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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२४७

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विगोला ३४६ मिचला करना । बिगाडना । उ०—(क) सूर सनेह करै जो तुम सों विधन-संज्ञा पुं० [सं० विघ्न, प्रा० विघन ] दे॰ 'विघ्न' । उ०- सो पुनि प्राप बिगोक ।-सूर (शब्द०)। (ख) जिन्ह गणपति विघन विनासन हारे ।-(शब्द०) 1 वि० दे० 'विघ्न'। एहि वारि न मानस धोए । ते पापी कलिकाल बिगोए। विघनता-शा नी० [सं० विघ्नता ] विघ्न का भाव या स्पिति । तुलसी (शब्द०)। (ग) तुम जब पाए तबही चढाए ल्याए उ०-ग्रंथकरता गुरु कू भी इष्ट देवता सु अभेद करिके, राम न्याव नेक कीजे बोर यो विगोइयत है। हृदयराम ग्रंथ की विधनता दूरि करिबे के हेत बहुरि निमस्कार करत (शब्द०)। २. छिपाना । दुराना । उ-द्वैत वचन को हैं।-पोद्दार अभि० ग्रं॰, पृ० ४८३ । स्मरण जु होवै । ह्र साक्षात तू ताहि विगोवै ।-निश्चलदास विधनहरन@+-पि० [ स० विघ्नहरण ] बाधा को हटानेवाला। (शब्द०)। ३. तंग करना । दिक करना । ४. भ्रम में डालना । वाघा दूर करनेवाला। बहकाना । उ०-(क) प्रथम मोह मोहिं बहुत बिगोवा । राम विधनहरन-शा पु० गणेरा। गजानन । ७०-विधनहरन बिमुम्ब सुख कबहु न सोवा ।—तुलसी (शब्द०) (ख) ताहि मंगलकरन सदा रहहु अनुकूल |-(शब्द०)। बिगोय सिवा सरजा, भनि भूषन प्रौनि छपा यों पछारयो।- विधार-सज्ञा पुं० [हिं० विगहर ] दे० 'वोग'। भूषन (शब्द०)। ५. व्यतीत करना । विताना। उ० विघनित -वि० [स० विघूर्णित ] इधर उधर घूमती या घूरती वहु राधसा सहित तरु के तर तुमरे बिरह निज जनम बिगो हुई । चंचल । उ०-मद विनित लोचन गोरोचन बरन वति ।—तुलसी (शब्द०)। रोहिनीनदन बल हलधर राज । -घनानंद, पृ० ५५१ । विच-क्रि० वि० [प्रा० विच्च (= मध्य) | दे० 'वोच' । विगोला-सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बगूला' । उ०-भारतवर्ष के उत्तर उ०-ललित नाफ नथुनी बनी नुनी रही ललचाय । गज- पश्चिमी प्राचल पर सिकंदर एक अघिी की तरह पाया और मुकतनि के विच परयो, कहो कहाँ मन जाइ ।-मति० विगोले की तरह चला गया।-भा० इ० रू०, पृ० ५४५ । ग्र, पृ० ४४८ । विगोवन-संज्ञा पुं० [सं० विगोपन ] छिपाने की क्रिया या भाव । विचकना-क्रि० प्र० [सं० वि+ (उप०)/चक (= भ्रांति) ] १. छिपाव । दुराव । उ०-कहिये कहा विगोवनि या की रस भौचका होना । धवड़ाना । चौंकना । २. (घोड़े का) मड़कना मैं विरस बढ़ायो।-घनानंद०, पृ० ४४८ । या विदकना। विग्गाहा-संज्ञा पुं० [सं० विगाथा ] पार्या छंद का एक भेद जिसे विचकाना-क्रि० स० [ अनु० प्रथवा हिं० 'विचकना' का सक० 'उद्गीति' भी कहते हैं। इसके पहले चरण में १२, दूसरे में रूप] १. किसी को चिढ़ाने के लिये (मुह) टेढ़ा करना । १५, तीसरे में १२, और चौथे में १८ मात्राएँ होती हैं। बिराना । (मुह) चिढ़ाना । २. (मुह को) स्वाद बिगड़ने जैसे,-राम भजहु मन लाई, तन मन धन के सहित मीत के कारण टैदा करना । (मुह) बनाना । रामहिं निस दिन ध्यानो, राम भजै तवहिं जान जग जीता। बिचखोपड़ा-संश पुं० [ स० विप+कपाल ] दे० 'विसखपरा' । उ०-घूमते हैं वनों में, पेड़ो पर विचखोपड़।-कुकुर०, विग्यान-संशा पु० [सं० विज्ञान ] [वि० विग्यानी ] दे० पृ०६१। 'विज्ञान'। बिचच्छिन -वि० [सं० विचक्षण ] दे॰ 'विचक्षण' । उ०- विग्रह-संज्ञा पु० [सं० विग्रह ] १. शरीर । देह । उ०-भगत मुग्धा मैं धीरादिक लच्छिन । प्रगठ नहीं पै लखै विचच्छिन । हेतु नर बिग्रह सुर वर गुन गोतीत । —तुलसी (शब्द०)। -नंद० ग्रं०, पृ० १४७ । २. झगड़ा लड़ाई । कलह । विरोध । उ०-बयरु न विग्रह विचछना-वि० [सं० विचक्षण ] दे॰ 'विचक्षण' । उ०—एत पास न वासा । सुखमय ताहि सदा सब पासा ।--तुलसी सब लछन संग बिचछन कपट रहत कतखन जे धरू- (शब्द०)। ३. विभाग । ४. दे० 'विग्रह' । विद्यापति, पृ०४। विचरना-क्रि० स० [सं० विचरण ] १. इधर उधर घूमना । विघटना -क्रि० प्र० [सं० विघटन ] नष्ट होना । विपरीत होना । चलना फिरना। २. पर्यटन करना। यात्रा करना । सफर उ.-करम क दोसे विघटि गेलि साठि। अगला जनम करना। उ०-ए विचरहिं मग विनु पदनाना। रचे बादि बुझब परिपाटि । -विद्यापति, पृ० १०८ । विधि वाहन नाना ।-मानस, २।११६ । विघटना-क्रि० स० [ स० विघटन ] विनाश करना । बिगाड़ना। बिचल-वि० [सं० विचल चलायमान । अस्थिर । तोड़ना फोड़ना । उ०-(क) रजनीचर मत्त गयंद घटा. विचलना-क्रि० प्र० [सं० विचलन ] १. विचलित होना। इधर बिघट मगराज के साज लरै। तुलसी (शब्द॰) । (ख) उधर हटना । उ०-तिज दल बिचचल देखेसि बोस भुजा दस सुघठ नीव रस सोव कंठ मुकुता विघटत तम । हृदयराम चाप ।-मानस, ६८० | २. हिम्मत हारना। ३. कहकर (शब्द०)। इनकार करना । मुकरना । विघटाना-क्रि० स० [हिं० विघटना का सक० रूप ] नष्ट करना । बिचला-वि० [हिं० वीच+ला (प्रत्य॰)] [वि० स्त्री० विचली ] दे० 'विघटना"। उ०-सुघटेप्रो बिहि बिघटावे बाक बिधाता जो बीच में हो। बीचवाला। बीच को। जैसे, विपला की न करावे ।-विद्यापति, पृ० ११४ । लड़का, विचली किताब।