पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३९०

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भवनवासी ३६२६ असिवत्त तडित्कुमार, सुपर्णकुमार, वह्निकुमार, अनिलकुमार, स्तनि- भवभूति'-संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐश्वर्य । त्कुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार । २. भवभूति-संज्ञा पु० [ स०] संस्कृत के एक प्रसिद्ध नाट्यकार गृहस्वामी । घर का मालिक । ३. राशिचक्र के किसी घर का जिनके अन्य नाम श्रीकठ और कभी कभी उव्वेक भो कहा स्वामी (ज्यो०)। गया है। इनके लिखे उत्तररामचरित, महावीरचरित और भवनवासी-संज्ञा पुं० [सं० भवनवासिन् ] जैनों के अनुसार प्रात्मा मालतीमाधव नाटक हैं। के चार भेदों में से एक । भवभूष-संज्ञा पु० [ सं०] संसार के भूषण । उ०-भवभूष भवना-क्रि० अ० [स० भ्रमण ] घूमना । फिरना । चक्कर खाना, दुरंतरनंत हते दुःख मोह मनोज महा जुर को।-केशव उ०-भीर ज्यों भवत भूत वासुकी गणेश युत मानों मकरंद (शब्द०)। वृंद माल गंगाजल की । -केशव (शब्द०)। भवभूपण-संज्ञा पु० [ सं० भव+भूपण ] १. २० 'भव भष' । २. भवनाशिनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार सरयू नदी का शिव जी का भुषण | भस्म । क्षार । राख । उ०-भवभषण भूषित होत नही मदमत्त गजादि मसी न लगे।-रामचं०, एक नाम। पु०२०। भवनी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० भवन+ई (प्रत्य०) ] गृहिणी। भार्या । स्त्री । उ०—देखि बड़ो आचरज पुलकि तन कहति मुदित भवभोग-संज्ञा पुं॰ [ स० ] सांसारिक सुखोपभोग । मुनि भवनी।-तुलसी ग्रं०, पृ० २६८ । भवमन्य -संज्ञा पुं० [सं० ] सासारिक सुख से विराग [को॰] । भवनीय-वि० [सं०] होनेवाला । भावी [को०] । भवमोचन-वि० [सं०] संसार के बंधनो से छुड़ानेवाले, भगवान् । भवन्नाथ-संज्ञा पुं॰ [स०] विष्णु | उ०-होइहहिं सुफल प्राज मम लोचन । देखि वदनपफज भवमोचन ।—तुलसी (शब्द॰) । भवपाली-संज्ञा स्त्री० [ स० ] तांत्रिकों के अनुसार भुवनेश्वरी देवी जो संसार की रक्षा करनेवाली शक्ति मानी जाती है। भवरुत्-तज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा भवप्रत्यय-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] समाधि की अवस्था जो प्रकृति लयों जो मृतक की अत्येष्टि क्रिया के समय बजाया जाता था। प्रेतपटह। को प्राप्त होती है। भवबंधन-संज्ञा पुं० [सं० भवबन्धन ] संसार का झंझट । सांसारिक भववामा-संज्ञा स्त्री० [स०] शिव जी की स्त्री, पार्वती । भवानी । दुःख और कष्ट । भववारिधि-संज्ञा पुं० [सं०] संसाररूपी समुद्र । ससारसागर । उ.-मारकर हाथ भववारिधि तरो, प्राण |-पाराधना, भवबन्धेश-संज्ञा पुं० [सं०] शिव । पृ० २४॥ भवभंग-संज्ञा पुं० [सं० भवभङ्ग] १. संसार का नाश वा ध्वंस । २. संसारचक्र से मुक्ति । जन्म मरण की परंपरा से छुटकारा । भवविलास-मंज्ञा पुं० [सं०] १. माया। २. संसार के सुख जो ज्ञान के अंधकार से उदित होते हैं। उ०-मनहु ज्ञानघन उ०-बिनहि प्रयास होइ भवभंगा। -तुलसी (शब्द०)। प्रकास बीते सब भवविलास पास वास तिमिर तोष तरनि भवभंजन-संज्ञा पुं० [सं० भवभञ्जन ] १. परमेश्वर । २. संसार तेज जारे ।—तुलसी (शब्द०)। का नाश करनेवाला । काल । भवव्यय-सञ्ज्ञा पु० [सं०] उत्पत्ति एवं नाश । जन्म और लय को०। भवभय-संज्ञा पुं० [स] संसार में बार बार जन्म लेने और भवशूल-संज्ञा पुं० [सं०] सांसारिक दुःख और क्लेश । मरने का भय । कष्ट । उ०-त्रिपुरारि त्रिलोचन दिगवसन विषभोजन भवभय हरन ।-तुलसी (शब्द०)। भवशेखर-संज्ञा पु० [स०] चंद्रमा [को॰] । भवसंगी-वि० [स० भवसङ्गिन् ] संसार से अनुरक्त । लौकिक सत्ता भवभामा-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] पार्वती । भवभामिनी। उ०-जग- में लिप्त [को०) । दंबिका जानि भवभामा । सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा । भवसंभव-वि० [सं० भवसम्भव] संसार में होनेवाला। सासारिक । -मानस, १११००। उ०-तजि माया सेइय परलोका । मिटहि सकल भवसंभव भवभामिनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती। भवानी। उ०-यंत- सोका । -तुलसी (शब्द॰) । जामिनी भवभामिनी स्वामिनि सो ही कही बही वातु मातु भवसमुद्र, भवसागर-सज्ञा पुं॰ [सं०] भवसिंधु । अंत तो हो लरिकै ।-तुलसी (शब्द॰) । भवसिंधु-सज्ञा पुं॰ [सभव+ सिन्धु ] संसार रूपी समुद्र । भव- भवभीति-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] जन्म मरण का भय । सांसारिक भय । वारिधि । उ०-नाम लेत भवसिधु सुखाही। करहु विचार भवभीर-संज्ञा स्त्री॰ [ स० भव+हिं० भीर ] पावागमन का सुजन मन माही । मानस, ११२५ । दुःख । संसार का संकट । उ०-मो सम दीन न दोनहित भवसिवत्त- संज्ञा पु० [स० भविष्यत् ] भावी । भविष्य । तुम समान रघुवीर । अस विचारि रघुवंसमनि, हरहु विषम होनहार । उ०-अनगपाल पृथ्वी नरेस अचिज्ज सु - भवभीर।-मानस. ७.१३० । मानौ। भवसिवत्त जो होय, सोय -प्रमान न जानो।-पृ० भवभूत-रंश पुं० [सं०] परमेश्वर को०] । रा०, ३२४ । ।