पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१६२

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NU बरी ३४०१ घरड़ा बरी २ --संज्ञा स्त्री० [हिं० वरना (= जलना)] एक प्रकार का निज प्रतिबिंब वरुक गहि जाई।-पानस २१४७ । (ख) नहि कंकड़ जो फूंके जाने के बाद चूने की जगह काम में प्राता नैमित्तिक रुक नित्य की बात बतावत ।-प्रेमघन०, है। कंकड़ का चूना। भा० १, पृ० १२ । बरी-संज्ञा स्त्री० [ देश ०] एक प्रकार की घास या कदन्न जिसके बरुन+-संज्ञा पुं॰[सं० वरण] दे॰ 'वरुण' । उ०-वरुन कहत कवि दानों को बाजरे में मिलाकर राजपूताने की अोर गरीब लोग नीर कहें, वरुन स्याम को नाम |-अनेकार्थ०, पृ० १४३ | खाते हैं। बरुना'-संज्ञा पुं० [सं०. वरुण ] एक सीधा सुंदर पेड़ जिसकी वरी-वि० [फा०] १. मुक्त । छूटा हुपा। बचा हुप्रा । जैसे, पलियां साल में एक बार झडती हैं । बन्ना । बलासी। इलजाम से बरी। २. खाली । फारिग (को॰) । विशेष-कुसुम काल में यह पेठ फूलों से लद जाता है । फूल क्रि० प्र०—करना ।—होना । -हो जाना। उ.-बरी हो सफेद प्रौर सुगंधित होते हैं। इसको लकडी चिकनी जाने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही और मजबूत होता है जिसे , खरादकर पच्छी पच्छी चीजें थी।-ज्ञान०, पृ० ५। बनती हैं। ढोल, कंधियों पौर लिखने की पट्टियाँ इम लकड़ी बरी-वि० [सं० पली] दे० 'बली' । उ०-वरम नियाउ चलइ मत की अच्छी बनती हैं.। बरुना भारतवर्ष के सभी प्रांतों में भाखा । दूवर बरी एक सम राखा ।- जायसी (शब्द०)। हाता है और बरमात में बीजों से उगता है। इसे बन्ना और बरीक-वि० [हिं० बारीक ] पतला । सूक्ष्म । उ०-जहाँ राम तहँ बलासी भी कहते हैं। में नहीं, मैं तह नाही राम । दादू महल बरीक है, दुइ के बरुना-संज्ञा स्त्री० [सं० वरुणा ] दे० 'वरुणा' (नदी)। नाहीं ठाम ।-संतवानी, भा० १, पृ०६५ । बरुनाश-संश्चा सी० हिं०] दे० . 'बरुनी' । उ०-धनुफ समा घरीवर्द-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बलीवद' । है भिकुंठी, धरुना शोखी पान |-इंद्रा०, पृ०१८ । बरीस-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वर्ष' । ७०-(क) जानि लखन बरुनी-ज्ञा स्त्री॰ [ सं०. वरप--(= ढकना)-] पलक के किनारे पर सम देहिं पसीसा। जिय हु सुखी सय लाख घरीसा - के बाल । घरोनी । उ०—(क) अंजन वरुनी पनच को लोचन तुलसी (शब्द॰) । (ख) नंद महर के लाहिले तुम बीमो बान चलाय।-(शब्द०)। (ख) वरुनी चघंबर में गूदरी कोटि वरीस ।-सूर (शब्द॰) । पलक दोऊ, कोए राते बसन, भगौहें भेष रखियो ।-देव बरीसना-क्रि० स० [हिं० बरसना ] दे० 'घरसना' । उ० (शब्द०)। (क) सघन मेघ होइ साम यरीसहिं ।-कायसी (शब्द०)। वरुला-संवा पुं० [हिं०] दे 'पल्ला'। (ख) समय गेले मेघे घरीसब, कोदई ते जपधार ।- बरुवा-संधा पुं० [हिं० ] दे० 'बरुपा'। विद्यापति, पृ० १२०॥ बरुहाल-संशा पुं० [ सं० बह ] मोरपंख । वरीसानु-संडा पुं० [हिं०] दे० 'परसाना' । ४०-वरीसामु यौ०-घरुहाचंद = मोरपंखों का चांद । उ०-बीन बीच गिरि गाइऐ, परम पुनीत सुथान ।-घनानंद, पृ० २४१ । वरहाचंद फूलनि के सेहरा माई ।-छीत०, पृ० ३६ ।। बरुण-अव्य [ सं० वर ( = श्रेष्ठ, भला)] भले ही। ऐसा हो बरूँज-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] देवदार की जाति का एक एक पेड़ । जाय तो हो जाय । चाहे । कुछ हर्ज नहीं । कुछ परवा नहीं। उ०-याद है क्या, पोट में वरूँज की प्रथम बार ।-इत्यलम् उ०-(क) सूरदास बरु उपहास सहोई सुर मेरे नद सुवन पृ० १८७॥ मिले तो पं कहा चाहिए। -सूर (शब्द०)। (ख) बरु तीर मारह लषनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं। बरूथ -संज्ञा पुं॰ [सं० वरूथ ] दे० 'वरूथ' । उ०-चहुँ दिसि वरूथ बनाइ । तिन राम घेरे जाइ ।-मानस, ६ । -मानस, २११००। घा-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'वर'। उ०-लिख लाई सिय को बरु, बरुथी-संज्ञा स्री० [सं० वरूथ.] : एक नदी जो सई और गोमती के ऐसो । राजकुमारहि देखिय ऐसो।-केशव (शब्द०)। बीच में है। उ०-बहुरि वरूथी सरित लखि उतरि गोमती घासु । निरस्यो साल विशाल वन विविध विहंग बिलासु।- बरुआ-संज्ञा पुं० [सं० बटुक, प्रा० बटुन ] १. बटु । ब्रह्मचारी। जिसका यज्ञोपवीत हो गया हो पर जो गृहस्थ न हुआ हो। रघुराज (शब्द०)। बरूद-संज्ञा पु० [फा० बारूद ] दे० 'बारूद'। उ०-भरत तोस २. ब्राह्मणकुमार | ३. उपनयन संस्कार । जनेऊ संस्कार। दानन कोउ, सिगरा भरत वरूदहि । -प्रेमघन०, भा० १.. पृ० २४ । वरुपा-संज्ञा पुं॰ [हिं० घरना ] मूज के छिलके की बनी हुई वद्धी जिससे हालियां बनाई जाती हैं। बरड़ा-संज्ञा सी० [सं० वरयडक (= गोला, गोल लकड़ी)] १. लकड़ी का वह मोठा गोल लट्ठा जो सपरेल या छाजन की. वरुका-प्रव्य० [हिं० बह+क (प्रत्य॰)] दे० 'वरु' । उ०—(क) ५-१६ 3