पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१९३

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योगद ३४३२ बाँटना - योगह-सक्षा सी० [हिं० : योगड़ (प्रदेश)] हिसार, रोहतक और घाम--संज्ञा स्त्री॰ [स० चध्या ] १. वह स्त्री जिसे संतान होती करनाल के जाटों की बोली जिसे जाटू या हरियानी भी 1- ही न हो । वंध्या। २. कोई मादा जिसे बच्चा न होता हो। कहते हैं। बाँझ–वि० १. बिना संतान का । संततिरहित-। २. निष्फल । चाँगर-संज्ञा। पु० [देश॰] १. छकड़ा गाड़ी का वह बांस जो फड़ के - " फलरहित (वृक्ष ) । ३. व्यर्थ । वे कार । फिजूल ।' कपर लगाकर फड़ के साथ वीष दिया जाता है। २. खादर 'मुहा०—बाम होना = व्यर्थ होना । उ०-नददास लटकत पिय के विरुद्व वह भूमि जो कुछ ऊंचे पर अवस्थित हो। वह 'प्यारी, छवि रची बिरचि, मनो निपुनता भई वांझ ।-नंद० भूमि जो नदी, झील प्रादि के बढने पर भी कभी पानी ग्र०, पृ० ३७४ । में न डूबे | ३. अवध में पाए जानेवाले एक प्रकार के वैन । बाँझर- सज्ञा स्त्री॰ [देश०] एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष जिसके फलों घौगा-संज्ञा दे॰ [देश॰] वह रूई जो पोटी न गई हो । विनौले • की गुठलियां बच्चो के गले में, उनको रोग प्रादि से बचाने समेत रूई। कपास । के लिये बांधी जाती हैं। (गुर' संज्ञा पुं॰ [देश॰] पशुपों या पक्षियों को फंपाने का जाल । बाँझककोली-संज्ञा स्त्री० [सं० बन्ध्याकर्कोटकी ] बन ककोड़ा । । खेखसा । बन परवल । पदा। उ०-चाँगुर विषम तोराइ, मनहु भाग मृग भाग बस ।-जुलपी ( शब्द०)। घोझपन--सज्ञा पुं० [स० वन्ध्या, हिं० बाँझ + पन (प्रत्य॰)] बाँचना-क्रि० स० [ मं० वाचन ] पढ़ना । उ०-(क) जाइ बांझ होने का भाव । वध्यात्व'। विधिहि तिन दीन्ह सो पाती। 'बाँचत प्रीति न हृदय बाँझपना--संज्ञा पु० [हिं० बाझ+पन (प्रत्य॰)] दे० 'बाँझपन' । समाती।-तुलसी (शब्द०) । (ख) तर झुरसी ऊपर गरी बाँट -संज्ञा पुं० [हिं० बाँटना का भाव'] १. किसी वस्तु को 'कज्जल जल छिरकाय । पिय पाती विन ही लिखी बांची बोटने की क्रिया या भाव । २..भाग । हिस्सा । बखरा । बिरह बलाय । -बिहारी ( शब्द०)। मुहा०—बाँट पड़ना = हिस्से में प्राना, किसी में, या किसी के बाँचना क्रि० प्र० [सं० वञ्चन'] १. शेष रहना । बाकी रहना । पास बहुन परिमाण मे होना ।। उ०—विप्रद्रोह जु बांट बच रहना। उ०—'सत्यकेतु कुल कोउ न बाँचा । विप्र परयो हठि सबसे बैर बढ़ावौं । —तुलसी (शब्द० ) । पाट साप किमि होय असाचा । तुलसी (शब्द०)। २, में पड़ना = दे० 'बोट पड़ना। 30 दिलेरी' हमारे बाँट में जीवित रहना । बंचा रहना ।' उ-तेहि कारण खल अब पड़ी थी।- वुभते०, १०२। बांटे पड़ना = हिस्से में पाना । 'लगि बाँचा । मब तव काल सीस पर नावा । -तुलसी 3. कांटे भी है कुसुम संग बटि पड़े। साकेत, १० १३८ । (शब्द०)। घास या पयाल" का बना हुआ एक मोटा सा रस्सा जिसे बाँचना-क्रि० स० [हिं० बचानाः] बचाना । छोड़ देना । उ०- गांव के लोग कुवार सुदी १४ को बनाते हैं और दोनों ओर बाल बिलोकि बहुन मैं बोचा। अब यह मरनिहार भा से कुछ लोग इसे पकड़कर तब तक खीचातानी करते हैं जब साचा । -तुलसी (शब्द०)। तक' वह टूट नही जाता। बाँचनिहार-वि० [हिं० वचना+हार (प्रत्य॰)] बचनेवाला यो -चाटा चौदस = कुंवार सुदी १४ जिस दिन बाट खीचा (.-दिया. खता. न प्यान: किया मंदर भया उनार-। जाता है। - मरे गए ते मर गए बाचे. बाँचनिहार । —कबीर बी. घाँट@सा पुं० [सं० वटक ] दे० 'बाट"। -:( शिशु०), पृ० २३६ । -- बाँट- संज्ञा पुं० [देश॰] १ गोनों आदि के लिये एक विशेष प्रकार वांछ- सज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] ओंठ की कोर-1- दे० 'बाछ' । 'उ०- को भोजन जिसमें खरी विनीला आदि चीजें रहती हैं। इससे , नवाब साहब की बांछे खिल गई। झांसी०, पृ० १८४...' उनका दूध बढ़ जाता है। २. ढेढ र नाम की घास जो धान के बाँधना-सशा सो० [सं० वाञ्छन ] इच्छा । अभिलाषा । 'खेतों में 'उगकर उसकी फसल को हानि पहुँचाती है। - कामना । प्राकांक्षा। बाँट घखरा-ज्ञा पुं॰ [हिं॰ 'बाट+बखरा ] बोट । अलग अलग हिस्सा मिलना। पाँछना-क्रि० स० [सं० वाञ्छन ] १. चाहना । इच्छा करना। घाँटचूँट-संञ्चा स्त्रिी० [हिं० बॉट+ चॅट (अनुव्व०) ] १ भाग । पभिलाषा करना । उ०-महा मुक्ति कोऊ नही बांछ यंदपि हिस्सा। बखरा। पदारथ धारी । सूरदास स्वामी मन मोहन मूरति को बलि-

हारी।-सूर (शब्द०)। २. अच्छी या बुरी चीजें चुनना।

२. लेन देन । देना दिलाना । छोटना। वॉटनहार-वि० [हिं० बॉटना+हार (प्रत्य॰)] वितरणकर्ता । बोटनेवाला। उ०-निश्चय निधी मिलाय तव, सतगुरु बाँछा-संज्ञा स्त्री॰ [ स० वाञ्छा ] इच्छा । कामना । साहस धीर । निपजी में साझी घना, बाँटनहार कबीर । बॉछित-वि० [स० वाञ्छित ] दे० 'वांछित' । उ०—जो वांछित कबीर सा० सं०, पृ०५। ही रैनि दिन सो कोनी करतार ।-नंद० ग्र० पृ०, १३३ । बाँटना'-किस० [स० वितरण, वर्तन या वण्टन ] १. किसी बॉलो-संज्ञा पुं॰ [सं० वांछिन् J मभिलाषा करनेवाला । चीज के कई भाग करके अलग अलग रखना। २. हिस्सा --