पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२२९

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पाल २४६० घालचरित प्रापियों का एक समूह । अग्न भागं जिसके चारो घोर दाने गुछे रहते हैं। जैसे, जौ, बालकेलि-शा मी० [सं०] १. लड़को का खेल । खिलदाह । गेहूँ या ज्वार की बाल । ३०-बालके लि करता हूँ तुम्हारे साथ ।-मनामिका, पृ० वाल-संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की मछली। ६६ । २. ऐसा काम जिम के करने में कुछ भी परिश्रम न वाल-पज्ञा पु० [अं० बॉल ] १. अगरेजी नाच । उ०—पत्थर पहे । बहुन हो साधारण गा तुच्छ काम । हो या कघरली या बाल डान्स |--कुकुर०, पृ० १० । २. बालक्रीड़नक-मा पु० [८० यालक्रीडनक ] बालको के खेलकूद फी कदुक । गेंद । जैसे, फुटबाल । वस्तु । खिलोना [को०] । बालक-सज्ञा पु० [ म०] १. लहका। पुत्र । २. थोड़ी उम्र का वालकीड़ा-संज्ञा पुं॰ [स० बालक्रीडा ] वे कार्य जो छोटे छोटे बच्चा । शिशु । ३. अबोध व्यक्ति । अनजान भादमी । ४. बच्चे किया करत है। लड़को के खेल और काम । हाथी का बच्चा । ५. धोड़े का बच्चा । बछेडा। ५. सुगध वालखंडी-संशा पुं० [२०] वह हाथी जिसमें कोई दोष हो । वाला । नेवाला । ७. फगन । ८. बाल । केश । ६. अंगूठा । वालखिल्य-संज्ञा पुं० [म.] पुगणानुसार ब्रह्मा के रोएं से उत्पन्न १०. हाथी की दुम । बालकता-पंशा खी० [स० ) वालक का भाव । लड़ापन । उ० विशेप-इस समूह का प्रत्येक ऋषि डील डोल में अंगूठे के बराबर अति दोमल वेशव बालकता ।-केशव (शब्द०)। है। इस समूह मे साठ हजार ऋषि माने जाते हैं। ये सब बालकताई-सज्ञा सी० [सं० बालक्ता+ई (प्रत्य०) ] १. वाल्या. के सब बहे भारी नपस्वी और उध्वरेता हैं । ऐसा माना वस्था । २ लड़कपन । नासमझी। उ०-तुय प्रसाद रघुकुल जाता है कि ये सभी मूय के रथ के भागे प्रागे चलते हैं। कुसलाई । छमा कन्हु गुनि वातकताई।-घुराजसिंह चालखोरा [-सा पु० [ फा० बाल -+ खोरह ] एक रोग जिसमे सिर (शब्द०)। फे वाल झड़ जाते हैं। बालकपना-सज्ञा पु० [स० बालक+पन (प्रत्य॰)] १. वालक बालगर्भिणी-सज्ञा ग्री० [सं०] १. पहिली बार गभिणी। २. वह होने का भाव । २. लड़कपन । नासमझो । गाय जो पहिली बार गाभिन हो (को०] । बालकप्रिया-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] १. केला । २. इंद्रवारुणी । बालगोपाल-शा पुं० [ स०] १. बाल्यावस्था के कृष्ण । २. बालकवि-संज्ञा पुं० [सं० बाल (= मूढ)+ कयि ] १. मूढ कवि । परिवार के लड़के लड़कियां प्रादि । बाल बच्चे। प्रश कवि । उ०—जो प्रबंध बुध नहिं प्रादरही.। सो सम वालगोबिद-संशा पु० [ सं० पालगोविन्द ] कृष्ण का वादि बालकवि करही।-मानस, १११४। २. वह जो स्वरूप । बालकृष्ण। बाल्यावस्था से ही कविता करे। बालग्रह-संशा पु० [सं०] बालकों के प्राणघातक नौ ग्रह जिनके बालकमानी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं०] एक बहुत ही महीन कमानी जो नाम ये हैं-(१) स्कंद, (२) स्कंदापस्मार, (३) शकुनी, घड़ी आदि की गति के नियंत्रण के लिये लगाई जाती है। (४) रेवती, (५) पूतना, (६) गंधपूतना, (७) शीतपूतना, मंगरेजी में इसे 'हेयरस्प्रिंग' अर्थात् बाल की तरह महीन (८) मुखमंडिका और (९) नेगमेय । स्प्रिग कहते है। विशेप-कहते हैं, जिस घर में देवयाग और पितृयाग भादि बालकांड-संज्ञा पु० [सं० बालकाण्ड ] रामायण का वह भाग न हो, देवता, ब्राह्मण मौर अतिथि फा सत्कार न हो, जिसमे रामचंद्र जी के जन्म तथा बाललीला भादि का प्राचार विचार प्रादि का ध्यान न रहता हो, उसमें इन वर्णन है। ग्रहों में से कोई ग्रह घुसकर गुप्त रूप से बालक की हत्या कर बालका-संञ्चा पुं० [सं० बालक ] एक जातिविशेष का अश्व । डालता है । यद्यपि बालक पर भिन्न भिन्न ग्रहों के माक्रमण टांगन । ७०-(क) जाति बालका समुद पहाए । सेतपूछ का भिन्न भिन्न परिणाम होता है, तथापि कुछ लक्षण ऐसे जनु चवर बनाए-जायसी प्र०, पृ० २२८ । (ख) सोरह हैं जो सभी ग्रहों के आक्रमण के समय प्रकट होते हैं । जैसे, सहस घोर असवारा । सांवकरन वालका तुखारा । —जायसी वच्चे का बार बार रोना, उद्विग्न होना, नाखूनों या दांतों ग्रं० (गुप्त), पृ० १३७ । । से अपना या दूसरे का वदन नोचना, दांत पीसना, होंठ बालकाल-सशा पु० [सं०] बालक होने की अवस्था । बाल्यावस्था । चचाना, भोजन न करता, दिल घड़कना, बेहोश हो जाना बचपन । शिशुता। इत्यादि । बालग्रह का प्रकोप होते ही उनकी शाति के लिये बालको-सज्ञा श्री० [सं० बालक ] कन्या । लड़की । पुत्री। पूजन प्रादि किया जाना चाहिए । साधारणतः ये कुछ वालकीय-वि० [स० ] बच्चों से संबद्ध। बच्चों का। बालक विणिष्ट रोग ही हैं जो ग्रहो के रूप में मान लिए गए हैं। संबंधी को०] । वालचंद्र-संज्ञा पु० [ ० बालचन्द्र ] द्वितीया का चाँद । बालकृमि-सज्ञा पुं० [सं० ] जूं'। बालचंद्रमा-संज्ञा पुं॰ [ स० घालचन्द्रमस् ] दे० 'बालचंद्र'। बालकृष्ण-लज्ञा पुं० [सं०] उस समय के कृष्ण जिस समय वे बालचर-सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वाय स्काउट' । छोटी अवस्था फे थे। वाल्यावस्था के कृष्ण । बालचरित-संज्ञा पुं० [सं०] 'बाल्यावस्था का पाचरण, खेल कूद बालक