पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३४२

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पृ० ३४। बौरई ध्यवहारिया चौरई-संवा सी० [हिं० बौरा ] पागलपन । सनक । उ०-बात हुई प्रीषम बौलाई। उपर धुर बरखा रुत बौरना-क्रि० प्र० [हिं० चौर+ना (प्रत्य॰)] पाम के पेड़ में प्राई।-रा. रू०, पृ० २३४ । मंजरी निकलना । पाम का फूलना । मौरना । उ०—(क) बौहा-वि० [सं० बहु ] बहुत । उ०—जोवन में मर जावणो दल डहहही बौरी मंजु डारै सहकारन की, चह चही चुहिल चहूँ खल साजे दाप। एह उचित बौह श्रावखौ, सिंहाँ बड़ी कित मलीन की।-रसखानि (शब्द०) । (ख) दूजे करि डारी सराप ।-बांकी० ग्रं०, भा० १, पृ०३५ । खरी वीरी बौरे प्राम।-बिहारी (शब्द०)। बौहर- धौरहा-वि० [हिं० चौरा+हा (प्रत्य॰)] पागल । विक्षिप्त । र-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० वधूवर, हिं० बहुवर] वधू । दुलहिन । पत्नी । चौरा-वि० [सं० वातुल, प्रा० बाछड़. हिं० बाउर [खी० बौरी ] चौहला-वि० [सं० बहुल ] अधिक । बहुत । उ०-चौहला पाटा १. बावला । पागल । विक्षिप्त । सनकी। सिड़ी। जिसका बाँध, माछो होसी माघ । बाँकी० मं०, भा० १, मस्तिष्क ठीक न हो। उ०-मोर बौरा देखल केहू दहह जात ।-विद्यापति, पृ. ३६७) २ भोला । प्रज्ञान । बौहलिया -संज्ञा पु० [हिं० यहल ] छोटी उम्र के बैल । छोटे बैल । नादान । मूर्ख । 30-(क) हो ही बौरी विरह बस के बोरो उ०-वोहलिया बिरदावियाँ, गरज सरै नह तार ।- सव गाउँ ।-विहारी (शब्द०) । (ख) ही बोरी ढूढ़न गई बाँकी० , भा० १, पृ० ४० । रही किनारे बैठ। कबीर (शब्द०)। ३. गूगा । मूक । चौहौटिया-संज्ञा स्त्री॰ [ स० वधू ] वधू । बहू । बबूटी । उ०- बौराई-संज्ञा लो[ हिं० यौरा + ई (प्रत्य॰)] पागलपन । गैल में टटवारी मिल्यौ। बोल्यो-के कोऐ, रामपरसादुका उ०-सुनह नाय मन जरत त्रिविध ज्वर करत फिरत सी बोहोटिया।-पोद्दार अभि० ग्रं॰, पृ० १००८ । वोराई । -तुलसी (शब्द॰) । व्यंग-संज्ञा पु० [सं० व्यङग्य ] दे० 'व्यंग्य' । बौराई-वि० स्त्री० [हिं० पौराना ] बौर से भरी हुई । मंजरियों से व्यंगि-संज्ञा पुं० [ स० व्यङ्गय ] दे० 'व्यंग' । उ०-प्रीतम कौं पूर्ण। जब सागस लहै । व्यगि अध्यंगि वचन कछु कहै ।-नंद० प्र०, धौराना" -क्रि० स० [हिं० चौरा+ना (प्रत्य॰)] १. पागल हो पृ० १४७। जाना । सनक जाना । विक्षिप्त हो जाना। उ०-कनक कनक तें सौगुनी मादकता अधिकाइ । उहि खाए वौराइ नर इहि व्यंजन-सञ्ज्ञा पु० [सं० व्यञ्जन ] दे० 'व्यजन'। उ०-पेम सुरत की करी रसोई, व्यजन पासन लाइय।-घरम० १०, पृ० ५५ । पाए बौराइ।-विहारी र०, दो० १९२ । २. उन्मच हो जाना । विवेक या बुदिध से रहित हो जाना । उ०-भरतहि व्यक्ति-संज्ञा स्त्री०, पुं० [ सं० व्यक्ति ] दे० 'व्यक्ति । दोष देइ को जाए। जग बोराइ राजपद पाए । तुलसी ब्यजना-संज्ञा पुं० [सं० ध्यजन ] दे० 'व्यजन' । (शब्द०)। व्यतीतना-क्रि० स० [सं० व्यतीत+हिं० ना (प्रत्य॰)] गुजर बौराना-क्रि० स० बेवकूफ बनाना। किसी को ऐसा कर देना कि 'जाना। व्यतीत हो जाना। बीत जाना। उ०-(क) जबै वह भला बुरा न विचार सके | मति फेरना । उ०—(क) दिवस दस पांच व्यतीते ।- रघुराज (शब्द०)। (ख) एक मथत सिंधु रुद्रहि पौरायो। सुरन प्रेरि विषपान करायो ।- समय दिन सात व्यतीते ।-रघुराज (शब्द॰) । (ग) साधु तुलसी (शब्द॰) । (ख ) भल भूलिह ठग के बौराए।- प्रीतिबस मैं नहिं गयऊ। पहरा काल व्यतीतत भयऊ।- तुलसी (शब्द०)। रघुराज (शब्द०)। पौराह+-वि० [हिं० धौरा ] १. बावला । पागल । सनकी । व्यथा-संज्ञा स्त्री० [सं० व्यथा ] दे० 'व्यथा । उ०-बर बौराह वरद असवारा ।—तुलसी (शब्द०)। २. व्यथित-वि० [सं० व्यथित ] दे० 'व्यथित' । नासमझा व्यलीक-वि० [सं० व्यलोक ] दे० 'व्यलीक' । पौरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बौरा ] बावली स्त्री । दे० 'बोरा'। ब्यवरनाtg-क्रि० स० [सं० विवरण>हिं० व्योरना] अलग बौलड़ा-संज्ञा पुं० [हिं० बहु+नड़ ] सिकड़ी के प्राकार का सिर अलग करना। विवृत करना। उ०-जैसे मधुमक्षिका पर पहनने का एक गहना । सुवास कौं भ्रमर लेत तैसे ही व्यवरि करि भिन्न भिन्न बौलसिरी-संज्ञा स्त्री० [सं० चकुलश्री ] बकुल । मौलसिरी । उ०- कीजिए।-सुदर , भा॰ २, पृ० ४६६ । अपने कर गुहि आपु हठि पहिराई गर लाल | नौल सिरी व्यवसाय-संज्ञा पुं० [सं० व्यवसाय ] दे० 'व्यवसाय' । औरे चढ़ा बौलसिरी की माल ।-विहारी (शब्द०)। चौलाल-वि० [देश॰] बावला ! उ० तेरे जो न लेखो मोहि व्यवहरा-संवा पुं० [सं० व्यवहार ] उधार । कर्ज । व्यवस्था-सज्ञा स्त्री० [सं० व्यवस्था] दे० 'व्यवस्था'। मारत परेखो महा जान धन पानंद पेषोइ बोलहल हैं।- घनानंद, पृ० ५४॥ क्रि० प्र०-देना। धौलाना-कि० अ० [सं० ज्यावर्तन ] बीतना । माप्त होना। व्यवहरिया-संञ्चा पुं० [हिं० व्यवहार ] व्यवहार या लेन देन करने-