पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४८९

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मैंडप मेंहदी छुटि हो सुनु रे जीव अबूझ । कविरा मैड मैदान में, करि मंदरी] नाटा। ठिंगना । 30-स्त्रिया नाटी मंदरी और इंदिन सो जूझ |--कबीर सं०, पृ० २६ । मदों से भी जियादा मजबूत होती हैं !-शिवप्रसाद (शब्द०)। मॅडप-संज्ञा पु० [सं० मण्डप ] दे० 'मंडप' । उ०-~-भीतर मंडप मदरी'-संज्ञा स्त्री० [देश०] खाजे की जाति का एक पेड़ । चारि खंभ लागे।-बापसी गं० ( गुप्त ), पृ० २३१ ॥ विशेष- इसकी लकड़ी मजबूत होती है और सेती के सामान मडर-सज्ञा पु० [स० मण्डल ] दे० 'मंडल' । उ०—जारा मंडर तथा गाड़ियां बनाने के काम प्राती है। हाल से चमड़ा पहिर भल चोला । पहिरे ससि जस नखत अमोला। सिझाया जाता है, फल साए जाते हैं और पत्तियां पशुओं जायसी , पु० २४५ के पारे के काम पाती हैं। इसी की जाति का एक और पेढ़ मैं डरना-वि० स० [स. मण्डल ] मंडल बांधकर छा जाना । होता है जिसे गेंडली कहते हैं। इसकी छाल पर, जब वे चारो योर से घेर लेना। उ०-माझ ताल सुर मडरे रंग हो छोटे रहते हैं, फोटे होते हैं, पर ज्यों ज्यों यह बड़ा होता हो होगी।-सूर (शब्द॰) । है, छाल साफ होती जाती है। इसकी लकड़ी की तोल प्रति घनफुट २० से ३० सेर तक होती है। इसके बीज में डराना-कि० अ० [स० मण्डल ] १. मंडल बांधकर उड़ना । वरसात मे वोए जाते है। किसी वस्तु के चारो ओर घूमते हुए उड़ना । चकार देते हुए उड़ना । जैसे चील का मॅडराना । उ०-हंस को मैं प्रश मदरीक्षा श्री० [देश॰] महीरो फा एक वेल जिसमें वे लाठी राख्यो काग कित मंडराय ?-सुर (गन्द० १२.किसी के के पैतरों के साथ, नगाड़े की ध्वनि पर, विशेषतः कार्तिक चारो ओर घूमना । परिक्रमण करना। उ०-मडप ही में मास की रात्रियों में सेलते हैं भोर भन्नकुट महोत्सन के दिन फिरै मॅडरात है न जात कहूँ तजि को ओनो । पाकर खेलते हुए मुंड के साथ दुर्गा देवी का दर्शन करते हैं। (शब्द०)। ३. किसी के पास पास ही घूम फिरकर रहना। प्रचलित) उ०-देखहु गाय और काहू को हरि + सबै रहति मेंदला-सरा पु० [हिं० मदल ] दे० मंदग। मॅडरानी।- सूर (शब्द०)। मदलिया-संशा पु० [हिं० मंदल+इया (प्रत्य॰)] मंदरा नामक मॅडरी-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] पयाल की चटाई । दे० 'मंडरी'। वाद्य वजानेवाला। उ०-धोल मंदलिया देल रवावी कउवा मँडवा-शा पु० [ स० मण्डप, प्रा० मढव ] मंडप । ताल बजाये। कबीर ग्र०, पृ०६२। मडाण तशा पु० [हिं० मण्डल ] दे० 'म'डन'। उ०-मांच्या सो मदिर-संज्ञा पु० [सं० मन्दिर ] दे० 'मंदिर'। उ-मंदिर दह जायगा, माटी तणा महाए।-राम० घम'०, पृ. ६५ ॥ मंदिर फुलवारी चोवा चदन वास ।-जायसी पं० (गुप्त), म डान-Hश पु० [हिं० मढल ] देशल मिडन'। पृ० १४९। उ.-कबीर थोड़ा जीवना मॉडे बहुत मडान |--कवीर सा०, पृ०६। मदिराचन- संश पुं० [सं० मन्दराचल ] दे० 'मंदर'। उ०- मंडाना ---क्रि० स० [ देश ] लिखाना । उ०-उन वैष्णवन पास मंदिराचल बल विपुल पुल थल थरहर हल पाल -१० ते खत तो मडाइ लेते।-दो सौ बावन०, भा०, पु०२३५ । रा०, २।१०५॥ मॅडारीज्ञा पु० [हिं० मडल ] १. गड्ढा । २. झावा । म दिल-संश पु० [ स० मन्दिर ] दे० 'मदिर' । उ-दिया इलिया। उ०-सुप्राहे को पूछ पतग मडारे। चल न देख मादल निसि करे अजोरा-जायसी पं०, पृ. २१८ । आछे मन मारे ।-जायसी (शब्द०)। म निरा--संज्ञा पु० [देश ०] दे० 'मनिहार' । उ० --कोन दिसा ते मडियार-संज्ञा पु० [ दे० ] झरवैरी नामक कंटीली झाड़ी। मनिरा माइए घोर कोंन दिला जाइ।-मोद्दार अभि० मॅहुआ-सज्ञा पु० ( देश० ] एक प्रकार का कदन्न । ०, पृ. ६४३ मँड का-संज्ञा श्री० [स० मृद्वीका ] दाख। प्रगूर 13०-माठी, मसुखवा -संज्ञा पु० [ हि० मांस+ खाना ] मांसाहारी। मडका, मधुरसा, कालपेखका होइ ।-नद० न०, पृ० १०४। महगा--वि० [स० महा ] अधिक मूल्य पर विरुनेवाला । उचित मडैया-संज्ञा सी० [सं० मणुपी ] दे॰ 'मईया । उ०-धर्ती त्याग से अधिक मूल्य का। प्रकास को त्याग अधर मया छावै ।- कवीर० श०, भा०, महगाई-संश सी० [हिं० मंहगा+ ई (प्रत्य॰)] १. ३० 'महगी'। उ०- महगाई के जमाने में भूखो मरने की नौबत मढ़ा-संज्ञा पुं० [हिं० मढ़ना ] दे॰ 'मंढा । -फूलो०, पृ० ६८ । २. वस्तुओ के बढ़े हुए भाव का ध्यान रखकर नौकरी पेशा के लोगों को अतिरिक्त मिलनेवाली मंदचाला-वि० [ स० मंद + चाल ] मदचालवाला । खोटी चाल का। उ०-देखु यह सुप्रटा है मंदचाला !~-जायसी न (गुप्त), पृ० १७६ ॥ म हदी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'मेहंदी' । उ०-विरी अधर अंजन नयन, मंहदी पग घरु पानि ।-मति० प्र०, मॅदरा--वि० [सं० :मन्दर, मि० पं० मदरा (नाटा) [वि० श्री. पृ०४२९1 रकम।