पाहर घोड़ना वाहर प्रादि । 1 ३.प्रभाव, अधिकार या संबंध प्रादि से अलग । जैसे,-हम अनुभौ दिनु जानि सकै नहिं बाहिज दृष्टी।-सुदर० ग्रं, प्रापसे किसी बात में बाहर नहीं हैं, आप जो कुछ कहेगे, गा०२, पृ०६१६। वही हम करेंगे। उ०-साई में तुझ वाहग कौड़ी हूँ नहि वाहिनी-पज्ञा मो० [ मं० वाहिनो ] १. वह सेना जिसमे तीन गण पाव । जो सिर कार तुम धनी महंगे मोल बिवाव ।-कबीर प्रर्थात् ८१ हाथी, ८१ रथ, १४३ सवार और ४०५ पैदल (शब्द०)। ४. वगैर। मिवा। (क्द०)। ५. से अधिक । हो । २. सेना । फोज । ३ सवारी । यान । ४. नदी। प्रभाव, शक्ति प्रादि से अधिक । जैसे, शक्ति से बाहर, बूते से बाहिर-क्रि० वि० [हिं० ] दे० 'बाहर' । उ०-लगी अंतर में करै बाहिर को बिन जाहिर कोऊ न मानत है।-ठाकुर, बाहर' - पु. [हिं० बाहा ] वह प्रादमी जो कुएँ की जगत पर मोट का पानी उलटता है। वाहिरी पु-क्रि० वि० [हि० बाहर ] बिना । सिवा । विरहित । पाहरजामी- पु० [ स० वाययामी ] ईश्वर फा सगुण रूप । उ०-ढोला हूँ तुझ बाहिरी झीलण गहय तलाइ । ऊ जल राम, कृष्ण, नृसिंह इत्यादि अवतार। उ०-प्रतरजामिह काला नाग जिऊं, लहिरी ले ले खाइ।-ढोला०, दू० ३६३ । ते बड़ बाहर जामी हैं राम जो नाम लिए तें।-तुलसी घाहो'-मा सी० [हिं० ] दे० 'वाह' । पं०, पृ० २२६ । बाही २-~मज्ञा पु० [ स० वाह ] पश्व । तुरंग । वाहरी-वि० [हिं० बाहर + ई (पत्य०) ] १. वाहर का। वाहर- बाहीक-नि० [म०, बाहर का । वाह्य संबद्ध । बाहरी [को०] । वाला । २. जो घर का न हो । पराया । गैर । ३. जो प्रापस का न हो। अजनवी । ४. जो केवल बाहर से देखने भर को बाहोकर- ज्ञा पु० १. पनाव की एक प्राचीन जाति । २. उस जाति हो । ऊपरी । जैसे,- यह सब बाहरी ठाठ है, अंदर कुछ भी का व्यक्ति [को०] । नहीं है। बाहु-ज्ञा मो० [म०] मुत्रा । हाथ | बाँह । पाहरीटॉग-अश सी० [हिं० बाहरी+दाँग ] कुश्ती का एक यौ०- बाहुकंठ, बाहुकुम्ज = लूना : बाहुतरण = तैरकर नदी या पंच जिसमे प्रतिद्वंद्वी के सामने पाते ही उसे खींचकर जलाशय पार करना । बाहुदड = भुजा । बाहुपाश = भुजाओं अपनी बगल मे कर लेते हैं और उसके घुटनो के पीछे की का वचन । भंकवार । बाहुप्रसर, बाहुप्रसार = भुजाओं का मोर अपने पैर से प्राघात करके उसे पीठ की ओर ढकेलते फैलाव या विस्तार । बाहुभूपण, बाहुभूपा = भुजा का गहना । हए गिरा देते हैं। प्रगद । बाहुयोध, बाहुयोधी = कुश्ती लड़नेवाला । बाहुलता, वाहस-मंश पुं० [ देश०] अजगर । (डिं०) । याहुवल्ली = कोमल भुजाएँ। बाहुविमर्द -मल्लयुद्ध। वाहुवीर्य = शुजवल । बाहुव्यायाम = कसरत | दंड । जोर । पाहाँजोरी-क्रि० वि० [हिं० बाँह+जोड़ना ] भुजा से भुजा वाहुशिखर = स्कघ । कथा । मिलाकर | हाथ से हाथ मिलाकर । उ०—(क) वाहांजोरी निकसे कुज ते प्रात रीझि रीझि कहैं वात । - सूर (शब्द०)। बाहुकंटक-संज्ञा पु० [स० बाहुकण्टक ] मल्लयुद्ध का एक दांव (को०] | (ख) राजत हैं दोउ बाहाँ गोरी दपति अरु ग्रन वाल |-सूर वाहुफ' -ज्ञा पुं० [सं०] १. राजा नल का उस समय का नाम जब (शब्द०)। वे कर्कोटक द्वारा डसे जाने पर वामनाकृति हुए थे और घाहाँबाही-कि० वि० [सं० पाहावाहि ] १. दे० 'बाहाजोरी'। अयोध्या के राजा ऋतुपरणं के सारथी बने थे। २. नकुल का २. वाहयुद्ध । बाहुसंघर्ष। नाम । ३. एक नाग का नाम । ४. बंदर (को०) । बाहा-सा पुं० [ स० ] भुजा । बाहु [को०] । वाहा।'-सरा पु० [हिं० पाँधना ] वह रस्सी जिससे नाव का बाहुक - वि० १. वाहु द्वारा तैरनेवाला । २. निर्भर । प्राश्रित । ३. डाड बंधा रहता है। बौना । वामनाकार (को०) । पाहा--संज्ञा पुं० [सं० वह ] नाला । प्रवाह। उ०-उधर से एक बाहुकुंथ--संज्ञा पु० [सं० बाहुकुन्थ ] पक्ष्म । पखना । पंख [को॰] । वाहा पड़ता था। उसे लापने के लिये यह क्षण भर के लिये बाहुगुण्य-संज्ञा पुं० [म० ] अनेक गुणों की स्थिति । वहुत गुणों की रुकी थी कि पीछे से किसी ने कहा-कौन है !-तितली, स्थिति । बहुत गुणों का रहना या होना । पृ० १६०1 वाहुज-संशा पु० [स०] क्षत्रिय, जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के हाथ से चाहिज-कि० वि० [सं० बाह्य ऊपर से। बाहर से । देखने मे । मानी जाती है। बाहरी तौर पर । उ०-चाहिज नम्र देसि मोहिं भाई । बाहुजता-मशा ग. [ सं० बाहुज+ता (प्रत्य॰)] क्षत्रियत्व । विप्र पदाव पुत्र की नाई —तुलसी (शब्द०)। वीरता । उ०-बस बाहु जता विलीन वसुधा वीरविहीन पाहिज'-वि० [सं० बायज, प्रा०हिं० वाहिज ] बाह्य । बाहरी । दीन है।-साकेत, पृ० ३५४ । चाहर की । घाहर से संबद्ध । उ०—(क) याहिज चिना कीन्ह वाहुजन्य-संज्ञा पुं० [स०] बहत से ननों को अवस्थिति । भीड़ [को॰] । विसेखी।-तुलसी (शब्द॰) । (ख) कोउ कहै यह ऐसेहि बाहुड़नाई-त्रि० प्र० [देश॰] दे० 'बहरना' । उ०-(क) गई दसा होत है क्यो करि मानिए वात अनिप्टी। सुंदर एक किए सव वाहुरे, जे तुम प्रगटहु आइ । दादू कजड़ सय बसे, दरसन
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२३९
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