बाहुड़ि ३४७६ पाह्यायाम नाम । मा देहु दिखाइ। -दादू०, पृ० ६३ । (ख) कुंवर बलावे बाहुड्या घाहू-संशा स्त्री॰ [ सं० बाहु ] दे० 'बाहु' । राजमती मूकलावी सुभाई।-बी० रासो, पृ० २७ । बाहेर-कि० वि० [हिं० बाहर] अपने स्थान या पद धादि से च्युत । बाहुड़िी-क्रि० वि० [ हिं० ] दे० 'बहुरि' । उ०-दादू यो फूटे थै पतित । निकृष्ट । उ-कपटी कायर कुमति कुजाती। सारा भया संधे संघि मिलाइ । बाहुडि विष न भूचिए तो लोक वेद बाहेर सब भाँती। -तुलसी (शब्द॰) । कबहूँ फूटि न जाए-दादू०, पृ० १६७ । बाह्मन-संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण ] दे० 'ग्राह्मण' । बाहुत्र-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बाहुत्राण' । घाह्य'- वि० [सं०] १ बाहरी । बाहर का। २. दिखावटी । बाहुत्राण-संज्ञा पुं० [सं०] चमड़े या लोहे यादि का वह दस्ताना जो ३. प्रदर्शनात्मक । बहिष्कृत | युद्ध मे हाथो की रक्षा के लिये पहना जाता है । बाह्य-संज्ञा पु० [ सं०] १. भार ढोनेवाला पशु । जैसे, बैल, बाहुदंती-संज्ञा पुं० [सं० पाहुदन्तिन् ] इद्र । गधा, ऊँट, अादि । २. सवारी । यान । बाहुदा-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सहाभारन के अनुसार एक नदी का बाह्यकरण-संज्ञा पु० [सं०] बाहरी इंद्रियाँ (को०] । नाम । २. राजा परीक्षित की पत्नी का नाम । वाह्यकर्ण-संज्ञा पुं० [ सं. ] महाभारत के अनुसार एक नाग का वाहुप्रलंब-वि॰ [ सं० वाहुपलब्ध ] जिसकी बाहें बहुन लंबी हों। आजानुबाहु । ( ऐसा व्यत्ति बहुन वीर माना जाता है । ) वाह्यकुंड- संज्ञा पु० [सं० वाह्यकुण्ड ] एक नाग का नाम । बाहुबल-संज्ञा पु० [स०] पराक्रम । वहादुरी। उ०- श्री हरिदास के बाह्यकोप-सज्ञा पु० [स०] कौटिल्य के नुमार राष्ट्र के मुखियों, स्वामी श्याम कुंजविहारी कहत राखि लै बाइबल हो बपुरा प्रतपाल ( सीमान्क्षक ), पाटविक (जंगलो के अफसर ) काम दहा ।-स्वा० हरिदास (श द०)। भोर दडोपनत ( पराजित राजा ) का विद्रोह । बाहुभेदी-सशा पुं० [ सं० बाहुभेदिन ] विष्णु । वाह्यतपश्चर्या-संज्ञा स्त्री० [. जैनियों के अनुसार तपस्या का एक भेद। वाहुमूल-संज्ञा पुं० [सं०] कंधे और बाह का जोड़। विशेष—यह छह प्रकार की होती है-अनशन, औनोदर्य, बाहुयुद्ध-संज्ञा पुं० [सं०] कुश्ती । वृत्तिसक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और लीनता । बाहुरना-क्रि० प्र० [हिं० दे० 'बहुरना'। उ०-उत ते कोई न वाहुरा, जा से बूस् धाय ।-कबीर सा० सं०, पृ० ५८ । बाह्यद्रुति- सज्ञा पुं॰ [ स०] पारे का एक संस्कार (वैद्यक)। वाहुरूप्य-संज्ञा पुं० [सं०] अनेकरूपता [को०] । बाह्यपटी-संज्ञा स्त्री० [सं०] जवनिका । नाटक का परदा । बाहुल'-वि० [सं०] वहुत । अनेक । अधिक । प्रचुर (को०। । बाह्यविद्रधि-सज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर बाहुल-संज्ञा पुं॰ [स०] १. युद्ध के समय हाथ मे पहनने को एक फे किसी स्थान मे सूजन और फेडे की सी पीड़ा होती है । वस्तु जिससे हाथ की रक्षा होती थी। दस्ताना । २. कार्तिक विशेप-इस रोग में रोगी के मुंह अथवा गुदा से मवाद मास । ३. अग्नि । प्राग । ४. अनेकरूपता (को॰) । निकलता है। यदि मवाद गुदा से निकले तव तो रोगी साध्य बाहुनग्रोव-सज्ञा पु० [स०] मोर । माना जाता है, पर यदि मवाद मुंह से निकले तो वह असाध्य समझा जाता है। बाहुली--सज्ञा सी० [स०] कार्तिक मास की पूर्णिमा को०] । बाह्यविषय-संज्ञा पुं० [सं० ] प्राण को बाहर अधिक रोकना । बाहुलेय-सज्ञा पु० [सं०] कार्तिकेय का एक नाम [को॰] । बाह्य वृत्ति- स्त्री० [सं०] प्राणायाम का एक भेद जिसमें बाहुलोह--संज्ञा पु० [स०] कासा धातु । कांस्य [को०] । भीतर से निकलते हुए श्वास को धीरे धीरे रोकते हैं। बाहुल्य-सहा पु० [सं०] १. बहुतायत । अघिकता । ज्यादती । २. अनेकरूपता | विविधता (को०) । बाह्याचरण-संज्ञा पुं० [ स०] केवल दिखौमा आचरण । प्रार्डवर । ढकोसला। बाहुविस्फोट-सशा पुं॰ [सं०] ताल ठोकना । बाह्याभ्यंतर - सज्ञा पु० १० बाह्य + अभ्यन्तर ] प्राणायाम का एफ बाहुशाली-संज्ञा पुं॰ [ स० बाहुशालिन् ] १. शिव । २. भीम । ३. भेद जिसमें भीतर से निकलते हुए श्वास को घोरे धीरे धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम । १. एक दानद का नाम बाहुशोप-सझा पु० [सं०] वाह मे होनेवाला एक प्रकार का वायु. बाह्याभ्यतरापेक्षी-सशा पु० [सं० वाह्याभ्यन्तरापेक्षिन् ] प्राणायाम रोग जिसमें बहुत पीड़ा होती है । का एक भेद | जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तव बाहुश्रुत्य-संज्ञा पुं० [सं०] बहुश्रुत होने का भाव । बहुत सी बातो उसे निकलने न देकर उलटे उलटे लौटाना; घऔर जब भीतर को सुनकर प्राप्त की हुई जानकारी। जाने लगे तब उसको बाहर रोकना । बाहुसंभव-संज्ञा पुं० [सं० व हुसम्भव ] क्षत्रिय जिनकी उत्पत्ति बाह्यायाम-संज्ञा पु०८ ] वायु सबंधी एक रोग जिसमें रोगी- ब्रह्मा की बांह से मानी जाती है। की पीठ की नसें खिचने लगती हैं और उसका शरीर पीछे वाहुहजार-संज्ञा पुं॰ [सं० बाहु+फ़ा० हजार ] दे० 'सहस्त्रबाहु' । की घोर झुकने लगता है । धनुस्तंभ । रोकते हैं। स०
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२४०
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