पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२७८

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1 विवार सिंहस्त विस्वा3 -संज्ञा पु० [हिं० बीसवाँ ] एक बीघे का बीसवाँ भाग । विहतारी-संज्ञा पुं० [सं० विस्तार ] दे० 'विस्तार'। मुहा०-बीस विस्वा=निश्चय । निस्संदेह उ०-देखे विना विहद, विदह-वि० [फा० बेहद ] असीम । परिमाण से बहुत दोष दे सीसा। नरक परै सो विस्वे वीसा ।-रघुनाथदास अधिक । उ०-क) भूपण भनत नाद विहद नगारन के, (शब्द०)। नदी नद मद गैबरन के रलत हैं।-भूषण (शब्द०) । (ख) विस्वादार-संज्ञा पुं० [हिं० विरवा+फा० दार ] १. हिस्सेदार । देव नद्दी कैसी कित्ति दिपति विसद्दी जासु युगलेश साहिथी पट्टीदार । २. किसी बड़े राजा या ताल्लुकेदार के अधीन विहद्दी मनो देवराज ।--युगलेश (शब्द०)। (ग) कहै जमीदार। मतिराम बलविक्रम बिहद्द सुनि गरजनि परै दिगवारन बिस्वास-संज्ञा पु० [ सं० विश्वास ] दे० विश्वास' । बिपति मैं-मति न०, पृ० ३८६ । विहंग-संज्ञा पुं० [ सं० विहङ ग ] दे० 'विहग' । बिहफे-उज्ञा पुं० [ सं० वृहस्पति ] दे० 'वृहस्पति' । उ०-विहफे बिहंडना-क्रि० स० [सं० विघटन वा सं० विखण्डन, प्रा० विहंडण] गुरु दीरघ गुरु, सबके गुरु गोविंद ।-नंद० ०, पृ०७४ । १. खंड खंड कर डालना । तोडना। २. काटना। ३. नष्ट विहबल-वि० [सं०] १. व्याकुल । उ०-यादोपति यदुनाथ कर देना । मार डालना। उ०-(क) परम तत प्राधारी खगपति साथ जन जान्यो बिहबल तव छाडि दियो थल मे। भेरे, शिव नगरी घर मेरा। कालहि षंडू मीच विहडू, —सूर (शब्द०)। २. शिथिल । उ०-ह गई विह्वल बहुरि न करिहूँ फेरा -कवीर म०, पृ० १५४ । (ख) तू अंग पृथु, फिरि सजे सकल सिंगार जू । -केशव (शब्द०)। अघ के अघ अोधन खंडे। अधिक अनेकन बिधन बिहडे । -लाल (शब्द०)। बिहरना'-क्रि० प्र० [सं० विहरण ] घूमना फिरना । सैर करना । भ्रमण करना। उ०-जिन बीथिन बिहरै सब भाई । विहंडा-वि० [सं० विभण्ड, या विखण्डन, प्रा० विहंड, विहंडण] थकित होहिं सब लोग लुगाई । —तुलसी (शब्द०) । [सी० पिहडी] भंड आचरण करता हुप्रा। भ्रष्टाचार युक्त । बिहरनाg३-क्रि० स० [सं० विघटन, प्रा० विहटन] १. फटना । उ०-तू तो रंडी फिरे बिहही, सब धन डारे खोय रे । दरकना । विदीर्ण होना । उ०-तासु दूत हूं हम कुल -कबीर० श०, भा०, पृ० ३५ । बोरा । ऐसेहु मति उर बिहरु न तोरा ।- तुलसी (शब्द०)। विहँसना-त्रि० ० [सं० विहसन ] मुस्कराना । मद मंद २. टुकड़े टुकड़े होकर टूटना। फूटकर बिखर जाना। हंसना । जाहु वेगि संकट अति प्राता । लछिमन विहंसि कहा उ०-हृदय वह दारुन रे पिया बिनु विहरि न जाए। सुनु माता।—तुलसी (शब्द॰) । -विद्यापति, पृ०१५ । विहँसाना-क्रि० अ० १. दे० 'विहंसना' । उ०-ततखन एक सखी विहराना@+-क्रि० प्र० [हिं० विहरना ] फटना। उ०—(क) विहँसानी । कौतुक एक न देखहु रानी।-जायसी (शब्द०) फेरा के से पात बिहराने फन सेप्स के 1-भूषण (शब्द०)। २. प्रफुल्लित होना | खिलना ( फूल का)। (ख) पुष्ट भए अंडा विहराना | छु दिन गत भो चक्षु विहँसाना--क्रि० स० हंसाना । हर्षित करना । सुजाना।-कबीर सा०, पृ० २२४ । विहा-संज्ञा पुं॰ [ सं० विधि, प्रा० यिहि ] ब्रह्मा । उ०-सुघटित विहरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० व्यौहार ] चदा । बरार । भेजा । विह बिघटारे ।-विद्यापति, पृ०५६ । विह्वल-वि० [ स० विह्वल ] दे॰ 'बिहबल' । २०-तब तुम सर विह--वि० [फा०] भला | अच्छा [को०] । अभ्यास लख्यो विहबल ह्व नाहीं।-भारतेंदु म, भा०१, विहँसौहाँ-वि० [हिं०/ विहँस + नौंहा (प्रत्य०) ] १. व्हिसन पृ० १०६। शील । हसता हुमा। २. खिला हुप्रा । विकसित । उ- बिहसनि-सज्ञा स्त्री० [हिं० विहँसना ] विहंसने का भाव या भौहैं करि सूधी बिहसोहैं के कपोल नैक सौहैं करि लोचन कार्य । उ०-बाढ़ चली बिहसनि मनो सोभा सहज विलास । रसौहैं नंदलाल सौ।-मति० न०, पृ० ३१२ । -मति० न०, पृ० ३१५ । विहग-संज्ञा पुं० [सं० विहग ] दे० 'विहग' । उ०---सुकृतो साधु विहसाना-क्रि० स० [सं० विहसन, हिं० विहँसना ] विकसित नाम गुन गाना । ते विचित्र जल विहग समाना ।—मानस, करना । उ०- प्रष्ट कंवल दल पाखुरी उनको विहसावो। ११३७ । -धरनी० श०, पृ० ३१ । विहडना-क्रि० अ० [ प्रा० विहढण, हि. विहँढना ] खडित विहसिन-वि० सी० [सं० विहसन ] हंसनेवाली। हंसोह। होना । टुटना । उ०-दादू संगी सोई कीजिए, कबहूँ पलट उ०-बिहसिन भाई नीर को बीर तरनिजा तीर । वीर न जाइ। श्रादि अंति विहहै नहीं, ता सन यह मन लाइ। गिरी तिहि हेरि री पहिराई बलबीर ।-स० सप्तक, -दादू०, पृ०४६३ ॥ पृ०२३०॥ विहतर-वि० [फा० ] बहुत अच्छा । विहस्त-संशा की० [फा० बिहिश्त ] १० विहिश्त' । उ०- विहतरी-संज्ञा स्त्री॰ [फा० ] भलाई । कुशल । (क) दल दोय दिवखत बीर । पहुंचे विहस्त गहीर-ह.