पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३५४

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ब्राही ब्राह्मणक । जाते हैं। चाहिए। ऋत का अर्थ है भूमि पर पड़े हुए अनाज के दानों ( महाभारत )। ५. एक प्रकार की छिपकली। मनी को चुनना (उंछ वृत्ति) या छोड़ो हुई वालो से दाने झाड़ना (को०) । ६. एक प्रकार की मक्खी या भिड़ (को०) । ७. पीतल (शिलवृत्ति )। बिना मांगे जो कुछ मिल जाय उसे ले लेना का एफ भेद (को०)। अमृत वृत्ति है; भिक्षा मांगने का नाम है मृतवृत्ति ! ब्राह्मणेष्ट-सज्ञा पुं० [स० ] शहतूत का वृक्ष या फल (को०] । कृपि 'प्रमृत' वृत्ति है और वाणिज्य 'सत्यानृत वृत्ति' है । ब्राह्मण्य-संज्ञा पु० [सं०] १. ब्राह्मण का धर्म या गुण | ब्राह्मणत्व । इन्हीं वृत्तियों के अनुमार ब्राह्मण चार प्रकार के कहे गए २. ब्राह्मणो का समूह । ३ शनि ग्रह । हैं-शूलधाग्यक, कुंभीधान्यरु, यहिक और प्रश्वस्तनिक । ब्राह्मपिगा-संज्ञा स्त्री० [सं० ब्राह्मपिङ्गा] रजत । चाँदी [को०] । जो तीन वष तक के लिये अन्नादि सामग्री संचित कर रखे उसे कुशूलधान्यक, जो एक वर्ष के लिये सचित करे उसे ब्राह्ममुहूर्त-संज्ञा पुं० [सं० ] रात्रि के पिछले पहर के अंतिम दो दंड । सुर्योदय के पहले दो घडी तक का समय । कुंभीधान्यक, जो तीन दिन के लिये रखे, उसे यहिक और जो नित्य संग्रह करे घोर नित्य खाय उसे अश्वस्तनिक कहते ब्राह्मसमाज-संज्ञा पुं० [सं० ब्राहा + समाज ] बंग देश में प्रवर्तित हैं । चारो में अश्वस्तनिक श्रेष्ठ है। एक नया संप्रदाय जिसमे एक मात्र ब्रह्म की ही उपासना की जाती है। आदिम काल में मत्रकार या वेदपाठी ऋपि ही ब्राह्मण कहलाते थे। ब्राह्मण का परिचय उपके वेद, गोत्र और प्रवर से विशेष--प्रंगरेजी राज्य के प्रारंभ मे जब ईसाई उपदेशक एक ही होता था। सहिता मे जो ऋषि पाए हैं, श्रोत ग्रंथो मे ईश्वर की उपासना के उपदेश द्वारा नवशिक्षितों को पाकर्षित उन्ही के नाम पर गोत्र कहे गए हैं। थोत प्रयो में प्रायः कर रहे थे, उस समय राजा राममोहन राय ने उपनिषद् में सौ गोत्र गिनाए गए हैं। प्रतिपादित अद्वैत ब्रह्म की उपासना पर जोर दिया जिससे पर्या-द्विज । द्विजाति । श्रग्रजन्मा । भूदेव । बाडव । विप्र । बहुत से हिंदू ईसाई न होकर उनके संप्रदाय में पा गए। इसे सूत्रकंठ । ज्येष्ठवर्ण । द्विजन्मा | वक्तज। मैत्र । वेदवास । 'ब्राह्मधर्म' भी कहते हैं। इसका उपासनास्थल 'ब्राह्ममदिर' कहा जाता है और इस मत में दीक्षित 'ब्राह्मसमाजी' कहे नय । गुरु । षटकर्मा। ३. वेद का वह भाग जो मंत्र नहीं कहलाता । वेद का मंत्राति- ब्राह्मिका-सज्ञा स्त्री० [सं०] ब्रह्मयष्टिका । भारंगी। रिक्त अंश । ४. विष्णु । ५. शिव । ६. अग्नि । ७. पुरोहित । ८. अठ्ठाईसा नक्षत्र । अभिजित् (को०)। ६. ब्राह्म समाज के ब्राह्मी-संज्ञा पुं॰ [ सं०] १. दुर्गा । २. शिव की अष्ट मातृकाओं में लिये प्रयुक्त संक्षिप्त रूप। से एक । ३. रोहिणी नक्षत्र (क्योंकि उसके अधिष्ठाता देवता ब्राह्मणक-संज्ञा पुं॰ [सं०] हीन ब्राह्मण । निंद्य ब्राह्मण । ब्रह्मा हैं)। ४. भारतवर्ष की वह प्राचीन लिपि जिससे ब्राह्मणत्व-तज्ञा पुं० [सं० ] ब्राह्मण का भाव, अधिकार या धर्म । नागरी, बैंगला प्रादि प्राधुनिक लिपियां निकली हैं । हिंदुस्तान की एक प्रकार की पुरानी लिखावट या अक्षर । व्राह्मणपन। ब्राह्मणप्रिय-सज्ञा पु० [सं०] ब्राह्मणो को प्रिय अथवा जिसे ब्राह्मण विशेष—यह लिपि उसी प्रकार वाई पोर से दाहिनी पोर को लिखी प्रिय हो अर्थात् विष्णु को०] । जाती थी जैसे, उनसे निकली हुई अाजकल की लिपियो । ब्राह्मणब्रुव-संज्ञा पुं० [सं०] केवल कहने भर को ब्राह्मण । कर्म ललितविस्तर में लिपियों के जो नाम गिनाए गए हैं, उनमें और संस्कार से हीन ब्राह्मण । 'ब्रह्मलिपि' का नाम भी मिला है। इस लिपि का सबसे ब्राह्मणभोजन-संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मणों का भोजन । ब्राह्मणों को पुराना रूप अशोक के शिलालेखों में ही मिला है । पाश्चात्य खिलाना। विद्वान् कहते हैं कि भारतवासियों ने अक्षर लिखना विदेशियों से सीखा और ब्राह्मी लिपि भी उसी प्रकार प्राचीन फिनी- ब्राह्मण्यष्टिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी । भाीं। शियन लिपि से ली गई जिस प्रकार अरबी, यूनानी, रोमन ब्राह्मणसंतपण-तज्ञा पुं॰ [स० ब्राह्मणसन्तर्पण] ब्राह्मण को खिला- प्रादि लिपियो। पर कई देशी विद्वानों ने सप्रमाण यह सिद्ध पिलाकर सतुष्ट करना । किया है कि ब्राह्मी लिपि का विकास भारत में स्वतंत्र रीति ब्राह्मणाच्छंसी-तज्ञा पु० [सं०] सोमयाग में ब्रह्मा का सहकारी से हुआ । दे० 'नागरी। एक ऋत्विक (ऐतरेय ब्राह्मण ) । ५. सरस्वती। वाणी (को०) । ६. कथन | वक्तव्य । उक्ति (को०)। ब्राह्मणातिक्रम-संज्ञा पुं० [मं० ] ब्राह्मण का अनादर [को०] । ७. एक प्रकार का पीतल (को०)। ८. एक नदी (को०)। ६. ब्राह्मणायन-संज्ञा पुं० [स०] वह ब्राह्मण जो शिक्षित एवं धार्मिक ब्राह्म विवाह के विधान से विवाहिता स्त्री (को०)। १०. ब्राह्मणकुलोत्पन्न हो [को०] । प्रोषध के काम में प्रानेवाली एक प्रसिद्ध वूटी। ब्राह्मणिक-वि० [सं०] ब्राह्मण संबंधी को०)। विशेष—यह बूटी छत्ते की तरह जमीन में फैलती है। ऊँची नहीं ब्राह्मणी-संज्ञा स्त्री॰ [ सं०] १. ब्राह्मण जाति की स्त्री। २. ब्राह्मण होती। इसकी पत्तियां छोटी छोटी और गोल होती हैं और की पत्नी या स्त्री । ३. बुद्धि । (महाभारत)। ४. एक तीर्थ एक ओर खिली सी होती है । इसके दो भेद होते है। जिसे ७-४३