पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२५०

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पिछोड़ा ३४८९ विजली' बिछोड़ा-संशा पुं० [हिं० बिछड़ना] १. बिछड़ने की क्रिया या हाथ से हिलाया जाता है । वेना । उ०-(क) कैसे वह वाल भाव । अलग होना । अलगाव । उ०-बरसों के विछोड़े के लाल बाहिर बिजन पावै विजय वयारि लागै लंक लचकत है। बाद मिलने पर सबंधियों के दिल भर पाते हैं। फूलो०, -मतिराम (शब्द॰) । (ख) चंद्रक चंदन बरफ मिलि हिले पृ० ३५ । २. विरह होना । प्रेमियों का वियोग होना। जिन चहुँ पास । ग्रीषम गाल गरम लग गे गुलाब के बास । बिछोना-सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'विछौना' । उ०-तब या ने एकांत -स० सप्तक, पृ० ३६२ । आछे विछोना बिछाय दिए ।-दो सौ बावन भा० २, बिजन-संज्ञा पुं० [सं० विजन ] निर्जन स्थान । सुनसान जगह । पृ०४७1 बिजन-क्रि० वि० जिसके साथ कोई न हो। अकेला । उ०-कैसे बिछोय. - संज्ञा पुं० [ स० विच्छेद ] वियोग । उ०-जुदाई । एक वह वाल लाल बाहिर विजन पावै विजन वयारि लागै दिन ऐसा होयगा सबसे परै विछोय । राजा राना राव रंक लंक लचकत है। मतिराम (शब्द०)। सावध क्यों नहिं होय ।-कवीर (शब्द०)। बिजन-संज्ञा पुं० [अं० वेन्ज्यन्स ( =प्रतिशोध, बदला)] बिछोर -सज्ञा पुं० [हिं० विछुड़न ] वियोग । जुदाई । उ०-ऐसा प्रतिशोध । करले पाम । बहुत से लोगों की एक साथ हत्या । जिवडा न मिलाए जो फरक विछोर -कवीर मं०, पृ० ३२५ । ल०--लाचार होकर नादिर शाह ने विजन बोल दिया।- बिछोरना-क्रि० स० [हिं० विर+ना (प्रत्य॰) ] अलगाना । श्रीनिवास ग्रं॰, पृ० ३३० । वियुक्त करना । ३०-है सब उहि प्रदिष्ट के घोरे । विछुरे बिजना-संज्ञा पुं० [हिं० विजन ] पंखा | वेना । बिजन । मिलवै मिले बिछोरे ।-द० न०, पृ० २३६ । बिजनी-संज्ञा स्त्री० [सं० विजन ] हिमालय की एक जंगली जाति । विछोव--संज्ञा पुं० [हिं० ) दे० 'विछोह' उ०-(क) हिप्रा विशेप-यह जाति उस प्रदेश में बसती है जहाँ ब्रह्मपुत्र नद देखि सो चंदन घेवरा मिलि के लिखा विछोव। जायसी हिमालय को काटकर तिव्वत से भारत में प्राता है । मं(गुप्त), पु० २५५ । (ख) अब सो मिलन कत सखी सहेलनि परा बिछोवा टूटि । -जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१ । बिजय-संज्ञा पुं० [सं० विजय ] दे० 'विजय' । बिछोह-संज्ञा पुं० [हि० बिछड़ना ] विछोड़ा। जुदाई। विरह । बिजयखार-संज्ञा पुं॰ [देश॰] दे० 'विजयसार' । वियोग । उ०-पासा है हमीर सह, हम तुम भया बिछोह । बिजयघंट-संज्ञा पुं० [सं० विजय+घण्ट ] बड़ा घंटा जो मंदिरों में -ह. रासो, पृ० १२० । लटकाया रहता है। बिछौन, बिछौना-संज्ञा पुं० [हिं० विछावना ] वह कपड़ा जो सोने विजयसार-संज्ञा पुं० [ सं० विजयसार ] एक प्रकार का बहुत बड़ा के काम के लिये विछाया जाता हो। दरी, गद्दा, चाँदनी आदि जंगली पेड़ जिसके पत्ते पीपल के पत्तों से कुछ छोटे होते हैं । जो सोने के लिये बिछाए जाते हैं। बिछावन । बिस्तर । बिजयखार । उ.-जन कोउ भूपति उत्तरचो पाइ। छत्र तनाइ, बिछौन विशेष - इसमें प्रांवले के समान एक प्रकार के पीले फल भी बिछाइ ।-नंद० ग्रं॰, पृ० २८६ । २. वह फालतू लगते हैं। इसके फूल कड़वे, पर पाचक और बादी उत्पन्न सामान और काठ कबाड़ आदि जो जहाजों के पंदे में करनेवाले होते हैं । इसकी लकड़ी कुछ कालापन लिए लाल बहुमूल्य पदार्थो को सीड़ मादि से बचाने के लिये उनके नीचे रंग की और मजबूत होती है। यह प्रायः ढोल, तवले अथवा उनको टक्कर मादि से बचाने और उन्हें कसा रखने प्रादि बनाने 5 काम में आती है। इससे अनेक प्रकार की के लिये उनके बीच में बिछाया जाता है । (लश०) स्याहियां और रंग भी बनते हैं। वैद्यक में इसे कुष्टा, क्रि० प्र०—करना ।-डालना । —बिछाना । विसर्प, प्रमेह, गुदा के रोग, कृमि, कफ, रक्त और पिच बिज-संज्ञा पुं० [सं० बीज ] दे॰ 'बीज' । उ०-विज से का नाशक माना है। बिज उतपति किया सो बिज सभ के दीन्ह ।-संत० बिजया-संज्ञा श्री० [सं० विजया ] भांग । विजया। उ०-काया दरिया, पृ० १॥ कूडी साफ बनायो तिरविधि विजया नाई।-गुलाल, बिजई।'-सज्ञा स्त्री० [हिं० बीज ] बीज का प्रवशिष्ट अन्न जो पृ० २६॥ नीच जाति के लोग खेतों से लाते हैं । बिजवार । विजयी-वि० [सं० विजयिन् 1 विजयी । जयशील । बिजई@२-वि० [सं० विजयिन, हिं० विजयी ] जयशील। दे० बिजरी@-संज्ञा स्त्री० [हिं० बिजली ] दे० 'विजली' । उ०- 'विजयी' । उ०-दोउ विजई दिनई गुन मंदिर ।-मानस, प्रिया अति गति लई, विजरी सी कोधि गई।-पोद्दार ७।२५। अभि० ग्रं॰, पृ०८८५ बिजउरा-संज्ञा पुं० [ देश० ] दे० 'विजोरा' । (डिं०) बिजरी-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] अलसी या तीसी का पौधा । (बुदेल०)। बिजड़-संज्ञा श्री० [हिं०] तलवार । खड्ग । बिजली'--संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत् ] १. एक प्रसिद्ध शक्ति जिसके बिजन+-सज्ञा पुं० [सं० व्यजन ] हवा करने का छोटा पंखा जो कारण वस्तुओं में माकर्पण और अपकर्पण होता है और 1