पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३२६

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वैगनी। बेहोश बैखरी रहित । बेफिक्र उ०-भले छकाए नैन ये रूप सबी के कैफ। देत तथा पिचनायक, व्रणकारक, पुष्टिजनक, भारी और हृदय न मृदु मुसक्यान की तजि आपै वेहैफ ।-रसनिधि (शब्द॰) । को हितकारक माना गया है । बेहोश-वि० [फा०] मूछित बेसुध । अचेत । पर्या-वार्ताकी । वृताक । मांसफला । वृत्तफला । बेहोशो-संज्ञा स्त्री० [फा०] बेहोश होने का भाव । मूर्छा । २. एक प्रकार का चावल जो कनारा पौर बंबई प्रांत में प्रचेतनता। होता है। बैंक'-संज्ञा पुं॰ [ देश०] कुलसूचक उपाधि । अल्ल । उ०-दूसर बैंगनी-वि० [हिं० बैंगन+ई (प्रत्य॰)] १. बैगन की बनी हुई वस्तु । २. बैगन के रग का। जो ललाई लिए नीले रंग का एक कस्बे का नाम था। जहाँ के पूर्व काल के वे रहनेवाले हो। बैजनी। थे। जिससे यह ब क उनका पड़ा। क्योकि बहुत से गोत वा यौ०-बैंगनीबूंद-एक प्रकार की छींट जिसमें सफेद जमीन वैक गांवो के नामो से भी होते है । वैसे ही यह भी हुप्रा ।- पर बैगनी रंग की छोटी छोटी बूटियाँ होती हैं । सुदर० प्र० (जी०), भा० १, पृ० ५। बैंजनी-वि० [हिं वैगनी ] जो ललाई लिए नीले रंग का हो । २-सज्ञा पुं० [पं०] वह स्थान या संस्था जहाँ लोग व्याज पाने की इच्छा से रुपया जमा करते हों और ऋण भी लेते बड़ना-क्रि० स० [हिं० बाढ़ा, बढ़ा ] दद करना। बेढ़ना। हों। रुपए के लेन देन की बड़ी कोठी । पशुओं को रोककर रखना। उ०-तू अलि कहा परयो यौ०-बैंक जमा। बैंक डिपाजिट । बैंक ड्राफ्ट । बैंक दर । है पैडे। ब्रज तू स्याम अजा भयो हमको यहऊ बचत न बैंक बैलेन्स । बैंक रेट । बैंडे ।-सूर०, १०१३६१५ । बैंकर-संज्ञा पुं० [पं० ] महाजन | साहूकार । कोठीवाला । बढ़ा-वि० [हिं० ] दे० 'वेडा' । ३०-मेढ़ा भंवर उछालन बैंड-संज्ञा पुं० [अ०] १. झुड । २. वाजा बजानेवालों का झुड चकरा समेट माला । बैडा भंभीर तखता कट्टे पछार गरी । जिसमें सब लोग मिलकर एक साथ बाजा बजाते हैं। -नजीर (शब्द०)। यौ०-बैंडमास्टर वैड का वह प्रधान जिसके संकेत के अनुसार बैत, बैता-सज्ञा पुं॰ [ वेतस् ] दे० 'वैत' । बाजा वजाया जाता है। बै-नंज्ञा स्त्री० [सं० वाय ] वैसर । कंघो । (जुलाहे) । बैंविक-स्त्री० पुं० [सं० वैम्बिक ] वह व्यक्ति या नायक जो प्रयत्न- बै-संज्ञा स्त्री० [सं० थय ] दे० 'वय' । पूर्वफ स्त्रियों के संपर्क में रहता हो या उन्हे प्यार करता यौ०-वैसंधि। हो को०] । बैं-सज्ञा स्त्री० [भ० ] रुपए पैसे प्रादि हे बदले में कोई वस्तु घगन-संज्ञा पुं० [सं० वृन्ताक ] १. एक वार्षिक पौधा जिसके दूसरे को इस प्रकार दे देना कि उसपर अपना कोई अधिकार फल की तरकारी बनाई जाती है। भंटा। उ०—गुरू शब्द न रह जाय। बेचना। विक्री। का बैंगन करिले तब बनिहै कुंजड़ाई। कबीर० ४०, क्रि० प्र०-करना ।—होना । -वैनामा। भा० ३, पृ०४८। विशेप-यह भटकटैया फी जाति का है और अबतक कहीं कहीं मुहा०-बै लेना या खरीदना=जमीन आदि बैनामा लिखाकर मोल लेना। जंगलों में प्रापसे आप उगा हुप्रा मिलता है जिसे 'बनभंटा' कहते है । जंगली रूप में इसके फल छोटे और कड़वे होते बैकना -क्रि० प्र० [हिं० घहकना ] अधिकार या सीमा से बाहर जाना। हैं। ग्राम्य रूप में इसकी दो मुख्य जातियाँ है। एफ वह जिसके पत्तों पर काँटे होते हैं। दूसरी वह जिसके पत्तों पर काटे नहीं बैकला-वि० [सं० विकल, मि० फ़ा० बेकल ] पागल । उन्मच । होते । इसके अतिरिक्त फल के प्राकार, छोटाई, बड़ाई और उ०-(क) कहुँ लतिकन महँ अरुझति अरुझी नेह । भह रंग के भेद से अनेक जातियां हैं । गोल फलवाले वैगन फो विहाल वैकल सी सुधि नहिं देह । -रघुराज (शब्द०)। मारुवा मानिक कहते हैं श्रीर लबोतरे फलवाले को वधिया । (ख) यतिपति पर पडित कुमति किय मारन अभिचार । ते बैकल बागल लगे विष्ठा यद्यपि इसके फल प्रायः ललाई लिए गहरे नीले रंग के होते हैं, करत प्रहार ।-रघुराज तथापि हरे और सफेद रंग के फल भी एक ही पेड़े में लगते शब्द०)। हैं। इसकी एक छोटी जाति भी होती है। इस पौधे की खेती वैकुठ-सज्ञा पुं० [ सं० वैकुण्ठ ] दे० 'वैकुंठ' । केवल मैदानों में होती है । पर्वतो की अधिक चाई पर बैकुंठी-त्री० स्रो० [हिं० बैंकुठ+ ई (प्रत्य॰)] प्ररथी जिसपर यह नहीं होता। इसके बीज पहले पनीरी में बोए जाते हैं; शव रखकर श्मशान को ले जाते हैं। उ०-सुदरदास जी जब पौधा कुछ बड़ा होता है, तब क्यारियो में हाथ हाथ भर की बैकुंठी (चकडोल ) बड़े ही सद्भाव से सजाई गई थी।- की दूरी पर रोपे जाते हैं। इसके बीज की पनीरी साल में सुंदर० प्र० ( जी०), भा० १, पृ० ११८ । तीन बार बोई जाती हैं; एक कार्तिक मे, दूसरी माघ में और बैखरी संज्ञा स्त्री० [सं० बैखरी] दे० 'वैखरी' । उ०-परा पसंती मधमा तीसरी जेठ अपाढ़ में । वैद्यक में यह कटु, मधुर और रुचिकारक चैखरी, चौवानी ना मानी ।-कवीर थ० भा०, पृ०, ३६ । यौ०- .