भावंता भाम भावर भावंता--संज्ञा पुं० [हिं० भावना या भाना (= प्रिय लगना)] प्रेमपात्र । प्रिय | प्रीतम । उ०—(क) इहि बिषि भावंता बसौ हिलि मिलि नैनन माहिं । खैचे दृग पर जात है मन कर प्रीतम वाहि । -रसनिषि (शब्द॰) । (ख) जाते ससि तुव मुख लखै मेरो चित्त सिहाय । भावंता उनिहार कछु तो मे पैयत प्राय । -रसनिषि ( शब्द०)। भावंता-संज्ञा पुं० [सं० भावी ] होनहार । भावी । उ•-पाये जस हमोर मतमता । जो तस करेसि तोर मावता। जायसी ( शब्द०)। -सज्ञा पु० [ देश० ] एक प्रकार की घास जिससे कागज बनता है। भावर-संशा सो [हिं०] दे० 'भांवर'। भाव-संज्ञा पुं० [सं०] १. सत्ता। अस्तित्व । होना। प्रभाव का उलटा । २. मन में उत्पन्न होनेवाला विकार या प्रवृत्ति । विचार । ख्याल । जैसे,—(क ) इस समय मेरे मन में अनेक प्रकार के भाव उठ रहे हैं। ( ख ) उस समय आपके मन का भाव आपके चेहरे पर झलक रहा था। ३. अभिप्राय । तात्पर्य । मतलब । जैसे,—इस पद का भाव समझ में नहीं माता । ४. मुख की प्राकृति या चेष्टा। ५. मात्मा । ६. जन्म । ७. चित्त । ८. पदार्थ । चीज | ६. क्रिया । कृत्य । १०. विभूति । ११. विद्वान् । पडित । १२. जंतु । जानवर । १३. रति मादि क्रीड़ा । विषय । १४. अच्छी तरह देखना। पर्यालोचन । १५ प्रेम । मुहब्बत । उ०-रामहि चितव भाव जेहि सीया । सो सनेह मुख नहिं कथनीया ।-तुलसी (शब्द०)। १६. किसी धातु का अर्थ । १७. योनि । १८, उपदेश । १६. ससार । जगत् । दुनिया । २०. जन्मसमय का नक्षत्र । २१. कल्पना । उ०-जैसे भाव न संभवै तैसे करत प्रकास । होत असंभावित तहाँ उपमा केशवदास ।-केशव ( शब्द०) । २२. प्रकृति । स्वभाव । मिजाज | २३. अंत:- करण में छिपी हुई कोई गूढ़ इच्छा । २०. ढग । तरीका । उ०-देखा चाँद सूर्य जस साजा । सहसहि माव मदन तन गाजा ।-जायसी (पा३०)। २५. प्रकार | तरह । उ०- गुरू गुरू में भेद है, गुरू गुरू में भाव |--कबीर (शब्द०)। २६. दशा । अवस्था। हालत । २७. भावना । २८. विश्वास । भरोसा । उ-प्रभू लगि जावों घर कैसे कैसे मावे डर बोली हरि जानिए न भाव पै न पायो है।-प्रियादास (शब्द०)। २६. पादर। प्रतिष्ठा। इज्जत । उ०-कहा भयो जो सिर घरयो तुम्हें कान्ह करि भाव | पंखा विनु फछु और तुम यहीं न पैहो नाव ।-रसनिधि (शब्द॰) । ३०. किसी पदार्थ का धर्मगुण। ३१. उद्देश्य । ३२. किसी चीज की विक्री आदि का हिसाब । दर । निखं । मुहा०-भाव उतरना या गिरना = किसी चीज का दाम घट जाना | भाव चढ़ना=दर तेज होना। ३३. ईश्वर, देवता प्रादि के प्रति होनेवाली श्रद्धा या भक्ति । उ०-भाव सहित खोजाइ जो प्रानी। पाय भक्त मम सब सुख खानी। -तुलसी (शब्द०)। ३४. साठ संवत्सरों में से पाठवां सवत्सर । ३५. फलित ज्योतिष में ग्रहों की शयन, उपवेशन, प्रकाशन, गमन प्रादि बारह चेष्टामो में से कोई चेष्टा या ढग जिसका ध्यान जन्मकुंडली का विचार करने के समय रखा जाता है और जिसके प्राधार पर फलाफल निर्भर करता है। विशेष-किसी किसी के मत से दीप्त, दीन. सुस्थ, मुदित मादि नो और किसी पिसी के मत से दस भाव भी हैं। ३५. युवती स्त्रियों के २८ प्रकार के स्वभावज अलंकारों के अंतर्गत तीन प्रकार के अंगज प्रलंकारों में से पहला । नायक आदि को देखने के कारण अयना और किसी प्रकार नायिका के मन में उत्पन्न होनेवाला विकार । विशेष-साहित्यकारो ने इसके स्थायी, व्यभिचारी पौर सात्विक ये तीन भेद किए हैं और रति, हास. शोक, कोष, उत्साह, भय, जुगुप्सा और विस्मय को स्थायी भाव के अंतर्गत ; निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, भ्रम. पालाय, दैन्य चिंता, मोह, धृति, व्रीडा, चपलता, हर्ष, प्रावेग, जड़ता, गर्व, विपाद, उत्सुकता, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विरोध, अमर्ष, उग्रता, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क को व्यभिचारी भाव के अंतर्गत; तया स्वेद, स्तंभ, रोमांच, स्वरभंग; वेपथु. वैवण्यं, पथ पौर प्रलय को सात्विक भाव के अंतर्गत रखा हैं। ३६. संगीत का पांचवा अंग जिसमें प्रेमी या प्रेमिका के संयोग अथवा वियोग से होनेवाला सुख अथवा दुःख या इसी प्रकार का और कोई अनुभव शारीरिक चेष्टा से प्रत्यक्ष करके दिखाया जाता है। गीत का अभिप्राय प्रत्यक्ष कराने के लिये उसके विषय के अनुसार पारीर या अंगों का संचालन । विशेष-स्वर, नेत्र, मुख तथा अगों की आकृति में प्रावश्यकता- नुसार परिवर्तन करके यह अनुभव प्रत्यक्ष कराया जाता है। जैसे, प्रसन्नता, व्याकुलता, प्रतीक्षा, उद्वेग, माकांक्षा आदि का भाव बताना। क्रि० प्र०-बताना। मुहा०-भाव बताना कोई काम न करके केवल हाथ पैर मटकाना। व्यर्थ पर नखरे के साथ साथ हाय पैर हिलाना। भाव देना= प्राकृति आदि से पथवा कोई मग संचालित करके मन का भाव प्रकट करना। उ०-श्याम को भाव दे गई राधा। नारि नागरिन का लक्ष्यो कोऊ नहीं कान्द कछु करत है बहुत अनुराधा ।-सुर (शब्द०)। ३७. नाज । नखरा। चोंचला। ३८. वह पदार्थ जो जन्म लेता हो, रहता हो, बढ़ता हो, क्षीण होता हो, परिणामशोल हो पौर नष्ट होता हो। छह भावों से युक्त पदार्थ । (सांस्य) । ३६. वुद्धि का वह गुण जिससे धर्म और अधर्म, ज्ञान भोर मज्ञान मादि का पता चलता है। ४०, वैशेपिक के अनुसार
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