पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२७९

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विहग बिहोरना रासो, पृ० १४२ । (स) चढि विमान दोक तहाँ पहुंचे जाय विहारी'-वि० [मं० विहारिन ] [१ विहारिणी ] विहार करने. बिहस्त ।-ह० रासो, पृ० १४२ । वाला । उ०-एफ हा दुग देशत पे.पाय होत उहा मुस्लोक बिहागः 1-सज्ञा पु० [सं० विभाग (= वियोग) ] एक राग जो पाधी विहारी।-केशव (जन्द०)। रात के बाद लगभग २ वजे के गाया जाता है। यह गग बिहारी-in पुं० श्रीगण का एक नाम । हिंडोल राग का पुत्र माना जाता है। बिहाल-वि० [फा० बेहाल ] व्याल । बैन। उ०-साफे भय बिहागड़ा-संज्ञा पु० [हिं० बिहाग+डा (प्रत्य०) ] संपूर्ण जाति रघुबीर कृपाला । सकल भुवन मैं फिर घो 'बहाला । का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। -तुलसी (शब्द०)। विशेप-इसके गाने का समय रात को १६ दउ से २० दडता बिहाली@-शा सी० फा० बेहाली ] उ-नौयां कोठ गोड है। कोई इसे हिंडोल राग की रागिनी पाहते हैं और कोई धमे मन माली । दुरमति माया गरे बिहानी।-घट०, पृ० ४५ । सरस्वती, केदार और मारवा के योग से उत्पन्न मानते हैं । बिहासा पुं० [० च्याम ] पाग' | 30.-पारासर बिहाड़.@-संज्ञा पु० [सं० विभात, प्रा० विहाट] ? 'विहान। जो पुत्त विहामह । मतयती प्रमं गुरु भाग 1--पृ. उ०-मारू सनमुस तेडिया, दियण स्वदेसा पंज्ज । पहउ दे रा०,१८७1 थे चालिस्याउ, कोइ विहाडह प्रज्ज-ढोला०, दू० १८७ । विहि:- 1. [१० विधि, प्रा० विदि] दे० 'विधि'। विहाण@-सज्ञा पु० [सं० विभात; प्रा० यिहाण या स० विभानु ? ] दे० 'विहान'। पिहित-१ [ विदित ] : 'विहित' 1 ३०-पगित वरनि बिहान'-संशा पुं० [ स० विभात, प्रा० विहाट, बिहारण ] संग। घस विधित कहि, मान हाय दन दान |--मनि० प्र०, गृ० ३४४। प्रात.फाल । उ०-लसत सेत सारी ढक्यो तरल तम्घोना फान । पर घो मनो सुरसरि सलिल रवि प्रतिचिव विहान । पिहित " -पमा पु० [फा० यिहित ] दे० विहिन । -बिहारी (शब्द०)। बिहिश्त-1 सी० [फा० पिपिरत ] स्वगं । कुछ। 30-सिजदे बिहान-कि० वि० पानेवाले दूसरे दिन । फल्ह । फल | उ०-गगन से गर विहिन मिले दूर कीजिए।-भारतेंदु ०. मा० १, यथाक्रम खबरि वखाने । राम होहिं युवराज विहाने । पृ० ४८० । २. स्वर्गतुल्य स्थान | प्रानंदपुर्ण जगह । -रघुराज (शब्द०)। बिहिश्ती-1 [ फा०] १. स्वर्गीय । स्वर्गमा। स्वर्ग संबंधी। विहाना'-क्रि० स० [सं० वि+हा ( = छोड़ना) ] छोरना । २. मशक से पानी का छिड़काव करनेवाला। त्यागना । उ०-सुनु खगेस हरि गगति बिहाई । जे मृग विहिन्तामो[फा• यदिस्त ] २० विहिस' । ३०-पिसने चाहहिं पान उपाई ।-तुलसी (पान्द०)। (स) सहज सनेह विहित वैठ बनाया। कबीर सा०, पृ० १५१३ । स्वामि सेवकाई । स्वारथ छन फल चारि बिहाई ।-तुलसी पिही --मरा ० [फा०] १. एक पेड़ जिसके पास अमरूद से (शब्द०)। मिलते जुलते होते हैं । यह पेशावर मोर नायुल को मोर विहाना-क्रि० प्र० व्यतीत होना । गुजरना । पीतना । ३०- होता है। २. उका पेड़ का फल जो मेयों में गिना जाता है। (क) चेतना है तो चेत ले निरा दिन मे प्रानी। छिन छिन ३. पमरुद । उ०-यहाँ मंभर प्रदेश राजमाली ने भापके प्रवधि बिहात है, फूट घट ज्यों पानी।-सतबानी. भा०२, साथ के सतो पो बिही के फन लेने से रोक दिया।-गतमाल पृ० ४७ । (स) बड़ी विरह की रैनि यह क्योहूँ के न विहाय । (घी०), पृ० ४३७ । २. नेते। मलाई। -रसनिधि (शब्द॰) । (ग) निमिप विहात फल्प सम तेही । -तुलसी (शब्द०)। विहीदाना-... पु० [फा० ] विही नामक फल का चीज जो दवा बिहायसी-सज्ञा पुं० [ स० विहायस् ] अाकाश । प्रासमान ।-नंद० के काम में प्राता है। इन बीजों को गिगो देने से लुभाव प्र., पृ०६७। निकलता है जो शर्यत की तरह पिया जाता है। बिहारक-वि० [सं० विहारक } विहार करनेवाला । उ०-व्यास विहोन-० [हिं० विहीन ] रहित । यिना | उमारि विहीन विरंचि सुरेस महेसहु के हिय भंवर वीच बिहारक ।-प्रेम मीन ज्यो व्याकुल व्याकुल वजनारि सबै ।-सूर (शब्द०)। घन०, भा०१, पृ०२०० । बिहार-संज्ञा पुं० [सं० विहार ] १. दे० 'विहार' । २. भारत का पिहून-वि० [हिं• विहीन ] यिना। रहित । उ०—(क) निष एक राज्य । संगी निज सम करत दुरजन मन दुप्प दून | मलयाचल है बिहारना-क्रि. प. [ स० विहरण ] विहार करना । केलि वा संत जव तुलसी दोप विहून ।-तुलसी (शब्द०) (ख) ढोल क्रीड़ा करना । उ०-(क) सुर नर नाग नव कन्यन के प्रारण- वाजता ना सुनै सुरति बिहूना कान । -पवीर (शब्द०)। पति पति देवतानहू के हियन विहारे हैं । -के शव (जब्द०)। विहोरना-क्रि० प्र० [हिं० विहरना (= फूटना)] बिछुड़ना । (ख) पदुम सहस्र वरत तुम धारी। विष्णु लोक में जाय उ०-सीता के बिहोरे रती राम मे न रहो बल, दुजे बिहारी।-रघनाथदास (चन्द०)। लछिमन मेघनाद वे क्यो जीति है। हनुमान (छन्द०)।