पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३५८

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भंडारा ७ भभरालिका अन्नादि रखने का स्थान । कोठा । ३. वह स्थान जहा भंडिल'-संशा पुं० [ 10 भण्डिल ] १. सिरस का पेड । २. दूत । व्यंजन पकाकर रखे जाते हैं। पावणाला | भहारा । 30- ३. गिल्ली। ४. प्रसन्नता । ५. भाग्य । किस्मत । कवीर जैनी के हिये दिल्ली को इतबार । साधन व्यंजन भंडिल-वि० प्रच्छा | शुभ । मोक्ष हित सोपेउ तेहिं भडार |--कवीर (शब्द०)। १. पेट । भंडी'-संशा री० [सं० भण्डी ] ३० भंडि' । उदर । ५. अग्निकोण । ६.देभंडारा। भंटी२--संज्ञा पुं० [सं० भण्ड ] भाट । मागध । स्तुतिपाठक । उ०- यौ०-भंडारघर = (१) कोप । खजाना। (२) कोठार । फवि एक भही मिटिभी प्रमानं । किते तार कगार विधा (३) पाठशाला । सुजान ।-पृ० रा०, १६२ । भंडारा-संज्ञा पुं० [हिं० भंडार] १. दे० 'भंडार' । २. समूह । अँड । भंडीतको-संशा सौ. [ स० भण्डीतकी ] मजीठ । क्रि० प्र०-जुदना वा जुटना ।-जोड़ना । भंडीर-संज्ञा पुं॰ [स०] १. चीलाई । २. सिरसा । ३. घट । बरगद । ३. साधुनों का भोज । वह भोज जिसमें संन्यासी और साधु ४. भंडांड। ५. भाडीर वन । बरगद का वन । उ०- प्रादि खिलाए जाते है। उ०—विजय कियो भरि पानंद घट भंडीर निवास नित, राधारसिक प्रसंस।-घनानंद, भारा । होय नाथ इत ही भंडारा ।-रघुराज (पाब्द०)। पृ० २६८। क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—होना ।-जुड़ना ।-खाना । भंडोरलतिका-सा स्वी० [ स० मण्डीग्लतिका ] मजीठ । ४. पेट । उ०-उक्त पुरुष ने अपने स्थान से उचककर चाहा भंडोरी-सज्ञा स्त्री॰ [ स० भएदीरी ] मजिष्ठा । मजीठ । कि एफ हाथ कटार का ऐसा लगाए कि भंडारा खुल जाय, भंडोल-संज्ञा पुं॰ [ स० भण्डील ] मंजिष्ठा । भडीरी (को०)। पर पषिक ने झपटकर उसके हाथ से कटार छीन लिया ।- भंडुक, भंडूक-संज्ञा पुं॰ [स" मण्डुक, भण्डूक ] १. माकुर नामक अयोध्यासिंह (शब्द०)। मछली । २. श्योनाक । मुहा०-भंडारा खुल जाना= पेट फटने से प्रांतों का निकल भंडेरिया -संज्ञा पुं० [हिं०] 20 'मंडरिया'। पड़ना । उ०-और वाक बनौट से वाकिफ न होते तो भंडाग खुल जाता ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १३६ । भंडेरियापन-संज्ञा पु० [हिं० भंडेरिया + पन (प्रत्य॰)] १. ढोंग । मक्कारी । २. चालाकी। भंडारी'-संज्ञा स्त्री० [हिं० भंडार + ई (प्रत्य॰)] १. छोटी कोठरी । भंता-संज्ञा स्त्री० [सं० भक्ति प्रा० भत्ति; अप० भंति, भंत ] २० २. कोश । खजाना । ३. दीवाल में बनी हुई छोटी पलमारी । 'भांति' । उ०-ढाढ़ी रात्यू प्रोलग्या गाया वह बहु भंत - भंडरिया। ढोला०, दू० १८६ । (ख) जाके ऐसे लोक धनता, रचि राखे भंडारी-संज्ञा पुं० [हिं० भंढार+ई (प्रत्य०)] १. खजानची। विधि बहु भता ।-दादू०, पृ० ५८४ । कोषाध्यक्ष। २. तोशाखाने का दारोगा। भंडारे का प्रधान भंति-नाम्नी० [हिं० भाँति ] दे० 'भांति' । उ०-जुरे बर धीर अध्यक्ष । ३. रसोइया । रसोईदार । दसों दिसि पति। मनो धन भद्दय बनि भति ।-पृ० रा० भंडारी-संज्ञा पुं० [?] जैनियों की एक शाखा । उ०-भडारी १२।३३४ । प्राया परव, रायाचंद सहासा-रा०९०, पृ० २२० । भंते-शा पु० [हिं०] बौद्धों द्वारा प्रयुक्त प्रादरमूचा भाब्द । भंडासुर-सज्ञा पुं॰ [ ? ] पाखंडी राक्षस । उ०- चमुड जे चंड उ.-परतु पाप मंते, यहाँ उस मुरक्षित कोप्ट में विना मुट भडासुर खंडिनि ।-भूषण ०, पृ० ३ । अनुमति प्रा कैसे पहुंचे |-वैशाली०, पृ० ११४ । भंडि-संशा सी० [सं० भण्डि ] १. तरंग। लहर | वीचि । २. भंद-संज्ञा पुं॰ [स० भन्द ] १. प्रसन्नता। पुणी । २. अभ्युदय । मजीठ । मंजिष्ठा। सौभाग्य [को०। भंडिर-संज्ञा पुं० सिरिस का वृक्ष [को॰] । भंदिल-गा पुं० [सं० भन्दिल ] १. अभ्युदय । भाग्य । २. दूत । भंडिका-संशा सी० [सं० भण्डिका ] मंजिष्ठा । मजीठ [को०] । संदेशवाहा । ३. नंचल गति । स्सलिरा गति [0] भंडित'-संज्ञा पुं० [स० भण्डित ] एक गोत्रकार ऋपि का नाम । भंभ-सया पुं० [सं० भन्भ] १. भ्रमर । मक्षिका । २. पून। घुमा। भंडित--वि० [सं०] १. तिरस्कृत । तिरस्करणीय । २. भंड़ती ३. चूल्हे का मुह [ो। करनेवाला । भीड़। उ०-पंडित भडित पर कतवारी, भंभर-समा पु० [ स० अमर ] वितुन । चंचल । उरत । पलटी सभा विकलता नारी। अपढ़ विपर जोगी घरवारी, यो०-भभरनैनी = चंचल नेत्रवाली। अगभंगर = भ्रम रो नाथ कहे रे पूता इनका संग निवारी ।-गोर- चंनल उ०-यावधिय इक बधिय एगिय भ्रममंगर । पृ० २६१। -प०रा० (30), ५०१०३ । भंडिमा-संशा सी० [सं० भण्डिमन् ] छल । धोखा। भंसिर-संग पुं० [सं०] सिरसा । शिर