विचलाना विछना विचलाना-क्रि० प्र० [सं० विचलन ] दे० 'बिचलना' । उ० बिचौलिया-मंज्ञा ० [हिं० बीच+ौलया (प्रत्य॰)] १. मध्यस्थ । प्रेम मगन ह घायल खेलै कायर रन बिचलाना ।-कबीर० २. दलाल । एजेंट। श०, भा० ३, पृ० १६ । बिच्चू-संज्ञा पुं० [ सं० वृश्चिक ] बीछी। बिच्छू । उ०-विच्चू बिचलाना-क्रि० स० १. चलायमान करना। विचलित ने नांगी मारा रे मारा। छ न न न न कहने लगा। करना । डिगाना । २. हिला देना । २. तितर बितर करना। -दक्खिनी०, पृ० ५७ । उ.-विचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावन लियो। विच्छित्ति-संज्ञा स्त्री० [ स०] शृंगार रस के ११ हावों में से एक -मानस, ६९६ जिसमें किंचित् शृंगार से ही पुरुष को मोहित कर लिया बिचवई'-संज्ञा पुं० [हिं० बीच ] १. मध्यस्थ । २. एजेंट । जाना वर्णन किया जाता है । जैसे,-बेंदी माल तमोल मुख दलाल । उ०-वे विलायती वस्तुओं को बेचने के बिचवई सीस सिलसिले बार | डग प्राजे राज खरी साजे सहज हैं।-प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० २६६ । सिंगार ।-विहारी (शब्द०)। बिचवई-संज्ञा स्त्री० १. मध्यस्थता । किसी कार्य (बातचीत, बिच्छो -संज्ञा सी० [सं० वृश्चिक ] दे० 'विच्छू' । उ०—मानो खरीद फरोख्त, लड़ाई झगड़ा) में बोच में पड़ना । २. एजेंटी सहस्त्र बिछियों ने एक साथ ही डंक मारा है। कबीर या दलाली। सा०, पृ० ५७२। बिचवाई।-संज्ञा स्त्री० [हिं० बीच ] दे० 'विचवई'। बिचवान-संज्ञा पुं॰ [हिं० वीच+वान ] बीच में पडनेवाला । बीच बिच्छू-संज्ञा पुं० [सं० वृश्चिक ] १. आठ पैर और दो सूडवाला एक प्रसिद्ध छोटा जहरीला जानवर । बिचाव करनेवाला । मध्यस्थ । उ०-विनय कर पंडित विशेष—यह जानवर प्रायः गरम देशों में अंधेरे स्थानों में विधवाना । काहे नहिं जेवहि जजमाना ।—जायसी (शब्द०) । जैसे, लकड़ियों या पत्थरों के नीचे, बिलों में रहता है । बिचवानी-संज्ञा पुं० [हिं० बीच ] दे० 'विचवान' । इसके पाठ पैर पौर आगे की ओर दो सूड होते हैं। इनमें विचहुतg+-संज्ञा पुं० [हिं० पीच + भूत>हुत] १. अंतर | फरक । से हर एक सूड प्रागे की घोर दो भागो में चिमटी की तरह २. दुबधा । संदेह । उ०-अब हंसि के शशि सुरहिं भेंटा । विभक्त होता है। इन्ही सूड़ों से यह अपने शिकारों को प्रहा जो शीत सो विचहुत मेटा ।—जायसी (शब्द॰) । पकड़ता है। इसका पेट लंबा और गावदुमा होता है जिसके बिचार-सञ्ज्ञा पुं० [सं० विचार ] दे० 'विचार' । उ० - मुदिता वाद एक और दूसरा भंग होता है जो दुम की तरह बराबर मथै विचार मथानी ।-मानस, ७११७ । पतला होता जाता है। यह मंग मुड़कर जानवर की पीठ बिचारणा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० विचारणा] सोचने या विचारने पर भी पा जाता है। इसके अंतिम भाग में एक जहरीला की क्रिया। डंक होता है जिससे वह अपने शिकार को मार डालता बिचारनाg+-क्रि० प्र० [ स० विचार+हिं० ना (प्रत्य०) ] १. है। अपने हानि पहुंचानेवालों को भी यह इसी डंक से विचार करना । सोचना । गौर करना। २. पूछना । प्रश्न मारता है जिसके कारण सारे शरीर में असह्य पीड़ा और करना । (इस अर्थ में इसका प्रयोग प्राय: 'प्रश्न' शब्द के साथ जलन होती है जो कई कई दिन तक थोड़ी बहुत बनी होता है।) रहती है। कही कहीं ८-१० इंच के बिच्छ भी पाए जाते विचारमान-वि० [सं० विचारवान् ] १. विचार करनेवाला। हैं जिनके डंक मारने से आदमी मर भी जाते हैं। इसके बुद्धिमान् । २. विचारने के योग्य | विचारणीय । उ० संबंध मे अनेक प्रकार की किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। कुछ लोग विचारमान ब्रह्म, देव अर्चमान मानिए ।-केशव (शब्द०)। कहते हैं कि यदि विच्छ चारों ओर से प्राग के बीच में बिचारा-वि० [ फा० वेचारह ] [ स्त्री० बिचारी ] दे॰ वेचाग । फंस जाय तो वह जलना नही पसंद करेगा; बल्कि जलने से बिचारी@t-संज्ञा पुं० [सं० विचारिन् ] विचार करनेवाला । पहले अपने डंक से ही अपने पापको मार डालेगा। कुछ लोग 30-मारग छाँड़ि कुमारग सो रत बुधि विपरीति विचारी कहते हैं, इसके शरीर में से किसी प्रकार निकाला हुमा अर्क हो।-सूर (शब्द॰) । २. वह जो बहुत प्राचार विचार से इसके डंक के विष को अच्छा कर सकता है। और इसी लिये रहता हो। लोग जीते बिच्छू को पकड़कर तेल मादि में डालकर छोड़ देते बिचाल@t-संज्ञा पुं० [सं० विचाल ] १. अलग करना। पृथक् हैं और बिच्छू के मर जाने पर उस तेल में डंक के विष को करना। २. मंतर । फर्क। दूर करने का गुण मानने लगते हैं। पर इन सब किंवदंतियों घिचेत-वि० [सं० विचेतस ] १. मूछित । बेहोश । अचेत । मे कोई सार नही है। उ-हरि चेत नाहिं विचेत प्रानी भरम गोता खाइया । २. एक प्रकार की घास जिसके शरीर में छू जाने से विच्छू के गुलाल०, पृ. ८५ / २. बदहवास । व्याकुल । काटने की सी जलन होती है। ३. काक्तुडी का पौधा या बिचौहाँ@-वि० [हिं० घीच+ौहाँ (प्रत्य॰)] बीचवाला • मध्य उसका फल । (क्व०)। का | बीच का। बिच्छेप -संज्ञा पुं० [सं० विक्षेप, प्रा० बिच्छेप ] दे० 'विक्षेप' । विचौह -क्रि० वि० बीच में ही । मध्य में ही। बिछना-क्रि० प्र० [सं० विस्तरण ] १. बिछाना का अकर्मक रूप ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२४८
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