पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२८४

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धौतना बीजी-संज्ञा पुं० [ सं० घोजिन् ] १. पिता। बीज से उत्पत्ति जाइ । ऐसा कोई ना मिले बीड़ा लेइ उठाइ । —कबीर करनेवाला बाप । क्षेत्री का उलटा । २. सूर्य (को०)। (शब्द०)। (२) उद्यत होना । मुस्तैद होना। उ०-कहे बीजी--संज्ञा स्त्री० [सं० बीज ] दे० 'चाबी' । उ०—जिस विषम फंस मन लाय भलो भयो मंत्री दयो। लीने मल्ल बुलाय कोठड़ी जंदे मारे । बिनु बीजी क्यों खूल हिं ताले ।-प्राण, आदर कर बीरा लयो।- लल्लू (शब्द०)। बीड़ा डालना वा पू० ३२। रखना=किसी कठिन काम के करने के लिये सभा में लोगों बोजु-संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्, प्रा० विज्जु ] बिजली । उ०- के सामने पान की गिलौरी रखकर यह कहना कि जिसमें हरिमुख देखिए बसुदेव । "श्वान सूते पहरुवा सब नींद उपजी यह काम करने की योग्यता हो या साहस हो वह इसे उठा गेह । निशि अंधेरी बोजु चमकै सघन बरप मेह । -सूर ले । जो पुरुष उसे उठा ले, उसी को उसके करने का भार (शब्द०)। दिया जाता है । (यह प्रायः प्राचीन काल के दरबारों की पीजुपात--संज्ञा पुं० [सं० विद्युत्पात, प्रा० विज्जुपात ] दे॰ 'वज्रपात' । रस्म थी जो पब उठ सी गई है) । बीड़ा या वीरा देना- (१) कोई काम करने की माज्ञा देना । काम का भार देना । बीजुरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'बिजली'। सौंपना । दे० 'बीड़ा डालना' । उ०-कंस नृपति ने शकट बोजू'-वि० [हिं० वीज+ऊ (प्रत्य०)] बीज से उत्पन्न । जो बीज बोने वुलाए लेकर बीरा दीन्हो । प्राय नंदगृह द्वार नगर मे रूप से उत्पन्न हुपा हो । फलमी का भिन्न । जैसे, वीजू पाम । प्रगठ निज कीन्हों।—सूर (शब्द॰) । (२) नाचने, गाने, बीजू - -सज्ञा पुं॰ [सं० विद्युत् ] दे० 'बिज्जु' । बजाने प्रादि का व्यवसाय करनेवालों को किसी उत्सव में घोजोदक-संज्ञा पुं० [सं०] मोला। सम्मिलित होकर अपना काम करने के लिये नियत करना । वीज्य-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] वह जो अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ हो । नाचने, गानेवालों मादि फो साई देना । बयाना देना। कुलीन । २. वह डोरी जो तलवार की म्यान में मुंह के पास बंधी वीझ-वि० [सं० विजन ] दे० 'बोझा'। उ०—परेउ पाप अब रहती है। वनखंड माहाँ। दंडकारण्य बीझ बन जाहाँ ।-जायसी विशेष-म्यान मे तलवार डालकर यह डोरी तलवार के दस्ते (शब्द०)। की खूटी मे बोध दी जाती है जिससे वह म्यान से निकल बोमना@+-फ्रि० प्र० [सं० बिद्ध, प्रा० विउ ] लिप्त होना । नहीं सकती। फैसना । उ०—(क) डोल बन बन जोर यौवन के याचकन बीडिया-वि० [ हिं० पीड़ा+इया (प्रत्य॰)] १. बीड़ा उठाने- राग वश कीन्हें बन बासी बीझि रहे हैं । -देव (शब्द०)। वाला । अगुवा । नेता । २. दे० 'बीहिया' । (ख) झींझि झीमि झुकि कै विरुझि बोझि मेरे बैरी एरी रीझ रोमि ते रिझाए रिझवार री।-देव (शब्द॰) । बीड़ी-संशा स्त्री॰ [हिं० बीड़ा ] १. दे० 'बीड़ा' । २. गड्डी । दे० 'बीड़' । २. मिस्सी जिसे स्त्रियाँ दांत रंगने के लिये मुह में बोमाg+-वि० [सं० विजन ] १. जहाँ मनुष्य न हों। निर्जन | मलती हैं। ४. पत्ते में लपेटा हुमा सुरती का पूर जिसे एकांत । २. सघन । घना (जंगल)। लोग विशेषतः भारतीय सिगरेट या चुरुट प्रादि के समान वीट-संज्ञा स्त्री० [सं० विट् ] १. पक्षियों को विष्ठा। चिड़ियों का सुलगाकर पीते हैं। गुह । २. गुह । मल । (व्यंग्य) । ३. दे० 'विट्लवण' । बोड़ी-पञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० बीड़ा ] एक प्रकार की नाव । घोटी-संज्ञा क्षी० [ देश० ] प्राभूषण विशेष । उ०-भुजबंध पहुंचि बीतक'-संज्ञा पुं० [सं० वृत्त ] बीती हुई घटना । समाचार । वृत्त । बीटी हथफूल है जु खासा । -ब्रज० ग्र०, पृ० ५८ । उ०—ता पछ हिंदू तुरक सवै बीतक ज्यों बित्यो।-पृ० थीठल-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'विट्ठल' । रा०, २११२११। बीड़-संज्ञा स्त्री० [हिं० बीड़ा ] एक के ऊपर एक रखे हुए रुपए बीतना-क्रि० अ० [सं० व्यतीत या वीत (जैसे, वीतराग)] १. जो साधारणतः गुल्ली का प्राकार धारण कर लेते हैं । समय का विगत होना। वक्त कटना। गुजरना। उ०- बीड़-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'वींड', 'चीड़ा' । (क) चौरासी लक्षहु जीव झूल धरोह रविसुत धाय । बीड़-वि० [सं० वृत या विद्ध] सघन | घना। उ०-महा बोड़ कोटिन कलप युग बीतिया माने ना पजहुँ हाय । बन पायो तहाँ । रोवन लग्यो बोझिया तहाँ ।-अर्ध०, -कषोर (शब्द०)। (ख) जनम गयो वादहि चिर बीति । पृ० ३६। परमारथ पालन न करेउ कछु पनुदिन अधिक अनीत । वोड़ा-पञ्चा पुं० [ सं० वोटक ] १. सादी गिलौरी जो पान में चूना, -तुलसी (शब्द॰) । (ग) कछु दिन पत्र भक्ष करि बीते कत्था, सुपारी आदि डालकर पौर लपेटकर बनाई जाती है । कछु दिन लीन्हों पानी । फछु दिन पवन कियो अनुप्रासन खीली। रोक्यो श्वास यह जानी। -सूर (पाब्द०)। २. दूर होना । मुहा०-पीड़ा उठाना=(१) कोई काम करने का संकल्प जाता रहना । छूट जाना । निवृत्त होना। 30-(क) सब करना । किसी काम के करने के लिये हामी भरना। पण विधि सानुकूल लखि सीता । भा निसोच उर अपडर बीता। बांधना । उ०कबिरा निंदक मर गया अब क्या कहिए तुलसी-(शब्द॰) । (ख) मुनि वाल्मीकि कृपा सतो घृषि ।