पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३९२

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भव्यता ३६३१ भरमगंधा HO HO भव्यता- सी० [सं०] भव्य होने का भाव ।। लिये छोड़ना । जैसे, जहाज नसाना । (लश०)। मुनि भगाना । २. किसी चीज को पानी में डालना । भव्या-संश मी० [सं०] १. उमा । पार्वती । २. गजपीपल । भप-रांचा पु० [स० भक्ष्य ] पाहार । भोजन । उ०-प्रति भसिड, भसोड-संश्चा मा० [म विसदएढ ] कमलनान । मुरार । प्रातुर भव फारण धाई घरत फनन समाई ।- कमल की जड़। सुर (शब्द०)। भसित-संगा पु० [ ] भस्म । राख पो०]। भप-संज्ञा पु० [सं०] कुत्ता। भसुंड-संज्ञा पुं॰ [ स० भुसुण्ड ] हाथी । गज । उ०—(क) लाखन भपक-संज्ञा पुं० [म०] कुत्ता । श्वान [को०] | चले भुसुड सुड सो नभतल परसत ।-गोपाल (शब्द०)। भषण-सा पुं० [ स०] १. कुत्ता । २. कुचे का भूकना। (ख) टे खड खंड भसुडन्न भारे ।-१० रासो, पु० ४४ । भूकना (को॰] । भसुर-सज्ञा पुं० [हिं० ससुर का अनु० ] पति का बड़ा भाई। जेठ । उ०-सासु ससुर और भसुर ननद देवर खों भपना-क्रि० स० [सं० भक्षण>हिं० भखना] खाना । भोजन करना। डरती।-पलद, पृ० ३३ । भपा-मग मी० [स०] स्वर्णक्षीरी को०] । भसूड़-संशा पु० [ स० भुशुएट ] हाथी को सूई । (महावत)। भषित-मंशा पु० [स०] भूने की क्रिया । भूकना । भस्त्रका-राग श्री [सं०] ६० 'भला' । भपी-नशा जी० [सं०] शुनी । कुतिया [को०] । भस्ना-संज्ञा स्त्री० [ १. प्राग मुलगाने की भायी। २. मशक भसंत-संज्ञा पुं० [सं० भसन्त ] काल । समय । जिसमें जल रखा जाय (को०) । भसंधि-तंज्ञा स्त्री० [म० भ+ सन्धि ] अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती पर्या-भस्त्रका । भस्त्राका । भत्रि । भस्त्रिका । नक्षत्रों के चौथे चरण की वाद के नक्षत्रों से संधि । भस्म'- पु० [स० भस्मन् ] १. लकड़ी आदि के जलने पर वची भसकना -क्रि० स० [म० भक्षण <भवपण) दे० 'भषना' । उ० हुई राख । २. चिता की राख जिसे पुगणानुसार शिव जी चली है कुलगेरनी गंगा नहाय । सेतुपा कराइन बहुरी अपने सारे शरीर में लगाते थे। ३. विशेष प्रकार से तेयार भुजाइन, धूघट प्रोटे भसकत जाय । -कवीर० श०, भा. की हुई अथवा अग्निहोत्र में की राख जो पवित्र मानी जाती २, पृ० ५५ । है और जिसे शिव के भक्त मस्तक तथा शरीर मे लगाते भसन-संज्ञा पुं० [सं०] भ्रमर । भौरा । अथवा साधु लोग सारे शरीर मे लगाते हैं । भसना-क्रि० स० [बँग० ] १. पानी के ऊपर तैरना । २. पानी क्रि० प्र०-रमाना |--लगाना। में दूबना । ३. बैठ जाना । नीचे की ओर धंस जाना। ४. एक प्रकार का पथरी रोग । ५. (आयुर्वेद ) फूको हुई धातु भसमत-वि० [सं० भस्म + अन्त ] जिसका भस्म ही शेष रह जो ओषधि रूप में प्रयुक्त की जाती है । कुश्ता । जाय। भस्मावशेप । उ०-प्राइ जो प्रीतम फिरि गएउ मिला भस्म-वि० जो जलकर राख हो गया हो । जला हुप्रा । न पाइ वसत । अव तन होरी घालि के जारि करी भरमक-संज्ञा पु० [सं०] १. भावप्रकाश के अनुसार एक रोग जिसमें भसमंत ।-पदमावत, पृ०, १६५ । भाजन तुरंत पच जाता है । भस्माग्नि । भसम-संशा पु० [म० भस्म] दे० 'भस्म' । विशेप-कहते हैं, बहुत अधिक और त्या भाजन फरने से भसमा'-संज्ञा पु० [सं० भस्म] १. पीसा हुआ घाटा । (साधुनों की मनुष्य का कफ क्षीण हो जाता है और वायु तथा पित्त बड़- पनि भाषा) । २. नील की पत्तो की बुकनी। कर जठराग्नि को बहुत तीन कर देता है। और तब जो भसमार-सरा पुं० [फा० चस्मह, वस्मा का अनु०] एक प्रकार का कुछ खाया जाता है, वह तुरत भस्म हो जाता है, परंतु शौच खिजाब जिससे बाल काले किए जाते हैं। बिलकुल नहीं होता। इसमे रोगी को प्यास, पसीना, दाह भसमीसंज्ञा क्षा० । स० भस्म ] भस्मक नाम की व्याधि । दे० और मुर्दा होती है और वह शीघ्र मर जाता है। इस रोग 'भस्मक' | उ०-देखिए दसा असाध अंखिया निपेटिन की, को भस्मकीट भो कहते हैं। भसमी बिथा पै नित लघन करति है।-घनानंद, पु० ५८ । २. बहुत अधिक भूख । ३. नोना । ४. रजत । चांदी। ५. विदा। भसल-संज्ञा पुं० [सं०] काला भ्रमर । बड़ा भौरा (को०)। ५. एक नेत्ररोग । घांसो को एक व्याधि (को०)। भसाकू-सहा पु० [ हिंतमाकू का अनु० ] पीने का वह तमा जो भत्मकार-सं0 पु० [सं०] घोची । रप । बहुत कडवा या कड़ा न हो । हलका पौर मीठा तमाछु । भस्मकारि-१० [स० भस्मकारिन्] भस्म करनेवाला । जलानेवाला । भसाना-सया पु० [बॅग. भासान, हि. भसाना] पूजा के उपरात भस्मकूट-सज्ञा पु० [२०] १. राख का इर। २. एक पर्वत फा काली या सरस्वती प्रादि की मूर्ति को किसी नदी मे नाम (को०)। प्रवाहित करना। भस्मगंधा-सरा झी० [३० भस्मगन्धा] रेगु का नामक गंधद्रव्य । भसाना-फि० स० [अंग०] १. किसी चीज को पानी मे तेरने के पर्या-त्मगधिका । भस्मगधिनी ।