पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४६६

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० शिव । । भोला ३७०५ भोरा भोला-वि॰ [हिं० भूलना] १. जिसे छल कपट प्रादि न प्राता भौंरहाई-कि० अ० [हिं० भौरा + हाई ] भौंरों का चक्कर हो । सीधा सादा । सरल । काटना । भौरों का मंडराना । भीराना । उ०—ददल संपुट यौ०-भोलानाथ । भोला भाला। मैं मुदै मन मोद मान, पारस विभावरी ह्व होत भीरहाई ।- २. मूर्ख । वेवकूफ । घनानंद, पृ० २२। भोलानाथ–संज्ञा पुं० [सं० या हिं• भोला+स० नाथ ] महादेव । भौरा-संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर, पा. भमर, प्रा० मॅवर] [स्त्री० भंवरी] १. काले रंग का उड़नेवाला एक पतंगा जो गोवरेले के भोलापन-संज्ञा पुं० [हिं० भोला+पन (प्रत्य॰)] १. सिधाई । बराबर होता है और देखने मे बहुत दृढांग प्रतीत होता है। सरलता । सादगी। २. नादानी । मूर्खना । भ्रपर । चचरीक । उ०-प्रांपुहि भौंरा आपुहि फूल । प्रातम- भोलाभाला-वि० [हिं० भोला+ अनु० भाला] सीधा सादा । सरल ज्ञान बिना जग भून । —सूर (शब्द॰) । चित्त का । निश्छल । विशेष - इसके छह पैर, दो पर और दो मूछे होती हैं । इसके भोलि-संज्ञा पुं० [सं०] ऊंट [को०] । सारे शरीर पर भूरे रंग के छोटे छोटे चमकदार रोएं होते भोसरी-वि० [देश॰] वेवकूफ । मूर्ख । हैं । इसका रंग प्राय: नीलापन लिए चमकीला काला होता है भोहरा-संज्ञा पु० [ देश० ] दे० भुईंहरा'। और इसकी पीठ पर दोनों परों की जड़ के पास का प्रदेश भौँ-संज्ञा स्त्री० [सं० ] श्रीख के ऊपर के वालों की श्रेणी । पीले रंग का होता है। स्त्री के डंक होता है और वह डंक भृकुटी । भौह । मारती है। यह गुंजारता हुआ उड़ा करता है और फूलों का रस पीता है। अन्य पतंगों के समान इस जाति के प्रडे से मुहा०-दे० 'मोह'। भी ढोले निकलते हैं जो कालांतर में परिवर्तित होकर पतिगे भौंकना-क्रि० अ० [ भी भौं से अनु०] १. भी भों शब्द करना । हो जाते हैं। यह डालियों और ठूठी टहनियों पर पडे देता कुत्ता का वोलना । भूकना । २. बहुत बकवाद करना । है। कवि इसकी उपमा और रूपक नायक के लिये लाते हैं । निरर्थक वोलना। बक बक करना। उनका यह भी कथन है कि यह सब फूलों पर बैठता है, पर भौगर'-संज्ञा पुं० [ देश० ] क्षत्रियों की एक जाति । चंपा के फूल पर नहीं बैठता । भौगरी–वि० मोटा ताजा । हृष्ठ पुष्ट । २. बड़ी मधुमक्खी । सारंग । भमर । डंगर । ३. काला वा लाला भौंचाला-संज्ञा पुं० [हिं० भूचाल ] दे० 'भूकंप' । भड़ । ४. एक खिलौना जो लट्ट के प्राकार का होता है और भौड़ा-वि० [हिं०] [वि॰ स्त्री० भौंड़ी ] दे० 'भोंडा' । उ० जिसमें कील वा छोटी डंडी लगी रहती है। इसी कील में षसम परयो जोरू के पीछे कह्यौ न मानै भोड़ो राड ।- रस्सी लपेटकर लड़के इसे भूमि पर नचाते हैं। उ०- सुदर , भा० २, पृ० ५६३ । लोचन मानत नाहिन बोल । ऐसे रहत श्याम के आगे मनु है भौंड़ी-संज्ञा स्त्री लीन्हों मोल । इत प्रावत है जात देखाई ज्यों भौंरा चकडोर । देश० ] छोटा पहाड़ । पहाड़ी । टोला । उतते सूत्र न टारत कवहूँ मोसों मानत कोर |–सूर भौंतुवा-संज्ञा पु० [हिं० भ्रमना ( = घूमना)] १. खटमल के प्राकार (शब्द०)। ५. हिंडोले की वह लकड़ी जो मयारी में लगी का एक प्रकार का काले रंग का कीड़ा जो प्रायः वर्षा ऋतु रहती है और जिसमें डोरी और डंडी बंधी रहती है । उ०- में जलाशयों आदि में जलतल के ऊपर चक्कर काटता हुमा हिंडोरना माई झूलत गोपाल । संग राधा परम सुदरि चलता है । २. एक प्रकार का रोग जिसमें बाहुदंड के नीचे चहूँघा व्रज बाल | सुभग यमुना पुलिन मोहन रच्यो रुचिर एक गिलटी निकल पाती है। उ०—कहा भयो जो मन हिंडोर । लाल डाँड़ी स्फटिक पटुलि मणिन मरुवा घोर । मिलि कलि कालहि कियो भौतुवा भोर को है। तुलसी भौंरा मयारिनि'नील मरकत खंचे पांति अपार । सरल कंचन (शब्द०)। ३. तेली का बैल जो सबेरे से ही कोल्हू मे खंभ सुदर रच्यो काम श्रुतिहार ।-सुर (शब्द०)। ६. जोना जाता है और दिन भर घुमा करता है। गाड़ी के पहिए का वह भाग, जिसके बीच के छेद में धुरे भौर-शा पु० [सं० भ्रमर ] १. भौरा ! चंचरीक । २. तेज बहते का गज रहता है और जिसमे धारा लगाकर पहिए की हुए पानी में पड़नेवाला चक्कर । पावर्त । नाद । उ०-नाउ पुट्टियां जड़ी जाती हैं । नाभि । लट्ठा । मुडी । ७. रहठ की जाजरी धार मैं अदफर भौंर भुलान । यदुपति पार लगाइए खड़ी चरखी जो भवरी को फिराती है। चकरी (बुदेल०)। मोहि अपना जन जान |-स० सप्तक, पृ० ३४४ । ८. पशुमों का एक रोग जिसे चेचक कहते हैं (बुंदेल०)। क्रि० प्र०-पड़ना। मिरगी (बुदेल०)। १०. वह कुत्ता जो भौर--संज्ञा पुं॰ [ ? ] मुश्की घोड़ा। उ०—लील समंद चाल जग ड़ों की रखवाली करता है। ११. एक प्रकार जाने । हासल भौंर गियाह वखाने । —जायसी (शब्द०)। ज्वार आदि की फसल को बहुत हानि भारकली-जा श्री० [हिं० भँवरक जो ] ३० 'भवरकती।