पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पाँधनीपौरि ३४३४ बाँस करना । रचना के लिये सामग्री जोड़ना | उपक्रम करना। शकुंतला, पृ० १३६ । २. वह बिल जिसमें सांप रहता हो । योजना करना। न्यास करना। पैठाना। वंदिश करना। सांप का विल । उ०-मन मनसा मारे नहीं, काया मारण जैसे, रूपक बांधना। मजमून बांधना । १४. फ्रम या जाहि । दादू बांबी मारिए सरप मरे क्यों माहिं ।-दादू. व्यवस्था आदि ठीक करना । जैसे, फतार वाषना । १५. वानी, पृ० ३४८ | ठीक करना । दुरुस्त करना । मन में बैठाना । स्थिर करना । चाँभन-मशा पुं० [सं० ब्राह्मण, प्रा० बंभन ] १० 'ग्राह्मण'। जैसे, मसूग बांधना। उ०-(क) परि पानए वामन बटुपा ।-कोति०, पृ० संयो० कि०-दालना-देना।-लेना। "४४ । (ख) बामनन देखि करत सुदामा सुधि, मोहि देखि १६. किसी प्रकार का प्रस्त्र या शस्त्र प्रादि साथ रखना। जैसे, काहे सुधि भृगु की करत हो।-भूपण ग्रं०, पृ० १६ । हथियार बांधना। तलवार बांधना। १७. किसी कार्य को बाँमा-मंशा सी० [सं० वामा ] वामा। त्री। नारी । उ०- दृष्टि से लोगो को इकट्ठा करना । जैसे, दल बांधना। गोल प्रादि हु राम हि प्रतहु राम हि, मध्य हु राम हि पुंस न बांधना । १८. संपुटित करना । एफ में करना । मिलाना । वामै ।-सुदर , भा॰ २, पृ० ५०२ । जैसे, हाथ बांध कर निवेदन करना । १६. किसी एक बिंदु पाँमी-राजा [ म० वल्मीक ] ६० बायो' । या स्थान पर केंद्रित करना । जैसे, दीठ बांधना। घाया-संज्ञा स्त्री० [हिं० चाय ] वावड़ी। उ०-यो पो है सौदागर बाँधनीपौरि-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० बांधनी + पौरि ] पशुओं के ने यूसुफ , काही बाय सू।-दविखनी०, पृ० १४६ । बांधने का स्थान । पशुशाला। उ०—कवि ग्वाल चरायो ले पायो घरै फिरि बांधनीपौरि सुहावनी है। -ग्वाल घाँयाँ-वि० [सं० वाम ] दे० 'वाय'। उ०-उससे मनमानी करा लेना उसके बायें हाथ का खेल होता है। -रसकलश, (शब्द०)। पु०६। बाँधनू- संज्ञा पु० [हिं० बांधना+ ऊ (प्रत्य॰)] १. वह उपाय जो किसी कार्य को प्रारंभ करने से पहले सोचा या किया जाय । बाँवा- वि० [सं० वाम ] वाम । वायाँ । उ०-विधि परसाद पहले से ठीक फी हुई तरकीव या विचार | उपक्रम । मंसूवा । फुपर एकसरा। वाव पंथ तजि दाहिन परा-चित्रा०, पु० २७। क्रि० प्र०-चांधना। २. फोई बात होनेवाली मानफर पहले से ही उसके संबंध में बाँधना@-क्रि० स० [ ?.] रखना। तरह तरह के विचार । ख्याली पुलाव । बाँवली-संशा सी० [ म० यव्युल, राज. चविल, हिं० बबूल ] बबूस क्रि० प्र०-बांधना। की जाति का एक प्रकार का वृक्ष । उ०-यांवलि काइ न सिरिजिमा, मारूं मंझ थलाह । प्रतिम बाढ़त कविष्टी फल ३. झूठा दोष । मिथ्या अभियोग । तोहमत । कलंक । ४. सेवंत कराह ।-ढोला०, दू० ४१४ । कल्पित बात । मन में गढ़ी हुई बात । ५. कपड़े की रंगाई में वह बंधन जो रंगरेज लोग चुनरी या लहरिएदार रंगाई विशेप-यह वृक्ष सिंघ, पंजाब और मारवाड़ में सूसे तालों के मादि रँगने की पहले कपड़े में बाधते हैं । तलों में होता है। इसकी छाल चमड़ा सिझाने के काम में भाती है और इसमें से एक प्रकार का गोंद भी निकालता है । क्रि० प्र०-बांधना। इसकी पत्तियो चारे के काम में आती हैं । ६. चुनरी या और कोई ऐसा वस्त्र जो इस प्रकार बांधकर रंगा वाँवाँ-वि० [सं० वाम ] दे० 'वायाँ' । उ० - (क) लोक फहै राम गया हो। उ०—कह पदमाफर त्यो बांधनू बसनवारी वा को गुलाम हों कहावौं । एतो बढ़ो अपराध भो न मन बांवों। ब्रज बसनवारी ह्यो हरनवारी है ।-पद्माकर (शब्द०)। —तुलसी (शब्द०)। (ख) जो दसकंठ दियो वांवों जेहि पॉन्योटा-संज्ञा पुं० [हिं० बनिया+मोटा ( प्रत्य० ) ] वणिक हरगिरि कियो है मनाकु ।-तुलसी ग्र०, पृ० ३१५ । का कार्य । व्यापार । कारवार । रोजगार । वनियोटा। उ०-साह रमइया प्रति बड़ा खोल नही कपाट । सुदर वाँवाँछोड़ी-संज्ञा री० [ देश० ] एक प्रकार का रत्न जो लहसुनिया चान्योटा किया दीन्ही काया हाट ।-सुदर० १०, भा० २, की जाति का होता है। वाँवारथी-संज्ञा पुं० [सं० घावन ] वामन । बौना । वहुत ठिगना । पृ०७४२। बॉब-संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की मछली जो सांप के प्राकार बाँस-संग पु० [सं० वंश ] १. तृण जाति की एक प्रसिद्ध वनस्पति की होती है। जिसके कांडों में थोड़ी थोड़ी दूर पर गाँउँ होती हैं और गांठों के बीच का स्थान प्रायः कुछ पोला होता है । वाँबी-संज्ञा स्त्री० [सं० वल्मीक ] १. दीमकों के रहने का भोटा। दीमकों का बनाया हुमा मिट्टी का भीटा । बंबीठा । उ० विशेष-भारत में इसकी ठोस, पोली, मोटो, पतली, लंबी, (क) बांवो फिर अंगहवली अंग उदेही जाम । झीन सबद छोटी प्रादि प्रायः २८ जातियां और १०० से ऊपर उप- मुख निक्कसे धीर धीर के राम ।-पृ. रा०, ११९१ । जातियां होती हैं। जैसे,—नरी, रिंगल, कंटबाँस, बोरो, (ख) प्राधे तन बाबी चढ़ि भाई । सर्प तुचा छाती लपटाई। नलवास, देवास, बाँसिनी, गोविया, लतंग (तिनवा),