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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३४६

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व्यौहर ब्रह्म 1 उ०- उ०-पाप पुन्य का व्यौरा मांगे । कागद निकसै तेरे आगे -सुदर , भा० १, पृ. ३३५ । व्यौहर-संशा पुं० [हिं० ] दे० 'व्योहार' । व्यौहरिया-सज्ञा पु० [हिं० ] दे० 'ब्योहरिया' । उ०प्रय धानिय ब्यौहरिया बोली । तुरत देऊ मैं थैली खोली।-तुलसी (शब्द०)। न्यौहार-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'व्योहार'। उ०-जेहि व्यौहरिया कर व्योहारू । फा लेइ देव जो छेकहि वारू।-जायसी (शब्द॰) । व्यौहारी-संज्ञा पुं० [हिं० व्योहारी ] दे० 'योहरिया' । उ०-ये तो गुरू जगत व्यौहारी। इनसे मुक्ति न होइ विचारी ।- घट०, पृ० २५२ । ब्रद-संज्ञा पुं० [सं० वृन्द ] वृद । समूह । ब०-बने बंद पथ्र्य, पथे पथ्थ हथ्यं ।-पृ० रा०, २१४४१ । बंदावन-संज्ञा पु० [सं० वृन्दावन ] दे० 'वृदावन' । वदावन वैसाख पर, सोहे जान ससोह ।-रा० रू०, पृ०३४७॥ व्रज-पञ्चा पु० [सं० व्रज ] दे० 'ब्रज' । यौ०-प्रजनाथ । ब्रजभापा । ब्रजमंडल । ब्रजराज । ब्रजलाल- दे० 'व्रज' शब्द के क्रम में। ब्रजगाम-संज्ञा पुं० [सं० ब्रज + ग्राम ] ब्रज । उ०र कियो सिगरे ब्रजगाम सौ, जाके लिये कुलकानि गंवाई।-मति. ग्रं०, पृ० ३००। ब्रजघीसg+-संज्ञा पुं० [सं० व्रज + अधीश ] ब्रज के राजा। ब्रजराज । उ०-जो कछु लघुता करत हो सो असीम है ईस । फिरि यह मों पायन परन प्रति अनुचित ब्रजधीस ।- मोहन०, पृ० ५६ ॥ ब्रजना-क्रि० प्र० [सं० वजन ] जाना । चलना । गमन करना । उ०—(क) व्रजति ब्रजेस के निवेस 'भुवनेस' बेस, चक्षुकृत चकृत विवकृत भृकुटि बंक ।-भुवनेश ( शब्द०)। (ख) अब न वजहु व्रज में व्रज प्यारे ।-रघुराज (शब्द०)। (ग) पोड़स कला कृष्ण सुखसारा । द्वादश कला राम अवतारा। षोडस तजि द्वादश फस भजहू । समाधान करु नहिं घर बहू ।-रघुराज (शब्द०) ब्रजवादनी-संज्ञा स्त्री० [सं० व्रज + बादनी ? ] एक प्रकार का आम जिसका पेड़ लता के रूप का होता है। इसे राजवल्ली भी कहते हैं। ब्रजवासी-वि०, सज्ञा पुं० [स० ब्रज + वासिन् ] [स्त्री० ब्रज. वासिनी] ब्रज ग्राम का निवासी। उ०-ऐसे कहिके वा प्रजवासिनी ने श्रीगोवर्धननाथ जी को सुद्घ भाव सो वाहोत ही प्रार्थना करिकै दंडवत करि कही।-दो सौ वावन०, भा॰ २, पृ० ३ । ब्रजवूली-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० ब्रज+ वंग०. बुलि ( = घोली, भाषा)] ब्रज की बोली। उ०—यह इसी से जाना जा सकता है कि वहीं ब्रजवूली का अलग साहित्य ही बन गया है ।-पोद्दार० अभि० ग्रं॰, पृ० ८७ । वन-सज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. वृक्षमूल । ३. अकं । प्राक का पौधा । ४. शिव । ५. दिन । ६. घोड़ा। ७. मार्कंडेय पुराण के अनुसार चौदहवें मनु भौत्य के पुत्र का नाम । ८. एक रोग | ६. ब्रह्मा (को०)। १०. सीसा धातु (को०) । ११. तीर या वाण का नुकीला अगला हिस्सा (को॰) । बन्न-संज्ञा पुं० [सं० वर्ण, प्रा० बन्न] दे॰ 'वर्ण' । उ०-विय वन्न उप्पम देखि | कचन कसोटिय रेखि ।--पृ० रा०, २३१० । बननाg+-क्रि० स० [सं० वर्णन; प्रा० अन्नन] वर्णन करना । बरनना । उ०—(क) कान घरी रसना सरस ब्रन्नि दिखा तोहि ।-पृ० रा०, १७८३ । (ख) तिन कहों नाम परिमान अन्न । जिन सुनत सुद्घ भव होत तन्न । -पृ० रा०, १॥३१॥ व्रम्मा-संज्ञा पु० [सं० ब्रहान्, प्रा० बंभ, सम्ह ] दे॰ 'ब्रह्मा' । उ०-वैरांगर हीरा हुए कुलवंतिया सपूत । सीपै मोती नीपजै सब ब्रम्गा रा सून ।-बाँकी नं०, भा॰ २, पृ०६६। व्रष-सहा पुं० [सं० वर्ष, प्रा० अप्प ] वर्ष । बरिष । उ०-घरी दोह पल पप्प मास लप्पिय ग्रप तासह । -पृ० रा०, १७१७ । ब्रह्म-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ब्रह्म] १. ईश्वर । परमात्मा । उ०-ज दिन जनम प्रथिराज भी त दिन भार धर उत्तरिय । वतरीय घंस असन ब्रहम रही जुगें जुग बत्तरिय । -पृ० रा०, १६८८। २. द्विज । ब्राह्मण । उ०-जग लोकवाण सीखे जवन, पढे ब्रहम मुख पारसी। हित देव सेव प्राधा हुमा, काई लग्गां पारसी।-रा० रू०, पृ० २२ । ब्रह्मड-संा पुं० [सं० ब्रह्माण्ड, प्रा० ब्रम्हंढ] दे॰ 'ब्रह्मांड' । उ०- धनुमंग को शब्द गयो भेदि ब्रह्मड को ।-केशव (शब्द०)। ब्रह्म-संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मन् ] १. एक मात्र नित्य चेतन सत्ता जो जगत् का कारण है। सत्, चित, श्रानंद स्वरूप तत्व जिसके अतिरिक्त और जो कुछ प्रतीत होता है, सब असत्य पौर मिथ्या है। विशेष-ब्रह्म जगत् का कारण है, यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण प्रह्म सच्चिदानद प्रखंड नित्य निर्गुण अद्वितीय इत्यादि है ।, यह उसका स्वरूपलक्षण है। जगत् का कारण होने पर भी जेसो कि सांख्य की प्रकृति या वैशेषिक का परमाणु है. उस प्रकार ब्रह्म परिणामी या प्रारंभक नहीं। वह जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान-विवति कारण है, जैसे मकड़ी, जो जाले का निमित्त और उपादान दोनों कही जा सकती है। सारांश यह कि जगत् ब्रह्म का परिणाम या विकार नहीं है, विवर्त है। किसी वस्तु का कुछ और हो जाना विकार या परिणाम है । उसका और कुछ प्रतीत होना विवर्त है। जैसे, दूध का दही हो जाना विकार