पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४६

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३२८५ फसाद कल्क-संज्ञा पुं० [सं०] विसारितांग । फैले हुए अंगवाला। ५. फटना । तहकना । जैसे,-अधिक पूर देने के कारण पेड़ा फसक गया। फल्गु'-वि० [ स०] १. असार । जिसमें कुछ तत्व न हो । २. निरर्थक । व्यर्थ । ३. क्षुद्र । छोटा । ४. सामान्य । साधारण । फसकना-वि० १. जो जल्दी मसक या फट जाय। २. जो जल्दी ५. कमजोर । अशक्त । उ०-उस समय उनके कल्पना के घंसे या बैठ जाय । नेत्रों के समुख तपस्विनियों के जराजीर्ण, फल्गु मात्र अरुचिकर फसकनारे-क्रि० प्र० [सं० भक्पण>भक्षण ] अस्पष्ट आवाज के शारीर नाच रहे थे ।-ज्ञानदान, पृ० १६। ६. असत्य साथ कुछ खानी । भसकना । (को०) । ७. सुदर । रम्प । रमणीय (को॰) । फसकाना-क्रि० स० [अनु०] १. कपड़े को मसकाना या दबा फल्गु-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वसंत ऋतु (को०) । २. अबीर । कर कुछ फाड़ना । २. घसाना । बैठाना । गुलाल (को०) । ३. कठूमर । जंगली गूलर (को०)। ४. असत्य फसडी-वि० [हिं० ] ३० 'फिसड्डी' । फथन । झूठ वचन (को०)। ५. ज्योतिष में पूर्वा फाल्गुनी और फसल-सज्ञा स्त्री॰ [अ० फ़स्ल ] १. ऋतु । मौसम । २. समय । उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र (को०) । ६. विहार की एक नदी का काल । जैसे, बोने की फसल, काटने की फसल । ३. शस्य । .नाम । गया तीर्थ इसी नदी के किनारे है। खेत की उपज । अन्न । जैसे, खेत की फसल । ४. वह धन्न यौ०-फल्गुदा = फल्गुनदी। की उपज जो वर्ष के प्रत्येक अयन में होती है। फल्गुद-वि० [सं० ] लोभी। कृपण । कंजूस [को॰] । विशेष-अन्न के लिये वर्ष के दो अयन माने गए हैं, खरीफ और फल्गुन-संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्जुन । २. इंद्र (को०)। ३. फाल्गुन रबी। सावन से पूस तक में उत्पन्न होनेवाले अन्नों को खरीफ की फसल कहते हैं और माघ से आषाढ़ तक में उप- मास। जनेवाले को रबी की फसल । फल्गुन २-वि० १. फाल्गुनी नक्षत्र संबंधी । २. लाल (को॰) । फसली-वि० [अ० फाल + फा० ई (प्रत्य० ) ] मौसिमी। ऋतु फल्गुनक-संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक जाति का नाम । का । जैसे, फसली बुखार । फल्गुनाल-संज्ञा पु० [सं० ] फाल्गुन मास । फसली-संज्ञा पु० १. एक प्रकार का संवत् । फल्गुनो-संथा स्त्री० [सं०] दे॰ 'फाल्गुनी' । विशेष—इसे दिल्ली के सम्राट अकबर ने हिजरी संवत् को, फल्गुनीभव-संज्ञा पुं० [सं०] वृहस्पति का नाम । जिसका प्रचार मुसलमानों में था और जिसमें चांद्रमास की फल्गुलुक-संज्ञा पुं॰ [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक देश । रीति से वर्ष की गणना थी, बदलकर सौर मास में परिवर्तन फल्गुलुका-संज्ञा स्त्री॰ [ सं०] बृहत्संहिता के अनुसार वायु कोण की करके चलाया था। अब ईसवी संवत् से यह ५८३ वर्ष कम एक नदी का नाम । होता है। इसका प्रचार उत्तरीय भारत में फसल या खेती फल्गुवाटिका-संज्ञा सी० [सं० ] कठूमर । बारी प्रादि के कामों में होता है। फल्गुवृंत, फल्गुताक-संज्ञा पु० [सं० फल्गुवृन्त, फल्गुवृन्ताक] एक २. हैजा । ३. बुखार । मियादी बुखार । प्रकार का श्योनाक। फसलो कौवा-सज्ञा पुं० [अ० फ़स्ल + फा० ई ( प्रत्य० ) + हिं० कौवा ] १. पहाड़ी कौवा जो शीत ऋतु में पहाड़ से उतर- फल्गूत्सव-संज्ञा पुं० [सं०] होली। वसंतोत्सव [को०] । कर मैदान में चला पाता है। २. वह जो केवल अच्छे समय फल्य-सञ्ज्ञा पुं॰ [ सं०] फूल । मे अपना स्वार्थ साधन करने के लिये किसी के साथ रहे और फल्लकी--संज्ञा पुं० [सं० फल्लकिन् ] एक प्रकार की मछली जिसे उसकी विपत्ति के समय काम न पावे । स्वार्थी । मतलबी। फलुई कहते हैं। फसलीगुलाब-संज्ञा सं० [हिं० फसली + फा० गुलाब ] चैती फल्लफल-संज्ञा पुं० [सं०] सूप के फटकने से होनेवाली हवा [को०] । गुलाव । फल्ला-सज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का रेशम जो बंगाल के फसली बुखार-संज्ञा पुं० [अ० फ़स्ल + फा० ई (प्रत्य॰) + रामपुर हाट नामक स्थान से आता है । बुखार ] १. वह ज्वर जो किसी एक ऋतु की समाप्ति और विशेष-इसका रंग पीलापन लिए सफेद होता है और यह दूसरी ऋतु के प्रारंभ के समय होता है। २. जाड़ा देकर तंदूरी से कुछ घटिया होता है । पानेवाला वह बुखार जो प्रायः बरसात मे होता है । जूड़ी । फसकड़ा-संशा पुं० [अनु० ] पालथी। पलथी। जैसे,—जहाँ देखो वहीं फसकड़ा मारकर बैठ जाते हैं। फसली सन्, फसली साल-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'फसली'-१ । क्रि० प्र०-मारना। फसाद-संज्ञा पुं० [अ० फ़साद] [वि० फसादी] १. बिगाड़ । विकार ।' फसकना-क्रि० अ० [अनु०] १. कपड़े का मसकना या दवने २. वलवा। विद्रोह । ३. ऊधम । उपद्रव । ४. झगड़ा । पादि के कारण कुछ फट जाना । मसकना। २. अंदर को लड़ाई। ५. विवाद। बैठना । घुसना। ३. फस फस या फुसफुस को भावाज करते क्रि० प्र०-करना। -उठाना।-खड़ा करना-दवना।- हुए बात करना। ४. कोई लगती पात मंद स्वर मे बोल देना। दबाना ।-मचना ।-मचाना। . मलेरिया।