पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बोली ठोली मोहित निकला हुआ शब्द । मुह से निकली हुई आवाज । वाणी । मुहा-चोह लेना=बकी लेना। गोता लगाना। उ०-सप जैसे,—(क) बच्चे की बोली, चिड़िया की बोली। (ख) जलधि वपुप लेत मन गयंद वोहैं । -तुलसी (शब्द०)। वह ऐसा घबरा गया कि उसके मुह से बोली तक न निकली। बोह-क्रि० प्र० [ देश० ] जमना । उगना। उ०-जहाँ जल बिन क्रि० प्र०-घोलना। कवला वोह अनंत । जहाँ वपु विन भोरा गोह करत ।- दरिया. वानी, पृ० ४५ मुहा०- मीठी बोली = शब्द या वाक्य जिसका कथन प्रिय हो । वोहना-क्रि० स० [हिं० योह ] दे० 'बोना' । मधुर वचन । घोहनी-सशा नी [म. योधन ( = जगाना)] १. किमी सौदे २. अर्थयुक्त शब्द या वाक्य । वचन । बात । की पहली विक्री। उ०-है कोइ संत सुजान करे मोरी ३. नीलाम करनेवाले पौर लेनेवाले का जोर से दाम कहना। बोहनियां ।-रवीर श०, भा० ३, पृ० ४८ । २ किसी दिन ४. वह शब्दसमूह जिसका व्यवहार किसी प्रदेश के निवासी फी पहली विकी। उ० -(क) मारग जात गहि रह्यो री अपने भाव या विचार प्रकट करने के लिये संकेत रूप से करते मंचरा मेरो नाहिन देत हो चिना बोहनी । -हरिदास हैं । भाषा । जैसे,-वहाँ बिहारी नही बोली जाती, वहाँ की (शब्द. । (ख) पौरन छाडि परे हठ हममो दिन प्रति बोली उडिया है । ५. वह वाक्य जो उपहास या कूठ व्यग्य कलह करत गहि उगरो। बिन बोहनी ननक नहिं देहां के लिये कहा जाय । हंसी, दिल्लगी या ताना, ठठोली । ऐसे हि छीनि लेहु बरु सगगे।—सूर (पान्द०)। उ०-सासु ननद बोलिन्ह जिउ लेहीं।—जायसी (शब्द०)। विशेष-जबतक वोहनी नहीं हुई रहती तबतक दूकानदार कि० प्र०-बोलना-मारना।-सुनाना । किसी को उधार मौदा नहीं देते। उनका विश्वास है कि यौ-बोली ठोलो। पहली बिक्री यदि अच्छी होगी, तो दिन भर प्रच्छी होगी। मुहा०-बोली कसना, बोली छोड़ना, बोली बोलना या मारना= इस पहली विक्री का शकुन किसी समय सब देशो मे माना विसी को लक्ष्य करके उपहास या व्यंग्य के प्राब्द कहना । जाता था। जैसे,-अव प्राप भी मुझपर बोली बोलने लगे। घोहनी-संशा सी० [हिं० योह या योवा] बोने की क्रिया। बोना| वपन करना। घोली ठोली-सज्ञा स्त्री० [हिं० घोली + रिठोली] व्यंग्य । कटाक्ष । हंसी मजाक । उ०- बोली ठोली करै छिमा करि चुप मैं बोहरा-संशा पुं० [ सं० व्यापार ] व्यापार करनेवाली एक जाति । मारौं । भूकि भूकि फिरि जाय जुगत से उनको टारी।- उ०-पहली हम होते छोहरा । कोही वेच पेट निठि भरते पलटू०, पृ०६२। अब तो हूए बोहरा ।-सुदर० प्र०, भा० २. पृ० ६१४ । क्रि० प्र०-करना ।-मारना। विशेष-'राजपुताना का इतिहास', पृ० १४२१ में लिखा है बोलीदार-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० बोली + फा० दार ] वह असामी जिसे कि 'कई माहाणों ने व्योपार और शिल्पकारी का कार्य जोतने के लिये खेत यों ही जबानी कहकर दिया जाय, कोई करना प्रारंभ किया और जब पेशों के अनुसार जातिया लिखा पढ़ी न हो। बनने लगी तव शिल्प का कार्य करनेवाले ग्राह्मण 'खाती' और व्यापार करनेवाले पाहाण 'बोहरा' कहलाने लगे। बोल्लाह-संज्ञा पुं० [ देश० ] घोड़ों की एक जाति । वोहला-क्रि० प्र० [हिं० योह = (गोता) अथवा राज० वहला, बोवना-क्रि० स० [सं० वपन, प्रा० बवण ] दे० 'बोना'। पाहला] पहनेवाली अर्थात् नदी। उ०-लड़ जुड़ खग्गा बोवाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'चोप्राई'। बोहले मुरड़ चले राठौड़ ।-रा० रू०, पृ० १६२ । बोवाना-क्रि० स० [हिं० योना का प्रेरणाप ] थोने का काम दुसरे बोहारनहार-वि० [हिं० वोहरना + हार ( प्रत्य॰)] बुहारने- से कराना। वाला । सफाई करनेवाला । उ०—ते वृषभानु भुपाल के द्वार वोहारनहार । -नंद००, पृ० ७८ । घोसता-संज्ञा पुं॰ [फा०] बाग। बाटिका । उपवन । उ० -- सुनि बोहारना -क्रि० स० [हिं० ] दे० 'बुहारना' । उ०-बगर बुलबुल बोसता होति जिहि दंग ।-प्रेमघन॰, भा॰ १, बोहारति अष्ट महासिधि द्वारे सथिया पूरति नौ निधि । पृ०७४। -नंद० ग्रं॰, पृ०३३१ । बोसा-सज्ञा पुं० [ फ़ा० बोसह ] चुवन । उ०-हात उसका पकड़ बोहारो-तशा सी० [ देशी या हिं० बोहारना ] झाडू । मानी । जबीं के ऊपर, बोसा दे बिठाता उसकू सर पर ।-दक्खिनी०, पृ० २२८। वोहां-संज्ञा स्त्री० [फा० घोय ] सुगंध । उ०—चग्गी राग खंभायची, बोहित-संज्ञा पुं० [सं० वोहित्य, प्रा० योहित्य ] नाव । जहाज । उ०—(क) बोहित भरी चला ले रानी। दान मांग सत लग्गी केसर बोह।-रा. रू०, पृ० ३४७ । देखी दानी ।-जायसी (शब्द०)। (ख) बंदी चारिउ बेद योह २--सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० बोर या सं० वाह ] डबकी । गोता। भव बारिघि बोहित सरिस ।-तुलसी (शब्द०)। वर्घनी।