पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३१४

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बेदावा २५५३ बेनयाज वेदावा-वि० [फा० बेदावह ] अधिकारविहीन । दावा रहित । वेधर्म -वि० [सं० विधर्म ] जिसे अपने धर्म का ध्यान न हो। उ०-चल फहम की फोज दरोग को कोट ढहाई। वेदावा धर्म से गिरा हुआ । धर्मच्युत । तहसील सवुर कै तलब लगाई ।-लटू, वानी, पृ० ३३ । वेधा-वि० [सं० बेध ] १. जिसपर कोई जादू हो। जो प्राविष्ट वेदिमाग-वि० [फा० वेदिमाग ] १. नाराज । रुष्ट । अप्रसन्न । हो। २. विपत्तिग्रस्त । उ०-रावी, वाह कोई वेधा ही २. चिड़चिड़ा । नासमझ (को०] । होगा।-फिसाना०, भा० ३, पृ० ४७ । वेदियानत-वि० [फा० वे+प्र० दियानत ] निष्ठारहित । कर्तव्य बेधिया-ज्ञा पुं० [हिं० बेधना.] अंकुश। श्राकुस । उ०- शून्य । वेईमान [यो । केहरि लंक कुंभस्थल हिया । गीउ मयूर अलक बेधिया ।- वेदिरंग-क्रि० वि० [फा० बे+प्र० दिरंग] बिना विलंब किए। जायसी (शब्द०)। फौरन । तत्क्षण । तत्काल । उ०-छीन लेऊ जे कुछ अछे वेधीर-वि० [फा० बे+हिं० धीर ] जिसका धर्य टुट गया हो । सो वेदिरंग ।-दक्खिनी०, पृ० १७८ । अधीर । उ०-प्रघर निधि वेवीर करिके करत मानन हास । वेदिल-वि० [फा०] खिन्न । उदास । दुखी। वेमन । उ० फिरे भावरि सस्म भूषण अग्नि मानो भास।—सूर (शब्द०)। वेदिल के बहलाव भला दिल कैसे कर बहलाऊँ। वेनंग-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] छोटी जाति का एक प्रकार का पहाड़ी प्रेमघन०, भा० १, पृ० १६१ । बास। वेदिली-संज्ञा स्त्री० [फा० ] उदासी । खिन्नता । उ०-वह भी विशेष-यह प्रायः लता के समान होता है। इसकी टहनियों से ऐसी वेदिली और अनुत्साहित रीति से । -प्रेमघन॰, भा० २, लोग छप्परो की लकड़ियाँ प्रादि बांधते है । यह जयतिया पृ० २६६। पहाड़ी में होता है। वेदी-संज्ञा स्त्री० [सं० बंदी ] दे० 'वेदी' । उ-सरीर सरोवर वेनंगा-वि० [ फा०] लज्जारहित । वेशर्म । वेदी करिही ब्रह्मा वेद उचार ।-कबीर श०, पृ० ८० । वेना -संज्ञा पु० [म० वेण] १. वंशी । मुरली। बाँसुरी । २. संपेरों वेदी@२-वि० [सं० वेदिन ] वेद का ज्ञाता । वेदज्ञ । उ० --नादी के बजाने की तूमड़ी। महुवर । ३. बांस । उ०-केरा परै वेदी सबदी मौनी जम पर लिखाया।-कबीर ग्रं०, कपूर वेन तें लोचन व्याला । अहि मुख जहर समान उपल ते पृ० ३२४॥ लोह कराला ।-पलटू०, पृ०६६। ४. एक प्रकार का वृक्ष । बेदीदा-वि० [फा० बेदीदह, ] १. विना प्रांख का । बेमुरव्वत । २. उ०-बेन बेल पर तिमिस तमाला।-(शब्द०)। बेन' -संज्ञा पु० [सं० वचन, प्रा० वयण, वेन ] बैन । वाणो । वेदीन-वि० [फा० वे+प्र० दीन ] विधर्मी। धर्मभ्रष्ट । उ०- उ.-प्रग, अंग प्रानंद उमगि उफनत बेनन मांझ । सखी अगर किसी वेदीन बदमाश ने मार नही डाला है तो जरूर सोभ सब बसि भई मनों कि फूली साँझ ।-पृ० रा०, खोज निकालूगा । काया०, पृ० ३३५ । १४॥५५॥ वेदुवायु-वि० [सं० वेद ) वेद का जानकार । वेदज्ञ । उ०- बेन-संञ्चा पु० [० बेन ] एक प्रकार की झंडो जो जहाज के कहिं वेदुपा वेद बहु बाएव के कहि बाँह उठाए के पापु मस्तूल पर लगा दी जाती है और जिसके फहराने से यह पता ठाढ़ा ।- सत० दरिया, पृ० ६६ । चलता है । कि हवा किस रुख की है । (लश०) । वेधड़क'-कि० वि० [फा० वे+हिं० धड़क (= डर)] १. बिना किसी वेन -संज्ञा पुं॰ [अं० विंड ] हवा । वायु । (लश०)। प्रकार के संकोच के । निसंकोच । २. बिना किसी प्रकार के यौ०-बेनसेढ़। भय या आशंका के । बेखौफ । निडर होकर । ३. बिना किसी वेनचर -संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'विनौला' । प्रकार की रोक टोक के । बेरुकावट । ४. बिना पागा पीछा बेनकाब-वि० [फा० बे+अ० निकाब ] वेपर्द । बेशर्म । बेहया । किए। बिना कुछ सोचे समझे । २०-जहाँ औरतें बेनकाब हों, शराब पी जा रही हो। वेधड़कर-वि१. जिसे किसी प्रकार का संकोच या खटका न हो। -भस्मावृत, पृ०३६ । निद्वंद्व । २. जिसे किसी प्रकार का भय या प्राशंका न हो। बेनजीर-वि० [फा० वे+अ० नजीर ] जिसके समान और कोई न निडर । निर्भय । हो। जिसकी कोई समता न कर सके । अद्वितीय । अनुपम । वेधना-क्रि० स० [ स८ वेधन ] १. किसी नुकीली चीज की सहायता वेनट-संञ्चा स्त्री० [पं० वेयोनेट ] लोहे की वह छोटी किर्च जो से छेद करना । सूराख करना । छेदना । भेदना । जैसे, मोती सैनिकों की बंदूक के अगले सिरे पर लगी रहती है। बेषना। उ०-हरि सिद्धि हीरा भई बज्र न वेधा जाय । तहां गुरू गैल किया तब सिख सूत समाय । -रज्जब० बानी, वेनमक-वि० [फा०] १. बिना नमक का । अलोना। विना स्वाद पृ० ३ । २. शरीर मे क्षत करना । घाव करना । का। २. लावण्यरहित । असुदर (को॰) । बेधरम - वि० [हिं० वेधर्म ] दे० 'वेधर्म' बेनयाज-वि० [फा० पेनियाज़ ] [ संज्ञा स्त्री० बेनियामी ] जो निर्लज्ज । धृष्ट । संगीन ।