पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१६३

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परेंडी ३४०२ यकंदाज लंबाई के वल एक पाखे से दूसरे पाखे तक रहता है। इसी बर पक्ष को यह सूचित करने के लिये दिया जाता है कि के पाधार पर छप्पर या छाजन का टट्टर रहता है। २. संबंध की बातचीत पक्की हो गई। इसके द्वारा वर रोका छाजन गा खपरैल के बीचोबीच का सबसे ऊंचा भाग। रहता है । अर्थात् उससे और किसी कन्या के साथ विवाह की उ०-यह उपदेश सेंत ना भाए जो चढ़ि कही बरेंड़े ।-सूर बातचीत नही हो सकती । बरच्छा । फलदान । उ०-(क) (शब्द०)। राजा कहै गरव से प्रही इंद्र सिवलोक । सो सरवरि हैं मोरे कासे करउँ घरोफ।—जायसी ग्रं॰, पृ० २०। (ख) मा बरेंडी-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० ] दे० 'बरेंडा'। उ०-छानि बरेंष्टि प्रो पाट पछीति मयारि कहा किहि काम के कोरे ।-अकबरी०, घरोक तय तिलक संवारा ।-जायसी ग्र०, पृ० ११६ । बरोकर-संज्ञा पुं० सं० बलौक सेना । फौज । पृ० ३५४। घरेल-क्रि० वि० [सं० वल, हिं० घर ] १. जोर से । बल बरोक-कि० वि० [सं० बलौक ] बलपूर्वक । जवरदस्ती । उ०- पूर्वक । २. जबरदस्ती से । ३. ऊंची प्रावाज से । ऊँचे स्वर धावन तहाँ पठावहु देहि लाख दस रोक । होइ सो बेली से । उ०-बोलि उठोगी बरे तेरो नाव जो बाट मे लालन जेहिं बारी प्रानहिं सवहि बरोक |-जायसी (शब्द०)। ऐसी करोगे ।- (शब्द॰) । बरोठा-संज्ञा पु० [स० द्वार+कोष्ठ, हिं० बार + कोठा] १. ड्योढ़ो । बरे-व्य० [सं० वत्त (= पलटा), हिं० घद, बदे ] १. पौगे। उ-चढे पयोधर को चितै जात कितै मति खोह । पलटे में | २. निमित्त । वास्ते । लिये। खातिर । उ०- छन मैं धन रस बरसिहै रही बगेठे सोई-स० सप्तक, हाजिर मैं हौं हुजूर में रावरे सेवा बरे सहित लघु भाई। पृ० २८४/२. बैठक । दीवानखाना। -रघुराज ( शब्द०)। मुहा०—यरोठे का चार = द्वारपूजा । द्वारचार । बरेखी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँह + रखना ] स्त्रियों की भुजा पर घरोधा-पंज्ञा पुं॰ [देश॰] वह खेत या भूमि जिसमें पिछली फसल पहनने का एक गहना । कपास की रही हो। बरेखी-संज्ञा सी० [हिं० घर+देखना, घरदेखी ] विवाह संबंध बरोबर-वि० [हिं० ] दे० 'बराबर' । के लिये वर या कन्या देखना। विवाह की ठहरोनी । उ० बरोरु, बरोरू-वि० [सं० वरोह ] दे० 'वरोरु' । उ०—जानसि घरघाल चालक कलह प्रिय कहियत परम परमारथी । तैसी मोर सुभाउ बरोरु ।—मानस, २।२६ । घरेखी कीन्हि पुनि मुनि सात स्वारथ सारथी । तुलसी बरोह-संज्ञा स्त्री० [सं० वट, हिं० वर + रोह (= उगनेवाला)] वरगद (शब्द०)। (ख ) लोग कह पोच सो न सोच न संकोच के पेड़ के ऊपर की डालियो में टंगी हुई सुत या रस्सी के मेरे ब्याह न बरेखी जाति पाति न चहत हौं।-तुलसी रूप की वह शाखा जो क्रमशः नीचे की ओर बढ़ती हुई जमीन (शब्द०)। पर जाकर जड़ पकड़ लेती है । बरगद की जटा । बरेज, घरेजा-संज्ञा पुं० [सं० वाटिका, प्रा. वाडि ] पान का घरौंछी-संज्ञा स्त्री० हिं० बार + श्रो'छना ] सूपर के बालों की बगीचा । पान का भीटा। बनी हुई कूची जिससे सुनार गहना साफ करते हैं। बरेठा बरेठा-संज्ञा पुं० [ देश० ] रजक । धोबी । बरौखा-संज्ञा पुं० [हिं० घड़ा> घड़+ऊख ] एक प्रकार का गन्ना बरेत'-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'बरेता' । जो बहुत ऊँचा या लंबा होता है । वडीखा । बरेत-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] मंथनरज्जु । मथनी की रस्सी । बरौठा -संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'वरोठा'। बरेता-संज्ञा पुं० [हिं० बरना, बरना+ एत (प्रत्य॰)] सन का घरौनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'वरुनी'। उ०-यासू वरौनियों मोटा रस्सा । नार। तक पाए, नीचे न किंतु गिरने पाए ।-साकेत, पृ० बरेदी-संचा पुं० [ देश ] चरवाहा । ढोर चरानेवाला । १५६ । बरेबा-संज्ञा पुं० [सं० वाटिका, वाडिमा ] दे० 'बरेज' । बरौनी २- संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] चौका वर्तन साफ करनेवाली मज- घरेषी-संज्ञा स्त्री० [हिं•] दे॰ 'बरेखी' । उ०—जो तुम्हरे हठ दूरनी। उ०-थोडी देर में बरौनी चौका साफ करने भाई । हृदय विसेषी । रहि ने जाप विनु किए बरेषी।-तुलसी -शुक्ल अभि० ग्रं० (जी०), पृ०७ । (शब्द०)। बरौरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० वड़ी, बरी ] बड़ी या बरी नाम का घरडा-संज्ञा पुं[हिं० ] दे० 'बरेड़ा"। पकवान । उ०-बढ़ी संवारी और फुलौरी । पौ खंडवाना घरो-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० वार, बाल ] पाल की जड़ का पतला लाय वरोरी।-जायसी (शब्द०)। रेशा । (रंगरेज)। बर्कदाज-संज्ञा पुं० [फा० बर्कन्दाज़ ] दे० 'वरकंदाज' । उ०-- बरो-संचा पुं० [देश॰] एक घास जिससे धागों को हानि पहुंचती है। अधिकारियो ने सरकारी वकदाजों और तहसील के चपरा- बरो-वि० [हिं० ] दे० 'वड़ा' । - सियों को बड़े बड़े प्रलोभन देकर काम करने के लिये तैयार बरोक-संज्ञा पुं० [हिं० वर+रोक ] वह द्रव्य षो कन्या पक्ष से किया।-रंगभूमि, भा० १, पृ० ८२६ ।