पिना २४६४ वित्ती बिढ़ना-क्रि० स० [सं० वद्धन, प्रा० बड्डण ] दे॰ 'विढ़वना'। कारे कजरारे, मृग मीन बज संज हूँ ते तिरेक है।- उ०-तात राउ नहिं सोचन जोगू । बिढ़ सुकृत जस कीन्हेउ नट०.४६ । भोगू ।-तुलसी (शब्द०)। वितवना@+-क्रि० स० [हिं०] ३० 'विताना' । उ०-घर के बिदवनाg+-क्रि० स० [ स० अभिवर्धन या वृद्धि, हिं० बढ़ाना] काज प्रकाज पिए सर जग सुख दुखमय बितयत ।-श्यामा०, १. कमाना। २. संचय करना । इकट्ठा करना । पृ० ८४॥ बिढ़ाना -क्रि० स० [हिं० ] दे० 'बिढ़वना' । वितस्ति-शा पु० [ म० वितस्ति ] वित्ता । १२ श्रगुन । दे० 'वितरित। उ-सप्त विस्त कार को करयो। रहत बिण-अव्य० [स० विना ] दे॰ 'बिन' । उ० -तुम विण भव दुख कोण निवारे ।-दक्खिनी०, पृ० १२२ । बहुरि कहाँ धौ परयो।-नंद० ग्रं०, पृ० २७० । वितंड-मज्ञा पुं० [सं० वि+तुण्ड (= मुख)] रूप । प्राकृति या विता-सशा पुं० [सं० वितस्ति ] दे० 'वित्ता' । मुख । उ०-धर बितड बाराह । वीर बीरन विदारि पल । वितान-मंज्ञा पुं॰ [सं० वितान ] दे० 'वितान'। उ०-सजहि -पृ० रा०, २११४४ । सुमगल फलस वितान बगावहिं । -तुलसी ६०, पृ० ५६ । वितंडा-सज्ञा पु० [सं० वितण्या] १. बखेड़ा । झझट । २. बिना विताना-क्रि० स० [स० व्यतीत, हिं. बीतना का संक्षिप्त रूप, या अर्थ की वहस । सं० व्यतीत, प्रा० यितीत + हिं० ना (प्रत्य०) ] (समय) यौ०-वितडावाद । उ०-विद्वन मंडल करत बितंढावाद प्रादि व्यतीत करना । (वक्त) गुजारना । काटना । विनाशक ।-भारतेंदु० प्र०, भा० २, पृ० ७५० । विताला-संवा पुं० [सं० वेताल ] दे० 'वैताल' बित-सञ्ज्ञा पुं० [सं० वित्त ] १. धन । द्रव्य । उ०-सुत वित पितावनाg+-क्रि० स० [हिं०] २० 'बिताना' । नारि भवन परिवारा। होहि जाहि जग वारहि वारा - बितीत-वि० [ म० व्यतीत, प्रा० वितीत ] दे० 'व्यतीत' । मानस, ६।६० । २. सामर्थ्य । शक्ति । ३. कद । प्राकार । बितोत-संज्ञा पुं० व्यतीत करने या गुजर जाने की स्थिति या पितताना'-क्रि० अ० [हिं० पिलखाना ] विलखाना। व्याकुल भाव । उ०-चोही बितीत कोनो समय ताकत डोल्यो काक होना । विशेष सतप्त होना । (क) रोवति महरि ज्यों। वज००, पृ० ११६ । फिरति बिततानी । बार बार ले कंठ लगावति मतिहि शिथिल भइ बानी -सूर (शब्द०)। (ख) प्रिया पिय लीन्ही ग्रंकम बितोतना'-क्रि०म० [म० व्यतीत, प्रा० बितीत = ना (प्रत्य०)। लाय । खेलत मे तुम विरह बढ़ायो गई कहा वितताय । व्यतीत होना । गुजरना । उ०-(क) सात द्योस यहि रोति सूर (शब्द०)। (ग) सूर स्याम रस भरी गोपिका वन में वितीते । पचम इंदिन के गुन जीते।-लाल (शब्द०)। यों बितताही।-सूर (शब्द०)। (ख ) विधिवत बारह मास बितीते।-पद्माकर (शब्द०) । (ग) ज्यो ज्यौं बितीतति है रजनी उठि त्यौं त्यो उनीदे से बितताना-क्रि० स० संतप्त करना । सताना । दुखी करना । प्रगनि ऐंठे।-(शब्द०)। बितन-संज्ञा पु० [स० वि (= रहित)+तनु] अतनु । कामदेव । मितीतना'-क्रि० स० बिताना । गुजारना । उ०-तिय तन वितन जु पव सर, लगे पंच ही बाट ।- नंद०, पं०, पृ० १३५ ॥ यितीपात-संघा पुं० [सं० व्यतीपात ] ज्योतिष में एक योग । वि० दे० 'ध्यतीपात'। 10-चितीपात परदोष बताई। ये सब बितना -सज्ञा पु० [हिं० बित्ता] दे॰ 'विचा' । उ०-इंद्र गरब हर सजह में गिरि नख पर घर लीन । इह इतना वितना झूठी बात चलाई।-घट०, पृ० १३ । भरा हु कितना बल कीन ।-रसनिधि (शब्द०)। बितुंडी-पज्ञा पुं० [० वितुएड ] दे० 'वितुड'। उ०-वलित बितना-क्रि० प्र० [हि बीतना ] गुजरना । व्यतीत होया । बिड पै विराजि विलखाइ के।-हम्मीर०, पृ० ४० । उ०-नद दास लगे ननि लाल सों, पलक प्रोट भए वितत पितु-संज्ञा पुं॰ [सं० चित, हिं० पित] दे० 'वित्त' । जुग चारि ।-नंद ग्रं॰, पृ० ३५३ । चित्त-संज्ञा पुं० [स० वित्त ] १. धन । दौलत । २. हैसियत । बितनु-संशा पु० [सं० वितनु] दे॰ 'वितनु'। उ०-फटिक औकात । ३. सामथ्र्य । शक्ति । बूता । उ०—किसी की भड़ी छरी सी किरन कुज रंध्रनि जब पाई । मानों बितनु बितान मे पाकर अपने विच से बढ़कर काम मत करो। पर कोई सुदेस तनाउ तनाई।-नंद० ग्रं॰, पृ०७ । यदि अपने वित्त फे वाहर मांगे या ऐसी वस्तु मांगे जिससे वितरनाg+-क्रि० स० [मं० वितरण] बौटना । वितरण करना। दाता की सर्वस्व हानि होती हो तो वह दे कि नहीं? । उ०-कहै पद्माकर सुहेम हय हाथिन के हलके हजारन के यौ०-यित्तहीन = धनहीन । निर्धन । उ०-दीन वितहीन कैसे वितर बिचारे ना।-पद्माकर (शब्द॰) । दूसरी गढ़ाइहो। तुलसी (शब्द०) वितरेक-वि० [सं० व्यतिरेक ] अतिशयतायुक्त । -अतिक्रमण बित्ता-प्रज्ञा पु० [स० वितरित ] हाथ की सब अंगुलियां फैलाने करनेवाला । उ०-ए हो नटनागर ! तिहारी सौह सांची कही, पर मंगूठे के सिरे से कनिष्ठिका के सिरे तक की दूरी.. सारे भुवमंडल विधाता रची एक है । प्यारी के नयन मनियारे बालिश्त।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२५५
दिखावट