पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२४२

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बिंब ३४८१ बिकना उ०- बिंध-संज्ञा पुं० [सं० बिम्ब ] १. प्रतिबिंब । छाया । अक्स । २. विभाजी-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'व्याज' । रवि । कमंडलु । ३. प्रतिमूर्ति । ४. कुदरू नाम का फल । ५. विश्राधि-संज्ञा स्त्री॰ [सं० व्याधि ] दे० 'याधि' । सूर्य या चंद्रमा का मंडल । ६. कोई मडल | ७. गिरगिट | ८. परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई । विनु औषध विमाधि विधि सूर्य । (डि.)। ६. उपमान । १०. झलक । प्राभास । खोई । —तुलसी (शब्द०)। उ०-विरह बिंब अकुलाय उर त्यो सुनि कछु न सुहाय । चित विआधु- -संज्ञा पुं० [स० व्याध ] दे॰ 'ध्या'। उ०-जोवन न लगत कहूँ कैसहूँ सो उद्वेग बनाय ।-पदमाकर (शब्द॰) । पंखी बिरह विपाधू । केहरि भयउ कुरगिनि खाधू । —जायसी ११. छंद विशेष । जैसे–फल प्रघर विब जासो। कहि अधर (शब्द०)। नाम तासो। लहत द्युति कौन मूगा। वणि जग होत विधाना-क्रि० स० [सं० विजनन, प्रा० विश्रायण, तुल० गु० गूगा ।-गुमान (शब्द०)। विया ] बच्चा देना। जनना । (विशेषतः पशुओं आदि बिंब-संज्ञा पु० [देश०] दे॰ 'बॉबी' । उ०-साक्ट का मुख बिंब है के संबंध मे)। निकसत बचन भुजंग । ताकी ओषधि मौन है विष नहिं व्याप विआपी-वि० [सं० व्यापिन् ] दे० 'व्यापी' । अंग । कबीर (शब्द०)। बिआस -संज्ञा पुं० [सं० व्यास, प्रा० विग्रास ] १. पौराणिक बिंधक-संज्ञा पुं० [ सं० बिम्बक ] १. चंद्रमा.या सूर्य का मंडल । २. कथाएँ प्रादि सुनानेवाला। व्यास । कथक्कड़ । २. पुगणों कुंदरू । ३. सांचा । ४. बहुत प्राचीन काल का एक प्रकार का के वक्ता। दे० 'व्यास' । उ०-प्रस्टौ महासिद्धि तेहि जस बाजा जिसपर चमडा मढा होता था। कबि कहा बिप्रास ।-जायसी ग्र० (गुप्त०), पृ० २१२ । बिंबट-संज्ञा पुं० [सं० बिम्बट ] सरसों। विधासी-सज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] धान (चावल) की खेती करने को बिंबफल-सञ्ज्ञा पु० [सं० विश्वफल ] कुंदरू । एक विशेष पद्धति । उ०-चावल पैदा करने की विद्यासी विंधसार-संज्ञा पु० [हिं०] दे० 'विबिसार' । पद्धति भी अधिक लोकप्रिय है। -शुक्ल अभि० ० (विवि०) पृ० ४। बिंबा-संज्ञा पुं० [सं० विम्बा १. कुंदरू । २. बिंव । प्रतिच्छाया । ३. चंद्रमा या सूर्य का मंडल । विवाह-संज्ञा पुं० [सं० विवाह, प्रा० बिआह ] दे० 'व्याह' । उ०- विवाधर-संज्ञा पुं० [सं० बिम्बाधर] पके हुए कुंदरू की तरह लाल लगन घरी श्री रचा बिबाहू। सिंघल नेवत फिरा सब होठ [[को०] । काहू।-जायसी नं० (गुप्त), पृ० ३०७ । बिंबिका-संज्ञा स्त्री॰ [सं० बिम्बिका ] १. सूर्य या चंद्र की परिधि । विश्राहना-क्रि० स० [प्रा० विवाह + हिं० ना (प्रत्य॰)] २. कुंदरू की लता [को०] | परिणय करना । दे० 'व्याहना'। बिंबित-वि० [सं० विम्बित ] १. प्रतिच्छायित । प्रतिबिंबित । २. बिओग-मंज्ञा पुं० [सं० वियोग, प्रा० .विश्नोग] दे० 'वियोग' । चित्रीकृत [को०] । बिनोगी-वि० [प्रा० बिश्नोग+ हिं० ई (प्रत्य॰) ] दे० 'वियोगी' । विविनी-संज्ञा स्त्री॰ [ स० बिम्बिनी ] आँख की पुतली । तोरा। विकंत-वि० [सं० विकट ] दे॰ 'विकट' । उ०-वहै नागमुष्षी कनीनिका [को॰] । सु सोहै विकंतं । फटे हस्ति कुंभं ठनकत घंट-पू० बिंबिसार-संज्ञा पु० [ स० बिम्बसार ] मगध के एक प्राचीन राजा रा०,५१४०६ । का नाम जो अजातशत्रु के पिता और गौतम बुद्ध के समका विकच-वि० [सं० विकच ] विछसित । खिला हुप्रा । उ०-विकच लीन थे। कहते हैं, ये पहले शाक्त थे पर पीछे बुद्ध के नलिन लखें सकुचि मलिन होति, ऐसी कछू प्रांखिन अनोखी उपदेश से बौद्ध हो गए थे। उरझनि है ।-घनानंद, पृ० ५६ । विंबु-संज्ञा पुं० [सं० विम्बु ] सुपारी या उसका वृक्ष । बिकट-वि० [सं० विकट ] दे० 'विकट' । उ०-असवार डिगत विंबू - -संज्ञा पुं० [सं० बिम्बू ] दे॰ 'बिबु' । बाहन फिर भिर भूत भैरव विकट ।-हम्मीर०, पृ० ५८ । विंबोष्ठ-संक्षा पुं० [सं० बिम्बोष्ठ] दे० 'विबाधर'। विकना-क्रि० प्र० [सं०.विक्रयण ] किसी पदार्थ का द्रव्य लेकर बि@-वि० [सं० द्वि प्रा० बि, मि० गुज० बे] दो । एक और एक । दिया जाना। मूल्य लेकर दिया जाना। बेचा जाना । विक्री होना। बिता-वि० [सं० वि (= रहित)+ अन्त ] जिसका अंत न हो। अनंत । उ०-तिस महि अगम बस्तु बनाई । तू विमत धनी संयो० क्रि०-जाना। मिति तिलु नही पाई।-प्राण०, पृ०, ४७ । मुहा०—किसी के हाथ बिकना - किसी का अनुचर, सेवक या विध-वि० [ सं० द्वि, प्रा० बि, मि० गुज० वे ] दे० 'वि' । दास होना। किसी का गुलाम बनना। जैसे, हम उनके बिबहुताई-वि० [स० विवाहित] १. जिसके साथ विवाह संबंध हुआ हाथ बिके तो हैं नहीं, जो उनका हुकुम माने । हो । २. विवाह संबंधी । विवाह का । जैसे, विग्रहुता जोड़ा। विशेष-कभी कभी इस अर्थ में और विशेषतः मोहित होने के .-२६