पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३१

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फवि ३२७० फरकार रखना जहाँ भला जान पड़े। उ०-कहाँ साँच मैं खोवत करते कहाँ फबावत । सूर श्यास नागर नागरि वह हम तुम्हरे मन पावत ।—सूर (पन्द०)। फबि-सज्ञा सी० [हिं० फवना ] फबने का भाव । फवन । छवि । शोभा । उ०—त्रिवली तटनी तट की पुलिनाई, काऊ बहि जाय कबी फबि में ।-(शब्द०)। फबीला-वि० [हिं० फबि+ईला (प्रत्य॰)] [वि० सी० फीली] जो फबता या भला जान पड़ता हो। शोभा देनेवाला । सुदर । उ०-जैसे ही पोहि घरयो ठकुराइन मोती के ये गजरा चट- कीले । वैसेइ प्राय गए रघुनाथ वह्यो हँसि फोन कहें ये फबीले । नाव तिहारो हियो कहि मैं तो उठाय लिए सुख पाय 8 ढोले। आखि सो लाय रहे पल एक रहे पल छाती सों छवाय छवीले ।-रघुनाथ (शब्द०)। फरकना-क्रि० अ० [हिं० ] फलाँगना । फाँद जाना । लांघ जाना । ७०-वूड़े थे परि ऊबरे गुर की लहरि चमंकि । मेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पड़े फरंकि ।-कबीर ग्र०, पृ०३। फरग-सज्ञा पुं॰ [फा०] 2. "फिरग' । फरंज-सज्ञा पु० [फा०] दे० 'फिरंग'। फर+ १-मज्ञा पुं० [सं० फल ] १. दे० 'फल' । उ०-सास ससुर सम मुनितिय मुनिबर । असनु अमिय समकंद मूल फर । --मानस, २।१४०। यौ.- फर फूल = फल और फूल । उ-(क) फर फूलन के इंछा वारी । —जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० २४६ । (ख) शाखा पत्र और फर फूला।-सुदर० प्र०, भा० १, पृ० १११ । २. दे० 'फड' । ३. सामना। मुकाविला । रण.। युद्ध । उ०- भगे बलीमुख महाबली लखि फिरें न फर पर मेरे । अंगद अरु हनुमंत घाय द्रुत बार बार अस टेरे।-रघुराज (शब्द०)। ४. बिछावन । बिछौना । उ०-सूल से फूलन के फर पै तिय फूल छरी सी परी मुरझानी।-(शब्द०)। ५. वारण का अगला नोकदार हिस्सा । फल । उ०-बिनु फर बान राम तेहि मारा ।—मानस, १२२१० । फर-संज्ञा पुं० [ ] ढाल [को॰] । फरका'-क्रि० वि० [ स० पराक् ] दूर । अलग । परे । उ०-कोउ पत्र पवन ते बार्ज । मृग चौकि फरक हो भाज।-सुदर० सं०, भा० १, पृ० १४१ । फरक-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० फरकना १. फरकने का भाव । २. फरकने की क्रिया । ३. फुरती से उछलने कूदने की चेष्टा । चंचलता । फड़क । उ०-मृगनैनी हग की फरक, उर उछाह, तन फूल । विनही पिय प्रागम उमगि पलटन लगी दुकूल । -बिहारी र०, दो० २२२ । फरक-संज्ञा पुं० [अ० फरक ] १. पार्थक्य । पृथक्त्व । अलगाव । २. दो वस्तुप्रो के बीच का अंतर । दूरी । मुहा०-फरक फरक होना = 'दूर हो' या 'राह छोड़ो' की अावाज होना । 'हटो बो' होना । उ०-चल्यो राजमंदिर की अोरा । फरफ फरक माच्यो मग सोरा।-रघुराज (शब्द०)। ३. भेद । श्रतर । जैसे,—(क) इसमें और उसमे बढ़ा फरक है। (ख) घात में फरक न पड़ने पावे । (ग) उन्हें अपने और पराए का फरक नहीं मालूम है । ४. दुराव । परायापन । अन्यता। ५. कमी। कसर । जैसे,—(क) उसकी तोम में फरक नहीं है । (ख) घोड़े की असलियत में फरक मालूम होता है। फरकन-संज्ञा पुं० [हिं० फरकना] १. फड़कने का भाव । दे० 'फड़क' । उ.-मग फरकन पर प्रश्नई इत्यादिक अनुभाव । गवं प्रसूथा उग्नता तह संचारी नांव । -पाकर (शब्द०)। २. फरकने को किया । फहक । उ०-एरे वाम नैन मेरे एरे भुज वाम प्राज रौरे फरकन ते जो बालम निहारिही। -मतिराम (शब्द०) । फरकना-मि० अ० [सं० स्फुरण ] १. शरीर के किसी अवयव में अचानक फरफराहट या स्फुरण होना । फड़कना । उड़ना । फटफड़ाना । दे० 'फड़कना' । उ०-(क) मुनु मंथरा बात फुर तोरी । दहिन आँखि नित फरकति मोरी।-तुलसी (शब्द॰) । (ख) कुच भुज मघर नयन फरकत है बिनहिं बात चल ध्वज डोली। सोच निवारि करो मन पानंद मानों भाग्य दशा विधि सोली ।-सूर (शब्द॰) । (ग) सुमिरन ऐसा कीजिए दूजा लसे न कोय । मोठ न फरकत देखिए प्रेम राखिए गोय।-संतवाणी०, पृ. १०० । २. आपसे प्राप निकलना या बाहर पाना। स्फुरित होना । उमड़ना । उ०—(क) मोठी अनूठी कढे वतियाँ सुनि सौतिनि का छतियाँ दरकी पर । कोकिल कूकनि की का चली, कलहंसनहूँ के हिए घरको परें। प्यारी के मानन तेरो कड़े तेहि की उपमा द्विज को फरकी पर। धार सुघार सुधारस की सुमनों वसुधा ढरकी परं । -विज (शब्द०)। (ख) लरिवे को दोक भुजा, फरक प्रति सिहराय। कहत वात कासों लर, कापै प्रब चढ़ि जाय। - लल्लू (शब्द०)। ३. उड़ना। उ०-ध्वजा फरक्कै शून्य में बाजै अनहद तूर । तकिया है मैदान में पहुंचेगा कोई सूर । -कवीर (शब्द०)। फरकनारे-क्रि० प्र० [ अ० फ़रक (= अंतर)] १. अलग होना। दूर होना । २. फटकर पृथक् हो जाना । फरका'-सज्ञा पुं० [सं० फलक] १. छप्पर जो अलग छाकर बडेर पर चढ़ाया जाता है। उ०-ताको पूत कहावत हो जो चोरी करत उघारत फरफो। सूर श्याम कितनो तुम खेहो दघि माखन मेरे जहँ तह ढरको। २. बँडेर के एक ओर की छाजन । पल्ला । ३. प्रावरण। रोक । प्राच्छादन । उ०-सुदर जो विभचारिनी, फरका दीयो डारि । लाज सरम वाके नहीं, डोले घर घर बारि।-सुदर० ग०, भा० २, पृ० ६६२ । ४. टट्टर जो द्वार पर लगाया जाता है। फरकार-संज्ञा पुं० [अ० फ़िरका ] दे० 'फिर्का । HO