पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४६५

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भोपा ३.०४ भोलप भोपा-सचा पु. [ भों से अनु० ] १. एक प्रकार की तुरही या फूक. भोरहरी -वि० [हिं० भोर + हरी (प्रत्य॰) ] प्रातःकाल । रात्रि कर बजाया जानेवाला बाजा। भोपू । २. मूर्ख । वेवकूफ। के बीतने और सूर्योदय होने के पहले का समय । उ०- ३. दे० भूरति । उ०-भोपा भीमका नै फेरि कागद सू' वह इस तरह नाचती है। जैसे भारहरी की हवा मे अलसी बुलायो । सगतो लाडषानी जेनगर सु' साथि पायो । का फूल |-शरावो, पृ० ५। -शिखर०, पृ० ११२ । भोरा'-संज्ञा पु० दिश०] प्रायः एक फुट लंबी एक प्रकार की मछली भोवरा-सा पु० [ देश० ] एक प्रकार की घास जिसे झेरन भो जो युक्तशत ( उत्तर प्रदेश), मद्रास पौर ब्रह्म देश की कहते है । नदियों में पाई जाती है। भोभरी-सज्ञा स्त्री॰ [स०] भ भल । चूल्हे की गरम मिट्टी। गरम भोरा- पुं० [हिं० ] दे० 'भोर' । राख या मिट्टी । उ०-मुंह डोले उण मनखरो, भोभर भोरा-वि० [हिं० भोला ] [ वि० सी० भोरी ] भोलाभाला। भोतर भार ।-बांकी० प्र०, भा० ३, पृ० १६ । सीधा । सरल। भोम, भोमि--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ सं० भूमि ] पृथ्वी । (डि०) । उ०- भोरा@- वि० [स० भ्रम] [वि० सी० भोरी] भ्रमयुक्त । चकित । (क) भोम उलटकर चढो अनासा, गगन भोम में पैठ। । बावरी । उ०-भोरी भई है मयंक मुसो भुन भेटति है गहि -दरिया० बानी, पृ० ५६ । (ख) सोमेस सूर गुज्जर अफ तमालहि ।-मति० प्र०, पृ० ३५७ । नरेश मालवी राज सब पण पेस | मारू बजाइ भट्टोन थान घल भोमि लई बल पाहुवान !-पु० रा०, ११६१४ । भोराईल-रा प्रो. [ हिं• भोरा+ई (प्रत्य॰) ] भोलापन | सिधाई । सरलता। भोमिया-सज्ञा स्त्री० [सं० भूमि ] १. पृथ्वी । ( डिं० ) । २. भूमि- पति । छोटे जमीदार । उ०-देवा ने उन सवारो की भोराई।२--संशा स्त्री॰ [देश॰] भुकड़ी । फफूदी। सहायता से वहाँ के भोमिया (छोटे जमीदारो) में से बहुतो भोरानाल-क्रि० स० [हिं० भोरा+थाना (प्रत्य०) ] श्रम में को मार डाला और शेष भाग गए।-राज, पृ० ५५१ । डालना । वहकाना। धोखा देना। उ०-सूरदास लोगन भोमी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स' भूमि ] पृथ्वी । (डि० ) । के भारए काहे कान्ह प्रव होत पराए ।-सूर (शब्द॰) । भोमीरा-सज्ञा पु० [देश॰] मगा । प्रवाल । भोराना--क्रि० प्र० भ्रम मे पड़ना । धोये में माना । भोयन्न+-सज्ञा पुं॰ [ स० भोजन या भोज्यान ] दे० 'भोजन। भोरानाथg--संश पु० [स० भोलानाथ ] शिव । उ०-गौरी- उ०-वै पोहनी ? भोयन्न भप्षी। कहाँ पाफसासन नाथ भोरानाथ भवत भवानीनाथ विश्वनाथपुर फिरि पान आतंक दिपपी।-पृ० रा०, २।२४७ । कलि काल की।-तुलसी (शब्द०)। भोर-संज्ञा पु० [स० विभावरी ] प्रातःकाल । तहका । सवेरा । भोरापन-संज्ञा पु० [हिं० भोला+पन (प्रत्य०) भोला होने उ.-जागे भार दौडि जननी ने अपने कठ लगायो।-सूर का भाव । सिधाई। भोराई। सरलता। (शब्द०)। भोरि-प्रव्य० [हिं० बहुरि ] पुनः। बहुरि । फिर । उ०-दास भोर-सञ्ज्ञा पुं० [देश॰] १. एक प्रकार का बड़ा पक्षी जिसके पर राम जी ब्रह्म समाए । जहाँ गए ते भारि न पाए ।-सदर बहुत सुंदर होते हैं। ग्रं, भा०१, पृ० १२३ । विशेप-यह जल तथा हरियाली बहुत पसंद करता है। भोरी- सी० [देश॰] अफीम का एक रोग । यह फल फूल तथा कीडे मकोड़े खाना और खेतो को बहुत भोरुल-संशा पुं० [हिं• ] दे॰ 'भोर'। अधिक हानि पहुंचाता है। यह रात के समय अंचे वृक्षो पर भोर-क्रि० वि० [हि. भोर (= भूल )] भूल से भो। उ०-कोउ विश्राम करता है। नहि सिव समान प्रिय मोरें। अस परतीति तजहु जनि २. खमो नामक सदाबहार वृक्ष | इसे भार और रोई भी भोरें।-मानस, १२१३८ । वहते हैं । विशेष दे० खमो' । भोल-सज्ञा पु० [स०] वैश्य पिता और नट स्लो से उत्पन्न भोर-संज्ञा पु० [ म० भ्रम ] धोखा । भूल । भ्रम । उ०—(क) सतान [को०] | को दुई गनि कौसिलहि परिगा भोर हो।-तुलसी (शब्द०)। भोल-संश पुं० [सं० भ्रम, हि. भोर ] दे० 'भोर'। मोह । (ख) हंसत परस्पर प्रापु मे चली जाहिं जिय भोर ।-सूर भ्रम । विमोह । उ०-पहिलहि न बुझल एत सब घोल । (शब्द०)। रूप निहारि पढ़ि गेल भोल -विद्यापति, पृ० ४२७ । भोर-वि० चकित । स्तंभित । उ०-सूर प्रभु की निरखि सोमा भोलना-क्रि० स० [हिं० भोल (= भूल)+ना (प्रत्य०) भई तरुनो भोर ।--सूर (शब्द०)। भुलाना । बहकाना। भोर-वि० [हिं० भोला] भोला । सीधा। सरल । उ०-याती भोलपा-संशा सी० [हिं० भूल ] दे० 'भून' । उ०-कहे सगा राखि न मांगे 3 काऊ । बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ । भोलप करी दीधी डावडियाह । राव सरीखे रंग ह मोहड़े -तुलसी (शब्द०)। मावड़ियाह ।-बाँकी० ग्रं॰, भा० २, पृ० १५ ।