना । आचरण वरत-सज्ञा स्त्री० [हिं० वरना (= बटना) ] १. रस्सी । उ० करना । उ०-ज्ञान सु इंद्रिय पंच ये भिन्न भिन्न बरताहिं । वरत बांधकर धरन में कला गगन में खाय । अर्घ प्रघं नट सुदर० प्र०, भा॰ २, पृ० २४ । ज्यो फिरे सहजो राम रिझाय।-सहजो०, पृ० ४२ । २. बरताना-संज्ञा पुं० [सं० वर्तन, हिं० वरतना ] १. व्यवहार । नट की रस्सी जिसपर चढ़कर वह खेल करता है । उ०- बरताव । उ०-पिता प्राइ कीयो संयोगा, यह कलियुग (क) डीठ बरत वांधी अटनि चढ़ि धावत न डरात । इत बरताना:-सुंदर , भा॰ २, पृ० ८७४ । २. व्यवहार में उत ते चित दुहुन के नट लो प्रावत जात ।-बिहारी आया हुप्रा वस्त्र । व्यवहृत वस्त्र प्रादि । ३. व्यवहृत (शब्द॰) । (ख) दुई कर लीन्हे दोऊ बैस विसवास वास सामान । बर्तन प्रादि (हलवाई) । डीठ की बरत चढ़ी नाचे भौं नटिनी। -देव (शब्द॰) । बरताव--सज्ञा पु० [हिं० बरतना का भाष ] बरतने का ढंग । मिलने वरतन'-संज्ञा पुं० [सं० वर्तन (= पात्र) ] मिट्टी या धातु आदि जुलने, बातचीत करने या बरतने, प्रादि का ढंग या भाव | की इस प्रकार बनी वस्तु कि उसमें कोई वस्तु, विशेषतः खाने वह कर्म जो किसी के प्रति, किसी के संबंध में किया जाय। पीने की, रख सकें। पात्र । जैसे, लोटा, थाली, कटोरा, व्यवहार । जैसे,—(क) वे छोटे बड़े सबके साथ एक सा 1.