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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२५४

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विठ विदती विठ-संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राकाश । २. वायुमंडल [को०] । प्राक पलास । आप सरीखे फरि लिए, जे होते उन पास | पिठक--संज्ञा पुं० [सं०] आकाश [को०] । -कबीर ग्रं॰, पृ० ५०।। बिठलाना-क्रि० स० [हिं ] दे० 'बैठाना' । विड़ायते--वि० [सं० वृद्धायते ] अधिक । ज्यादा (दलाल) । बिठाना-क्रि० स० [हिं०] दे० 'वेठाला'। बिडारना-क्रि० स० [सं० बिडरना का सक० रूप] भयभीत करके बिठालना--कि० स० [हिं०] दे० 'बैठाना' भगाना। उ०—(क) अर्जुन प्रादि बीर जो रहेऊ । दिए विडंब-- सज्ञा पु० [ मं० विढम्ब ] आडंबर । दिखावा । विडारि बिक्ल सब भयऊ ।-विश्राम (शब्द॰) । (ख) यौ०-बिडंबरत = पाखंडरत । उ०-वत है मूढ़ पंडित बिडंबरत कुभकरन कपि फोज बिडारी । तुलसी (शब्द०) २. नष्ट कबहुँ धर्मरत ज्ञानी ।-(शब्द०)। करना । बरबाद करना । न रहने देना । उ०-सेतु बंध जेइ धनुष बिडारा। उही धनुष भौहन्ह सो हारा ।-जायसी विडंबनाg:-संज्ञा स्त्री० [सं० विडम्बना ] १. नकल । स्वरूप (शब्द०)। बनाना। २. उपहास । हंसी । निंदा। बदनामी। उ.- बिडाल'-संज्ञा पुं० [सं०] १. बिल्ली। बिलाव । २. अखि का ज्ञानी तापस सूर कबि कोबिद गुन प्रागार । केहिकै लोभ विडंवना फीन्ह न एहि संसार ।-तुलसी (शब्द०)। डेला। ढेंढर (को०)। ३. बिडालाक्ष नामक दैत्य जिसे दुर्गा ने मारा था । ४. प्रांख के रोगो की एक प्रकार की ओषधि । बिड-पुं० [सं०] एक प्रकार का नमक । ५. दोहे के बासवें भेद का नाम जिसमें ३ अक्षर गुरु और बिड-संज्ञा पुं० [सं० विट् ] १. विष्टा । (डि.) दे० 'बिट'-३ । ४२ अक्षर लघु होते हैं । जैसे,—बिरद सुमिरि सुधि करत २.दे० 'विट'। नित हरि तुव चरन निहार। यह भव जलनिषि तें उरत कब बिड़g--संज्ञा पुं॰ [ सं० विट ] नीच । खल । धूतं । उ०-बीर करि प्रभु करिहहु पार। केसरी कुठारपानि मानी हारि तेरी कहा चली विड़ तो सो बिडालक-सशा पु० [सं०] १. आँख का गोलक । २. आँखों पर गर्न फालि को ।—तुलसी (शब्द०)। लेप चढ़ाने की क्रिया । ३. बिलाव । विदा-संज्ञा पुं० [सं० विरद] दे० 'विरद' । उ०-हम कसिये क्या बिडालपद, बिडालपदक-संज्ञा पुं० [सं०] एक तौल जो एक कर्ष होइगा, बिड़द तुम्हारा जाइ । पीछे ही पछिताहुगे ताथै के बराबर होती है । विशेष-दे० 'कर्ष। प्रगटहु प्राइ।-दादू० वानी, पृ० ६३ । बिडर'-वि० [हिं० बिडरना ] छितराया हुआ। अलग अलग । बिाडलवृत्तिक-वि० [सं०] बिल्ली के स्वभाववाला। लोभी। कपटी, दंभी, हिंसक, सबको धोखा देनेवाला, और सबसे टेढ़ा रहनेवाला। विडरी-वि० [हिं० बि (= विना)+डर (= भय)] १. जिसे विडालबतिक-वि० [सं०] विडालवत् व्यवहारवाला । झूठा । भय न हो । न डरनेवाला । निर्भय । निडर । २. धृष्ट । ढीठ । विडालाक्ष-वि० [स०] जिसकी आँखें बिल्ली की प्रांखों के समान हों। बिडरना-कि० अ० [सं० विट् (= तीखे स्वर से पुकारना, चिल्लाना)] १. उधर उधर होना । तितर बितर होना । विडालाक्षो-सज्ञा स्त्री० [सं०] एक राक्षसी का नाम । उ०-भीर भई सुरभी सब विडरी मुरली भली संभारी।- विडालिका-गञ्चा स्त्री॰ [स०] १. बिल्ली । २. हरताल । सूर (शब्द०)। २. पशुओं का भयभीत होना । विचकना । बिडाली-सज्ञा स्त्री॰ [ स०] १. विल्ली । २. एक प्रकार का प्रांख उ.-सिव समाज जब देखन लागे । बिडरि चले बाहन सब का रोग । ३. एक योगिनी जो इस रोग की अधिष्ठात्री मानी भागे ।—तुलसी (शब्द०) । ३. नष्ट होना । वरवाद होना। जाती है । ४. एक प्रकार का पौधा । विडराना-क्रि० स० [हिं० विडरना का सफ० रूप] १. इधर विडिक-संञ्चा स्त्री॰ [स०] पान का बीड़ा । गिलौरी। उधर करना। तितर बितर करना। २. भगाना । उ०- बिड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'बीड़ी'। खाए फल दल मधु सबन रखवारे विडराय ।-विश्राम विडोजा-संज्ञा पु० [सं० विडोजस् ] इंद्र का एक नाम । (शब्द०)। विडाल-सज्ञा पुं० [सं० घिढाल ] बिडालाक्ष नाम का एक बिड़वना'-क्रि० स० [सं० विट् (=जोर से चिल्लाना)] राक्षस । उ०---जे सुरक्त जे रक्तवीज बिड्डाल विहडिनि । तोड़ना। उ०-यद्यपि अलक अंग गहि बांधे तऊ चपल गति न्यारे । घुघट पट वागुर ज्यों बिड़वत जतन करत -भूषण, ग्र०, पृ०३। शशि हारे ।-सूर (शब्द०)। बिढ़ईल -सज्ञा स्त्री० [हिं० बिलाव ] बिलाव | बिल्ली। उ०- बिड़वना@+२-क्रि० स० [हिं० चिढ़वना ] कमाना । पैदा करना । कहल बिनु मोहि रहल न जाई । विढ़ई ले ले कूकुर खाई । उ.-रहूँ भरोसे राम के, बनिजे कबहुँ 'न जाँव । दास मलुका -कबीर बी० (शिशु०), पृ० २८० । यों कहै, हरि विड़वै मैं खाय । मलूक० बानी, पृ० ३४ । बिढ़तो-संज्ञा पुं० [हिं० बढ़ना (= अधिक होना) कमाई । बिड़ा-संज्ञा पुं० [सं० विटप था विरुह, हिं० विरवा J पेड़। नफा | लाभ । उ०-दै पठयो पहिलो विढ़तो मज सादर बिरवा। विटप। उ०-कवीर चंदन का बिड़ा, बैठया सिर धरि लीजै । —तुलसी (शब्द॰) ।