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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४९०

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मकड़ी -प्रव्य में हैं [सं० मध्य ] मध्य । में। उ० -पलटू ऐसे घर म., बड़े मरद जे जाहिं। यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं ।-लटू० भा० १, पृ० ३३ । म-संज्ञा पु० [स०] १. शिव । २. चंद्रमा । ३. ब्रह्मा । ४. यम । ५. समय । ६. विष । जहर । ७. मधुसूदन । ८. छदःशास्त्र मे एक गण । मगण। ६. संगीत मे एक स्वर । मध्यम । १०. जल । पानी (को०) । सौभाग्य । प्रसन्नता (को०) । मg२-- अव्य० [हिं० महँ ] दे० 'मैं' । उ०-ठाढ़ि जो हौं वाठ म, साहेव चलि पावो ।-धरम० श०, पृ० २३ । मर-प्रव्य : [सं० मा ] न। नहीं। उ०-कवि भ्रम भमर म सोचकर, सिमरि नाम अभिराम ।-रा० ६०, पृ० १ । मअनो-संज्ञा पुं॰ [स० मदन प्रा० मयण, मयण ] दे० 'मदन' । उ०--आज मोये देखील बारा लुबुध मानस चालक मप्रन कर की परकारा। -विद्यापति, पृ० ३० । माज-संज्ञा सी० [अ० माज़ ] शरण । प्राश्रय । उ०-वंदा हूँ उसी का वही ठार मनाज ।-दक्खिनी०, पृ० ७२ । म-पर्व० [अप० ] दे० 'मैं'। मइकाई :-संज्ञा पु० [सं० मातृक ] दे० 'मायका' या 'मैका। मइमत-वि० [सं० मदमत्त, प्रा० मश्रम] मदोन्मत्त । मतवाला । दे० 'ममत'। उ०-जोवन अस महमंत न कोई । नवंह हसति जउ प्राकुस होई । —जायसी (शब्द०)। मइया -संज्ञा सी० [सं० माता] दे० 'मैया' । उ०-भूखे पाहि बलि गई मया । घर चलिहै मेरो भलो कन्हइया ।-नंद० ग्र०, पृ०२५५। मई'-संज्ञा स्त्री० [सं० मयी ] १. मय जाति की स्त्री । २. ऊँटनी । मई-सज्ञा स्त्री० [अं० मे ] अंगरेजी का पांचवां महीना जो पल के उपरांत और जून से पहले आता है। यह सदा ३१ दिन का होता है और प्रायः वैशाख में पड़ता है। मई-प्रत्य० [सं० मय का स्त्री० रूप ] तद्रूप, विकार और प्राचुर्य अर्थों में प्रयुक्त एक तद्धित प्रत्यय । दे० 'मय। उ.-करम को गेह पंचभुत मई देह, नासमान एह, नेह काहे को बढ़ाइए ।-पोद्दार अभि० प्र०, पृ० ४२३ । मउनी-संज्ञा ली० [हिं० मौना ] कांस, मून की वनी छोटा पिटारी । दे० 'मौनी। मउनी २-० [ स० मौनी ] दे० 'मौनी"। मउरा-संज्ञा पु० [ स० मुकुट ] फूलों का बना हुमा यह मुकुट या सेहरा धो विवाह के समय दूल्हे के सिर पर पहनाया जाता है। मौर। मउरछोराई-शा सी० [हिं० मउर+छोड़ाई ] १. विवाह के उपरात मौर खोलने की रस्म । विशेप-जब वर कोहबर में पहुंच जाता है, तब ससुराल को लियां उसको कुछ देकर मौर उतार लेती हैं और उसे दही गुड़ खिलाकर कुछ नगद देकर विदा करती हैं। २. वह धन जो वर को मौर खोलने के समय दिया जाता है। मउरी-संञ्चा सी० हिं० मौर ] एक प्रकार का बना हुमा तिकोना छोटा मोर जो विवाह के समय कन्या के सिर पर रखा जाता है। मउलसिरी-संज्ञा श्री० [हिं० ] दे० 'मौलसिरी' । मउसी-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० मासी ] माता की बहिन । मासी । मौसी । मकई-संशा स्त्री० [हिं० मक्का ] जार नामक अन्न । मकड़ा-संज्ञा पुं० [हिं० मकड़ी ] बड़ी मकड़ी। मकड़ा-संज्ञा पु० [देश०] एक प्रकार की घास । मधाना । खमारा। मनसा। विशेष-यह बहुत शीघ्रता से बढ़ती है। यह पशुमों पौर विशेषतः घोड़ों के लिये बहुत पुष्टिकारक होती है । यह दस बरस तक सुखाकर रखी जा सकती है। कही फहीं गरीब लोग इसके बीज अनाज की भांति खाते है। मकड़ाना -क्रि० अ० [हिं० मकड़ा या मक्कर ] अकड़कर चलना । मकड़े की तरह चलना | इतराना। मकड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० मकंटक या मइंटी१. एक प्रकार का प्रसिद्ध कीड़ा जिसकी सैकड़ों हजारों जातियां होती है और जो प्रायः सारे संसार में पाया जाता है। विशेष-इसका शरीर दो भागों में विभक्त हो सकता है। एक भाग में सिर और छाती तथा दूसरे भाग में पेट होता है। साधारणतः इसके पाठ पैर और पाठ यांखें होती हैं । पर कुछ मकड़ियों को केवल छह, कुछ को चार और किसी किसी को केवल दो ही घाखें होती हैं। इनकी प्रत्येक टांग में प्रायः सात जोड़ होते हैं। प्राणिशास्त्र के ज्ञाता इसे कीट वर्ग में नहीं मानते; क्योंकि कीटों को केवल चार पैर और दो पंख होते हैं। कुछ जाति की मकड़िया विषली होती हैं और यदि उनके शरीर से निकलनेवाला तरल पदार्थ मनुष्य के शरीर से सर्श कर जाय, तो उस स्थान पर छोटे छोटे

दाने निकल पाते हैं जिनमें जलन होती है और जिनमें से

पानी निकलता है। कुछ मकड़ियाँ तो इतनी जहरीली होती है कि कभी कभी उनके काटने से मनुष्य की मृत्यु तक हो पाती है। मकड़ी प्रायः घरों में रहती है और अपने उदर से एक प्रकार का तरल पदार्थ निकालकर उसके तार से घर के कोनों प्रादि में बाल बनाती है जिसे जाल या झाला कहते हैं । उसी जाल में यह मक्खियाँ ठया दूसरे छोटे छोटे कीड़े फंसाकर खाती है । दीवारों की संधियों घादि में यह अपने शरीर से निकाले हुए चमकीले पतले और पारदर्शी पदार्थ का घर बनाती है और उसी में प्रसंख्य अंडे देती है। साधारणतः नर से मादा बहुत बड़ी होती है और संभोग के समय मादा कभी कभी नर को खा जाती है। फुच .