पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३०

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फलेवा फनो फनो-संज्ञा स्त्री० दे० 'फरण' । विशेष—यह वास्तव में खुमी या कुकुरमुत्ते को जाति के प्रत्यंत फनीक-संज्ञा पुं० [हिं० ] फनिक । सर्प । उ०-तरिवर हीन सूक्ष्म उद्भिद है जो जतुओं या पेड़ पौधों, मृत या जीवित भयो बिनु पल्लो सो मनि बिनु कवन जो कहत फनीका । शरीर पर ही पल सकते हैं। और उद्भिदों के समान मिट्टी -सं० दरिया, पृ० ६३ । मादि द्रव्यों को शरीरद्रव्य मे परिणत करने की शक्ति इनमें नहीं होती। फनीपति-संज्ञा पुं० [सं० फणिपति ] दे० फणिपति' । उ०- दलके चढ़त फनमंडल फनीपति को । –मतिराम ०, फफोर-संज्ञा पु० [सं० १ या देश० ] एक प्रकार का जंगली प्याज । पृ० ३६४। विशेष—यह हिमालय में छह हजार फुट की ऊंचाई तक होता फनूस-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'फानूस' । उ०-हबसी गुलाम है और प्रायः प्याज की जगह काम में प्राता है । भए देखि कारे केस तेरे, चीनी लिख गालन को फोरत फनूस फफोला-संज्ञा पुं० [सं० प्रस्फोट ] आग में जलने से चमड़े पर का हैं। -भारतेंदु म, भा॰ २, पृ० ८६४ । पोला उभार जिसके भीतर पानी भरा रहता है। छाला। फनेस-संज्ञा पु० [सं० फणीश; हिं० फन + ईस] फनों का स्वामी। झलका । उ०—कंवल चरन मॅह पर फफोला । प्यास से वह जिसके अनेक फण हो । शेषनाग । उ०-दास जू वादि जीभ भई जस अोला ।-हिंदी प्रेम गाथा०, पृ० २३६ । जनेस मनेस धनेस फनेस गनेस कहैवो।-भिखारी० प्र०, कि० प्र०-डालना।-पड़ना । भा०२, पृ०३८। मुहा०-दिल के फकोले फोड़ना = अपने दिल की जलन या क्रोध फन्न-संज्ञा पुं० अ० फन्न ] दे० 'फन' प्रकट करना। बुखार निकालना। दिल के फफोले फूटना = फन्नी-संज्ञा स्त्री॰ [ स० फण ] १. लकड़ी आदि का वह टुकड़ा जो दिल की जलन या क्रोध प्रकट होना । किसी ढीली चीज की जड़ में उसे कसने या दृढ़ करने के फबकना-क्रि० प्र० [हिं० फफदना ] १. दे० 'फफदना'। २. मोटा लिये ठोंका जाता है । पच्चर । २. कंघी की तरह का जुलाहों होना। का एक औजार जो बाँस की तीलियों का बना हुआ होता है बड़ा संज्ञा पु० [ देश ? ] एक प्रकार की घास । उ०-एक और जिससे दवाकर बुना हुआ बाना ठीक किया जाता है । दिवस कृष्ण की संतान मद पीकर मस्त होकर लड़ी और फन्नी-वि० [अ० फन्नी ] फन संबंधी | कला संवधी [को०] । उसने फवड़े उखाड़ उखाड़कर एक दूसरे को मार मारकर फपक-संज्ञा स्त्री० [हिं०] बढ़ती। बाढ़ । सबके सब मर गए।-कवीर मं० पृ० २४५ । फपकना-क्रि० अ० [हिं०] १. बढ़ना। २. दे० 'फफकना' । फबती-संज्ञा स्त्री० [हिं० फबना ] १. वह बात जो समय के अनुकूल फाफस-वि० [ अनु० ] जिसका शरीर बादी आदि के कारण बहुत हो । देशकालानुसार सूक्ति। २. हंसी की बात जो किसी पर फूल गया हो । मोटा और भद्दा । घटती हो । व्यग्य । चुटकी। फफकना-क्रि०प० [अनु०] १. रुक रुककर रोना। २. भभकना मुहा०-फबती उड़ाना=हेसी उड़ाना । फवती कसना = फबती जैसे, दिए का। कहना या उड़ाना। उ०—जमीदार पर फबती कसता, फफका-संज्ञा पुं० [अनु० ] फफोला । छाला। बाम्हन ठाकुर पर है हँसता । ग्राम्या, पृ० ४५। फबती कहना = चुभती हुई पर हंसी की बात कहना। हँसी उड़ाते फफदना -क्रि० अ० [सं० प्रपतन या अनु०] १. किसी गीले पदार्थ का बढ़कर फैलना । जैसे, गोबर का फफदना । २. फैलना। हुए चुटकी लेना । हास्यपूर्ण व्यंग्य करना । फवतियाँ होना = चुभती या लगती बातें होना। उ०-हजरत की किता शरीफ कढ़ना (चर्मरोग, या घाव मादि के संबंध में )। जैसे, दाद देखकर हंस पड़े, फेबतिया होने लगी।—फिसाना०, भा० का फफदना । घाव का फफदना। ३, पृ० २५। फफसा'-संज्ञा पुं० [सं० फुप्फुस ] फुप्फुस । फेफड़ा । फबन-संशा श्री० [हिं० फवना ] फवने का भाव । शोभा । छवि । फफसा-वि० [अनु०] १. फूला हुआ और अंदर से खाली । सुदरता। पोला । २. (फल) जिसका स्वाद बिगड़ गया हो । बुरे स्वाद- फबना-क्रि० प्र० [सं० प्रभवन, प्रा० पभवन ] शोभा देना । सुदर वाला । ३. स्वादहीन । फोका। या भला जान पड़ना । खिलना। सोहना । उ०—(क) मान फफूंद-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० फाहा या अनु० ] दे० 'फफू दी। राखिवो मांगियो पिय सो नित नव नेह । तुलसी तीनिउ फफूंदी@-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० फुबतो ] स्त्रियों के साड़ी का बंधन । तब फबै ज्यों चातक मति लेहु ।-तुलसी (शब्द०)। (ख) नीवी । उ०-लीन्ही उसास मलीन भई दुति दीन्ही फुदी फवि रही मोर चंद्रिका माथे छवि की उठत तरंग । मनहु फफूदी की छपाय फै। देव (शब्द०)। अमर पति धनुष विराजत नव जलघर के संग । -सूर फफूंदो-संज्ञा स्त्री० [हिं० (रूई का) फाहा ] काई की तरह की (शब्द०)। पर सफेद तह जो बरसात के दिनों में फल, लकड़ी आदि पर फबाना-क्रि० स० [हिं० फबना का सक० रूप ] उपयुक्त स्थान लग जाती है । भुकड़ी। में लगाना । उचित स्थान पर रखना । ऐसी जगह लगाना या