पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१६१

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घरास ३४०० घरी 1 बरास-संज्ञा पुं॰ [अं॰ बेस ] जहाज में पाल की वह रस्सी जिसकी सहायता से पाल को घुमाते हैं बराह-संज्ञा पुं॰ [ सं० ] दे० 'बराह' । उ०—सेसनाग और राजा वासुक वराह मुछित होइ पाई।-नवीर० श०, मा० २, पृ०१२। बराह-क्रि० वि० [फा०] १. के तौर पर । जैसे, बराह मेहर- बानी। २. जरिए से | द्वारा। बराही-सज्ञा खी० [ देश० ] एक प्रकार की घटिया ऊन । बरिअरी-वि० [हिं० बरियार ] दे० 'बरियार'। उ०—गर्वहि मत्रि वाद खिन पाया। मति बरिअर धो गरब निवावा ।- चित्रा०, पृ० १३६ । बरिअरा-सज्ञा पु० [ देश० ] दे॰ 'बरियार'। वरिआई'–क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बरियाई' । बरियाई२–सशा स्त्री० दे० 'घरियाई'। बरियाता-संज्ञा पुं॰ [हिं० ] दे० 'वरात' । उ०—विधु वरिपाती धीर समीर । -विद्यापति, पृ० १६५ । बरिरी-वि० [हिं०] [वि॰ स्त्री० ] वरिपारि दे० 'परियार' । उ०-(फ) यह सोहिल परिमार जो हतों होत भिनुपार ।- चित्रा०, पृ० १४६ । (ख) प्रस परिपारि मारि विधि फीन्हा । पुरुषम्ह माह सरन जिन लीम्हा ।-चित्रा०, पृ० १४२। बरिच्छा-संञ्चा पुं० [हिं० ] दे० 'घरच्छा'। वरिबड-वि० [सं० वलवन्त ] घरखंड । मली । दुर्घर्ष । १०- (क) क्रोध उपजाय भृगुनंद वरिबंर को ।-केशव (शब्द॰) । (ख) विधि विरुद्ध कछु सूझ परत नहिं कहा फरे बरिवंड हुमाऊँ ।-अकबरी०, पृ० ६० । परियाG+ --संज्ञा स्त्री॰ [हिं० बेरा] समय । अवसर । काल । दे० 'वेरिया' । उ०—(क) दादु नीकी बरिया प्राय करि, राम जपि लीन्हा । प्रातम साधन सोधि करि कारिज भल कीन्हा ।-दादू०, पृ० ४१ । (ख) फरि लै सुकृत यह बरिया न पावै फेरि ।-सुंदर० प्र०, भा॰ २, पृ० ४१६ । बरिया@२-सज्ञा सी० [सं० वल्ली, वल्लरी] लता। बेलि । उ०-फूलन वरिया फूल है फैली अंग न समाय ।-ग्रज. ग्रं॰, पृ० ५६ । बरिया-संज्ञा पुं० [हिं० वारी ] दे० 'वारी' । उ०-नौवा भूले वरिया भूले, भूले पंडित ज्ञानी ।-कबीर० श०, भा० २, पृ० १०७॥ बरिया+४-वि० [सं० घलिन् ] बलवान् । ताकतवर । उ०- तुलसिदास को प्रभु कोसलपति सब प्रकार बरियो ।-तुलसी (शब्द०)। बरिया"-सज्ञा सी० [सं० वटिका ] बटी । बरी। वरियाई।'–क्रि० वि० [सं० बलात् ] हठात् । जवरदस्ती से । उ०-मत्रिन पुर देखा विनु साई। मो कहें दीन राज परियाई । —तुलसी (शब्द॰) । बरियाई–मचा स्त्री० [हिं० वरियार ] १. बलवान होने का भाव । बलशालिता । ताकतवरी । २. बलप्रयोग । जबरदस्ती। बरियार-वि० [हिं० घल+श्रार (प्रत्य॰)] बली। वलवान् । मजबूत । उ०-फोन्हेसि कोई निमरोसी, किन्हेसि कोइ बरियार |-जायसी , पु०२। बरियारा-संशा पुं० [सं० वला ] एक छोटा झाड़दार छतनारा पौधा जो हाथ सवा हाथ ऊंचा होता है। विशेष- इसकी पत्तियां तुलसी की सी पर कुछ बड़ी और खुलते रग की होती हैं । इसमें पीले पीले फूल लगते हैं जिनके झड जाने पर कोदो के से वीज पडते हैं। वैद्यक में बरियारा कडू वा, मधुर, पिचातिसारनाशक, बलवीर्य- वर्धक, पुष्टिकारक भोर कफरोधविशोषक माना जाता है। इसके पौधे की छार से बहुत पच्छा रेशा निकलता है जो अनेक कामों में पा सकता है। इस पौधे को खिरेटी, बीजवंघ और घनमेयी भी कहते है। पर्या.- वाटयपुप्पी। समांशा। विहला । वलिमी। चला। श्रोदनी । समंगा। भद्रा । खरकझाप्टिका । कल्याणिनी । भद्रपला। मोटापाटी । वलाढया । शीतपाकी । वाट्यवाटी। निलया । वाटिका । खरयप्टिका । ओपनाह वा । पातघ्नी । कनका । रक्ततंदुना। क्रूरा। प्रहासा। वारिगा। फणि- जिविका । जयती । कठोरयष्टिका । बरियाल-संझा पुं० [देश॰] एक प्रकार का पतला घास । यासी । बरिला-संज्ञा पुं० [हिं० वड़ा, परा] पकौड़ी या की तरह का एक पकवान । उ०-बने पनेक -पन्न पचाना। परिल इउरहर. स्वादु महाना ।-रघुराज (शब्द०)। बरिल्ला -संज्ञा पुं० [ देश० ] सज्जोखार । बरिवंड-वि० [सं० वलवत्, हिं० वक्तवंत ] १. बलवान् । वली। २. प्रचंड । प्रतापी। वरिशी-संज्ञा स्त्री० [सं०] बडिश । वंसी [को॰] । बरिषना-क्रि० प्र० [हिं०] दे० 'वरसना' । बरिया-संज्ञा स्त्री॰ [ सं० वर्षा ] दे० 'वर्षा' । उ०—ये श्यामघन तू दामिनि प्रेमपुंज वरिषा रस पीजै। हरिदास (शब्द०) । परिष्ठ-वि० [सं० वरिष्ठ ] दे० 'वरिष्ठ' । वरिसा-संज्ञा पु० [सं० वर्ष ] वर्ष । साल । उ०—(क) पाव बरिस महें भई सो वारी। दीन्ह पुरान पढइ वइसारी।- जायसी (शब्द॰) । (ख) तापस वेष विशेष उदासी । चौदह बरिस राम बनवासी ।—तुलसी (शब्द॰) । बरो'-संज्ञा स्त्री॰ [ स० पटी, प्रा०, बड़ी] गोल टिकिया। वती। २. उर्द या मूग को पीठो के सुखाए हुए छोटे छोटे गोल टुकड़े जिनमें पेठे या पालू के कतरे भी पडते हैं। ये घी मे तलकर पकाए जाते हैं । उ०-पापर, वरी प्रचार परम शुचि । पदरख पो निबुवन ह्र है रुचि |--सुर (शब्द०)। ३. वह मेवा या मिठाई जो दूल्हे की ओर से दुलहिन के यहाँ जाती है।