पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१९१

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बाँक मारा मारा फिरनेवाला। जिसका कही ठौर ठिकाना न बह-संज्ञा पुं० १. समुद्र । सागर । २. महासागर । ३. नद । ४. हो । २. पावारा । व्यर्थ घूमनेवाला । निकम्मा । उदारहृदय व्यक्ति । ५. जलयानों का मुंड । जहाजों का बहर-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'बहेड़ा' । उ०-मोहि बरजत समूह । ६. तीव्रगामी मश्व किो०] | बहेर तर गई।-नंद० प्र०, पृ० १०८ । बह्री–वि० [अ० ] समुद्र संबंधी । समुद्रीय । बहेरा-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बहेड़ा' । बह्वोद-सञ्ज्ञा पु० [स०] दे० 'बहूदक' [को०] । बहेरी -संज्ञा स्त्री० [हिं० बहराना ] वहाना । होला । उ० बांछनाg -संज्ञा स्त्री० [स० वाञ्छा या वाञ्छना ] इच्छा । मोहि न पत्याहु तो संग हरिदासी हुनी पूछि देखि भटू कहि अभिलाषा । कामना । पाकांक्षा। उ०-यह बाछना होइ धौ कहा भयो मेरी सौं । प्यारी तोहि गठोष न प्रतीति छाडि क्यो पूरन दासी ह्र बरु बज रहिए। -सूर (शब्द॰) । छिया. जान दै इतनी बहेरी सौ – हरिदास (शब्द०)। बांछना+२-क्रि० स० [सं० वाञ्छन ] दे० 'बांछना' । वहेला -प्रज्ञा पु० [सं० बाह्यकर ] कुश्ती का एक पेंच । बांछा-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० वाञ्छा ] इच्छा । कामना । अभिमाषा । बहेलिया -सञ्ज्ञा पुं० [सं० बध +हेला ] पशु पक्षियों को पकड़ने या माकांक्षा। मारने का व्यवसाय करनेवाला । शिकारी । अहेरी । ध्याघ। घांछित-वि० [सं० वाञ्छित] इच्छित । अभिलपित । माकांक्षित । चिड़ीमार । बांछी-वि०, सज्ञा पुं० [सं० वाञ्छिन् ] इच्छुक । इच्छा करनेवाला । बहोड़ना-क्रि० स० [सं० प्रघूर्णन, प्रा० पहोलन, हिं० बहुरना ] अभिलाषा करनेवाला। वापस करना । लोटाना। उ०—(क) कबीर यह तन जात है सके तो लेहु बहोड़ि |--कबीर ग्रं॰, पृ० २४४ । (ख) बांड - सज्ञा पु० [अं० बॉन्ड ] १. मनुबंध । एकरारनामा । २. साल्ह चलंत हे सखी, गउखे चढ़ि मई दी। हियह वाही दृढ़ या पक्का प्राश्वासन । ३. ऋणपत्र । हुंडी (को०] । सू गयउ नयण बहोड्या नीठ।--ढोला०, दू० ३६२ । बांधकिनेय -ज्ञा पुं॰ [सं० बान्धकिनेय ] जारज संतान । पुश्चली. बहोडि-प्रव्य ० [हिं० ] दे॰ 'बहोरि'। उ०—तो तूठा वर पुत्र [को०] । प्रापिजह । भूलउ हो पाखर आणि बहोड़ि-बी० रासो, घांधकेय-संशा पु० [सं० बान्धकेय ] ३० 'वांधकिनेय' । पृ०३। बांधव-संज्ञा पुं॰ [स० बान्धव ] १. भाई । बंधु । २. नातेदार । बहोदी-प्रव्य० [हिं० ] दे० 'बहोडि' । उ०-रहि [ रही ] रिश्तेदार । ३. मित्र । दोस्त४. दे० 'बांधोगढ' । उ०- कामणी पंचल छोड़ी, प्रौलग जाऊँ हूँ अंक न बहोड़ी। (क) विध्य पृष्ठ पर है मनोज्ञ बांधव प्रति विस्तृत । वी० रासो, पृ० ४६ । -प्रेमाजलि, पृ० ४२। (ख) है यह बांधव मही स्वयं निज बहोता-वि० [हिं० ] दे० 'बहुत' । उ०—(क) सो ये पढ़े बहोत । छवि पर मोहित ।-प्रेमांजलि, पृ० ४३। -दो सौ पावन०, भा० १, पृ० ४ । (ख) शम दम से पान बांधवक-वि० [सं० बान्धवक ] बंधुजन संबंधी [को०] । लढ़े । बहोता के तखत चढ़े।-दक्खिनी०, पृ० ६३ । बांधवजन-पंज्ञा पुं० [ स० बान्धवजन ] नातेदार। रिश्तेदार । वहोतरि+-संज्ञा पुं०, वि० [हिं०] दे० 'बहत्तर'। उ०-नव नाड़ी बहोतरि कोठा ए अष्टांग सब झूठा ।-गोरख०, पृ० ४६ । बांधवधुरा-वज्ञा स्त्री॰ [सं० बान्धवधुरा ] सद्भाव | हितकामना । बहोर@-संज्ञा पुं० [हिं० बहुरना फेरा। वापसी। पलटा । घांधव्य-संचा पु० [सं० बान्धव्यम् ] बंधुता । भाईचारा । भ्रातृत्व । उ०-सबही लीन्ह बिसाहन पर घर कीन्ह बहोर | वाम्हन नातेदारी (को०)। तवा लेइ का गाठि साठि सुठि थोर ।—जायसी (शब्द०)। बांधोगढ़-संज्ञा पुं० [हिं० घांधव+गढ़ ] एक प्रदेश । वर्तमान रीवा बहोर-क्रि० वि० दे० 'बहोरि' । राज्य (मध्यप्रदेश ) । उ०-वांधोगढ़ के आमिन बिमवं बहोरनारे-क्रि० स० [हिं० बहुरना ] १. लौटाना । वापस करना । धनि हो कबीर गोसाई।-धर्म० श० पृ० ५६ । फेरना । पलटाना । उ०-गई-बहोरि गरीबनिघाजू । सरल पाँ'-संक्षा पुं० [अनु० ] गाय के बोलने को शब्द । सबल सहिष रघुराजू ।-मानस, १।१३.। २. (चौपायों को) बाँक-संशा पुं० [हिं० बेर ] बार । दफा । वेर। उ०—(क) के घर की भोर होकना । हाकना। बां मावत यहि गली रह्यौ चलाय चल न। दरसन की साधे बहोरिरी -भव्य० [हिं० बहोर ] पुनः । फिर । दूसरी बार । रहै सूधे रहत न वैन ।—बिहारी (शब्द०)। (ख) मैं तोसों उ.-मस्तुति कीन्ह बहोरि बहोरी। -तुलसी (शब्द॰) । के वो कह्यौ तू जन इन्हें पत्याय । लगा लगी करि लोयनमि बहोरी -संशा स्री० [ ? ] बहुल्ली। शालभंजिका । पुतली। घर में लाई जाय ।-विहारी (शब्द॰) । उ०-न करि मोह कर गहि सु दुज, मूछि बहोरिय भूप। घाँक'- संज्ञा पुं० [सं० बङ्क ] १. चंद्राकार बना हुआ टॉर्ड जो बच्चों पृ० रा., २४/४४६। की बांह में पहनाया जाता है। भुजदंड पर पहनने का एक बढ़'-संञ्चा स्त्री. [प०] शेर का वजन । बहर । वृच । छंद [को॰] । . . . ..माभूषण । २. एक प्रकार का चांदी का गहना जो पैरों में ! भाई बंधु । 2