पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४३४

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भुराई भुरकना ३६७३ भुरकना-मि० अ० [ सं० भुरण ( = गति ) या हिं० भुरका ] १. विशेष—यह बरसात में होती है। यह स्वच्छंद उगती है और सुखकर भुरभुरा हो जाना। २. भूलना । उ०-थोरिए जब तक नरम रहती है, तव तक पशु इसे बड़े चाव से खाते बैस विथोरी भटू ब्रजभोरी सी बानन में भुरकी है।-देव हैं। यह सुखाने के काम की नहीं होती। (शब्द०)। भुरता-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० भुरकना या भुरभुरा] १. दबकर वा कुचल- संयो० कि०-जाना। कर विकृतावस्था को प्राप्त पदार्थ। वह पदार्थ जो बाहरी ३. चूर्ण के आप किसी पदार्थ को छिड़का। भुरभुराना । दबाव से दबकर या कुचलकर ऐसा बिगड़ गया हो कि उसके वुरकना। उ०-जहँ तह लसत महा मदमत्त । वर बानर अवयव और प्राकृति पूर्व के समान न रह गए हों। कारन दल दत्त । अग अग चरचे प्रति चदन । मुडन भुरके मुहा०-भुरता करना वा कर देना - कुचलकर पीस डालना । देखिय बंदन । -केशव (शब्द॰) । दवाकर चूर चूर कर देना । संयो० कि०-देना। २. चोखा या भरता नाम का सालन । वि० दे० चोखा'। भुरकस-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'भुरकुस' । भुरभुर- '-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक घास का नाम जो ऊसर या रेतीली भूमि में होती है। इसे भुरनुरोई या झुलनी भी कहते हैं । भुरका-संशा पु० [ हिं• भुरकना वा स० धूरि ] बुनी । अबीर । दे० 'भुरभुरा। भुरका-एंज्ञा पु० [हिं० भरना ] १. मिट्टो का बडा कसोरा । भुरभुर -सजा पु० [ अनु वा स० धूरि ] बक्का । कुज्जा । कुल्हड़ । २. मिट्टी आदि का वह पात्र जिसमे लड़के लिखने के लिये खडिण मिट्टी घोलकर रखते हैं। वुदका। भुरभुर-वि? '६० 'भुरभुरा"। भुरभुरा--वि० [अनु॰] [ खी० भुरभुरी ] जिसके कण थोड़ा आघात बुदकना । लगने पर भो वालु के समान अलग अलग हो जाये । बलुमा । भुरकाना-क्रि० स० [हिं० भुरकना ] १ भुरभुरा करना । २. छिडकना । भुरभुराना । ३. भुलवाना । वहकाना । उ०-कही जैसे,—यह लकड़ी बिलकुल भुरभुरी हो गई है। हंसि देव शठ कूर ऐबी बड़े आइ कोई वाल भुरकाय दीन्हा । भुरभुरा--संज्ञा पुं॰ [ देश० ] उत्तरी भारत में होनेवाली एक प्रकार -विश्वास (शब्द०)। की बरसाती घास जिसे गोएं, बैल और घोड़े बहुत पसंद करते हैं। इसका मेल देने से कड़े चारे नरम हो जाते हैं। भुरकी-सज्ञा सी० [हिं० भुरका ] १. अन्न रखने के लिये छोटा पलजी । झू सा । गलगला । कोठिला । धुनकी। २. पानी का छोटा गड्डा । हौज । ३. छोटा कुल्हड़ । भुरभुराहट-संञ्चा स्त्री० [हिं० भुरभुरा+पाहट (प्रत्य॰)] भुरभुरा। होने की क्रिया या भाव । भुरभुगपन । भुरको-मा स्त्री० [हिं० भुरका ] धूल । रज । उ०-दादू भुरकी राम है, सबद कहै गुरु ज्ञान । तिन सबदौ मन मोहिया उन भुरभुरोई-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की घास जो ऊसर और मन लग्गा ध्यान । -दादू० वानी, पृ० ३६४ । रेतीली भूमि में उपजती है । इसे मुलनी या भुरभुर भी कहते हैं। भरकुटा-संज्ञा पु० [हिं० भुरकुस ] छोटा कोड़ा वा मच्छड़। छोटा भुरली-संज्ञा श्री० [हिं० भुडती ] १. भुडली । सुडी। कमला । मकोड़ा। २. एक कीड़ा जो खेती की फसल को हानि पहुंचाता है। भुरकुन [-सज्ञा पु० [हिं० भुरकना ] चूर्ण । चूरा। भुरवना-क्रि० स० [सं० भ्रमण, १० भरमना का प्रे०रूप] भुरकुस-संशा पु० [म० अनु० या हिं० भुरकना ] चूर्ण। वह वस्तु भुलवाना । भ्रम मे डालना। फुसलाना। उ०-(फ) जो चूर चूर हो गई हो। सूरदास प्रभु रसिक सिरोमणि वातन भुरई राधिका भोरी । मुहा०—भुरकुस निकलना = (१) चूर चूर होना । (२) इतना - सूर (शब्द॰) । (ख) ऊपो भव यह समझि भई । मार खाना कि हड्डी पसली चूर चूर हो जाय । वेदम होना । नंदनंदन के अंग अंग प्रति उपमा न्याइ दई । कुंतल कुटिल (३) नष्ट होना। बरबाद होना । भुरकुस निकालना= (१) भंवर भामिनि वर मालति भुरे लई । तजत न गहरा इतना मारना कि हड्डो पसली चूर चूर हो जाय । मारते कियो तिन कपटी जानि निराश भई ।-सुर (शब्द॰) । मारते वेदम करना। (२) बेकाम करना । किसी काम का संयोकि०-देना |-लेना ।-रखना। न रहने देना । (३) नष्ट करना । बरबाद करना । भुरसना-क्रि० प्र० [हिं० भुलसना] दे॰ 'झुलसना'; 'भुलसना' । भुरजी-सञ्ज्ञा पुं॰ [फा० बुज़ ] ३० 'वुज' । भुरहरा-संज्ञा पुं० [हिं० भोर ] भोर । सुबह । तड़का । भुरजाल -संज्ञा पु० [हिं० वुर्ज + अाल ] गढ़ । उ०—मन भुरजाला भुराईवर--संज्ञा स्त्री० [हिं० भोला ] भोलापन । सीघापन : उ०- भुरजसा, गढ़ चीतोड़ कंगूर !-वाकी ०, भा० २, पृ० ६ । (क) लखहु ताडुकहि लछिमन भाई। भुजनि भयंकर भेष भरजी-संज्ञा पुं० [हिं० भूजना ] भड़भूजा । भुराई ।-पद्माकर (शब्द०)। (ख) मोचन लागी भुराई की भरत-संज्ञा पुं० [देश॰] एक प्रकार की घास । भरौट । बातन सौतिनी सोच भुरावन लागी।-मतिराम (शब्द०)।