पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३८९

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सवंता भवनपति भवंताg+-वि० [स० भ्रमण, हिं• भवना, भवाना ] घूमता हुआ । भवचित्त बत्त मिट्टै न को ऋत्त शम्भ नह जानयो।-पृ० इधर उवर प्राता जाता हुया। उ०-भउर भवंता भलिए रा०, ३।२। भरम भुला उद्यान |-प्राण, पृ० १०५ । भवजल-संज्ञा पु० [सं०] संसाररूपी समुद्र । भवसमुद्र । भक्-संज्ञा स्त्री० [हिं० भौं] दे० भौहे'। भवत् -सञ्ज्ञा पु० [स० ] १. भूमि । जमीन । २. विष्णु । भवर-संज्ञा पु० [ स० भ्रमर ] ३० "भंवर'। भवत्- २-वि० मान्य । पूज्य। भवरफली-ज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'भंवरकली' । भवतव्यता-सञ्ज्ञा स्रो• [ स० भवितव्यता ] दे० भवितव्यता' । भवरी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० भ्रमरी ] दे० 'भवरी' । उ.-भली बुरी ब्रिमित कळू मेटि न सक्कै कोइ । याही ते भवलिया-सज्ञा दी [हिं० भंवर+इया (प्रत्य॰)] एक प्रकार को भवतव्यता कहत सयाने लोइ ।-पृ० रा०, ६ २७ । नाव जो बजरे की तरह फी, पर उससे कुछ छोटी होती है । भवतारन-वि॰ [ स० भव+तारण ] संसाररूपी समुद्र से तारने- इसमें भी बजरे की तरह ऊपर छत पटी होती है। भौलिया । वाला। उ०-यह भवतारन ग्रंथ है, सत गुरु को उपदेश ।-कबीर सा०, पृ० ८५७ । भव'-सज्ञा पु० [म०] १. उत्पत्ति । जन्म । २. शिव । उ०- भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ।-मानस, भवती-सशा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का जहरीला वाण । २. श१० । ३. मेघ । नादल । ४. कुशल । ५. ससार । जगत् । श्रीमती । प्रादरणीय महिला । भवत् का स्त्री रूप (को०) । ६. सत्ता। ७. प्राप्ति । ८. कारण । हेतु। ६. कामदेव । ३. चमक । दीप्ति (को०)। १०. संसार का दु ख । जन्म मरण का दुःख । उ०-कमला भवदा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स०] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका कमल नयन मकराकृत कुडल देखत ही भव भाग।-सूर का नाम। (शब्द०) । ११. सत्ता । १२. अग्नि । १३. मांस । (डि०)। भवदारु-सज्ञा पु० [सं० ] देवदारु । भव-सञ्ज्ञा पु० [ स० भय ] डर । उ०—(क) राजा प्रजा भए भवदीय-सवं [ स० ] आपका | तुम्हारा। उ०-नाहिनै नाय गति भागी। भव सभवित भूरि भव भागी।-रघुराज अवलंब मोहि प्रानकी। करम मन बचन प्रन सत्य करुनानिधे (शब्द०)। (ख) भव भजन रजन सुर जूथा । त्रातु सदा नो एक गति राम भवदीय पदनान की।-तुलसी (शब्द०)। कृपा वख्था ।—तुलसी (शब्द०)। भवधरण-संज्ञा पु० [स०] संसार को धारण करनेवाला- भव-वि० १. शुभ। कल्याणकारक । २. उत्पन्न । जन्मा हुमा । परमेश्वर। भवक-वि० [ ] १. उत्पन्न । जात । २. जीवित । ३. पाशीर्वाद भवधारा-संज्ञा सी० [सं०] विश्वप्रवाह । संसारचक्र । उ०- देनेवाला । दुपा देनेवाला (को०] । भवधारा के भीतर भीतर चलनेवाली जो भावधारा है मनुष्य के हृदय को द्रवीभूत करके उसमें मिलानेवाली भावना भवकेतु-मज्ञा पु० [ ] वृहत्सहिता के अनुसार एक पुच्छल तारा माधुर्य की है ।-रस०, पृ० ८७ । जो ना कभी पूर्व मे दिखाई देता है और जिसकी पूछ शेर भवन'-सञ्ज्ञा पु० [स०] १. घर । मकान । उ०-भवन एक पुनि की पूछ की भौति दक्षिणावर्त होती है। कहते हैं. जितने मुहूर्त तक यह दिखाई देता है, उतने महीने तक भोषण दोख सुहावा ।—मानस, ५.५। २. प्रासाद । महल । ३. तकंशास्त्र में भाव। ४. जन्म । उत्पत्ति। ५. सत्ता। ६. अकाल या महामारी आदि होती है। छप्पय का एक भेद । ७. क्षेत्र (को०)। ८. स्वभाव । प्रकृति भवक्षिति-संज्ञा स्त्री० [ ] वह स्थान जहाँ जन्म हुआ हो। (को०)। ६. जन्मपत्रिका । जन्माग (को०)। १०. श्वान । जन्मस्थान (को०] । कुत्ता (को०) । ११. स्थान । अधिष्ठान (को॰) । भवघस्मर-संज्ञा पुं० [सं०] दावागत । यौ०-भवनकर=नगरपालिका की ओर से मकानो पर लगाया भवचक्र-संज्ञा पु० [सं०] बौद्धो के अनुसार वह कल्पित चक्र जिससे हुमा कर (अं० हाउसटैक्स )। भवनदीर्घिका=भवन के यह जाना जाता है कि कौन कौन कर्म करने से जीवात्मा को भोतर की वापी । भवनद्वार=प्रवेशद्वार । फाटक । किन विन योनियो मे भ्रमण करना पड़ता है । (भिन्न भिन्न दरवाजा। भवनपति । भवन-भूमि-कर-प्रदेश शासन द्वारा बौद्ध संप्रदायों के अनुसार भो कुछ भिन्न लगाया हुमा एक कर । भिन्न हैं)। भवन-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० भुवन ] जगत् । संसार । उ०-हरि के जे भवचाप-संज्ञा पु० [ स०] शिव जी के धनुष का नाम । पिनाक | वल्लभ है दुर्लभ भवन माझ तिनही की पदरेणु आशा जिय- उ०-भंजि भवचाप दलि दाप भूपावली सहित भृगुनाथ फारी है।-प्रियादास (शब्द॰) । नतमाथ भारी।-तुलसी ग्रं०, पृ० ४७६ । भवन-संज्ञा पु० [सं० भ्रमण ] कोल्हू के चारों ओर का वह चक्कर भवच्छेद-संज्ञा पुं॰ [स०] जन्म मरण पावागमन से जिसमें वैल घूमते है। मुक्ति [को०] । भवनपति-संज्ञा पुं० [सं०] १. जैनियों के दस देवताओं का एक भवचित्ता-वि० [ स० भविष्यत् ] भावी । होनेवाली। उ० वर्ग जिनके नाम इस प्रकार हैं-असुरकुमार, नागकुमार, स० स० HO ये भवचक्र या